Wednesday 10 October 2012

बोलने की आजादी और देश द्रोह


प्रमोद जोशी, वरिष्ठ पत्रकार


असीम त्रिवेदी के बहाने चली बहस का एक फायदा यह हुआ कि सरकार ने इस 142 साल पुराने देशद्रोह कानून को बदलने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। मीडिया से सम्बद्ध ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स ने गृह मंत्रालय से इस दिशा में काम करने का अनुरोध किया है। कानूनों का अनुपालन कराने वाली एजेंसियाँ अक्सर सरकार-विरोध  को देश-विरोध समझ बैठती हैं। सूचना एवें प्रसारण मंत्री अम्बिका सोनी ने जीओएम के प्रमुख पी चिदम्बरम को पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि दंड संहिता की धारा 124 ए का समुचित संशोधन होना चाहिए। चिदम्बरम ने उनसे सहमति व्यक्त की है। विडंबना है कि इसी दौरान तमिलनाडु में कुडानकुलम में नाभिकीय बिजलीघर लगाने के विरोध में आंदोलन चला रहे लोगों के खिलाफ देशद्रोह के आरोप लगा दिए गए हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शासन के प्रति विरोध और विद्रोह में काफी महीन रेखा है। हम आसानी से यह कहते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा है। हम सीमा पर ज़ोर देने लगे हैं, जबकि मूल संविधान में यह सीमा नहीं थी। देश के पहले संविधान संशोधन के मार्फत हमारे संविधान में युक्तिसंगत पाबंदियाँ लगाने का प्रावधान शामिल किया गया। विचार-विनिमय की स्वतंत्रता लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण कारक है। किसी ने सवाल किया कि गाली देना क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हो सकती है? वस्तुतः हम भूलते हैं कि मौलिक अधिकार राज्य के बरक्स होते हैं। दो व्यक्तियों के बीच की गाली-गलौज के लिए दूसरे कानून हैं। राज्य की आलोचना के आधार दूसरे हैं। इस पोस्ट में मेरी ज्यादातर सामग्री दो साल पहले की एक पोस्ट से ली गई है। कुछ जगह नए संदर्भ जोड़े हैं। इस मामले में जैसे ही बहस आगे बढ़ती है तब यह सवाल आता है कि क्या हमारे देश, राज्य, सरकार, व्यवस्था का गरीब जनता से कोई वास्ता है? राष्ट्रीय चिह्नों की चिंता काफी लोगों को है, पर इनसान के रूप में जो जीवित राष्ट्रीय चिह्न मौज़ूद हैं उनका अपमान होता है तो कैसा लगता है?


नवम्बर 2010 में साल का नोबेल शांति पुरस्कार चीन के मानवाधिकारवादी ल्यू श्याओबो को देने की घोषणा की गई। इसे लेकर चीन सरकार ने गहरी नाराज़गी ज़ाहिर की थी। चीन के साथ अपनी मैत्री को साबित करने के लिए पाकिस्तान ने भी इस पुरस्कार पर हैरत और परेशानी का इज़हार किया है। नोबेल शांति पुरस्कार पर आमतौर पर राजनीति का मुलम्मा चढ़ा रहता है, पर वह पश्चिम का सम्मानित पुरस्कार है। यह भी सच है कि मानवाधिकारों को लेकर जो दिलचस्पी पश्चिमी देशों में है, वह हमारे जैसे पूर्वी देशों में नहीं है। चीन में साम्यवादी व्यवस्था से असहमति देशद्रोह के दायरे में आती है। इन दिनों विकीलीक्स के संस्थापक जूलियन असांज और उन्हें इक्वेडोर द्वारा दी गई शरण विचार का विषय है। असांज को अपने देश से नहीं अमेरिका से शिकायत है। 
एमनेस्टी इंटरनेशनल और ह्यूमन राइट्स वॉच जैसी संस्थाओं की जो रपटें पाकिस्तान, चीन या अफ्रीकी देशों के खिलाफ जाती हैं हम उनपर विस्तार से चर्चा करते हैं, पर जब हमारी व्यवस्था का जिक्र होता है तो हम उसे पश्चिमी भेदभाव के रूप में देखते हैं। विडंबना है कि इन दिनों मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की ज़रूरत एक ओर धुर वामपंथी कार्यकर्ता महसूस कर रहे हैं वहीं कश्मीर के गिलानी जैसे नेता महसूस करते हैं, जिनकी लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के बारे में एक जैसी धारणा नहीं है। पर हम इस अधिकार की उपेक्षा नहीं कर सकते हैं। यह अधिकार है तो इसे व्यावहारिक रूप से लागू भी होना चाहिए।
दो साल पहले अरुंधती रॉय ने कहा कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग कभी नहीं रहा। ऐसा उन्होंने पहली बार नहीं कहा। वे इसके पहले भी यह बात कह चुकी हैं। महत्वपूर्ण था उनका दिल्ली की एक सभा में ऐसा कहना। उस सभा में सैयद अली शाह गिलानी भी बोले थे। उनके अलावा पूर्वोत्तर के कुछ राजनैतिक कार्यकर्ता इस सभा में थे। देश की राजधानी में भारतीय राष्ट्र राज्य के बारे में खुलकर ऐसी चर्चा ने बड़ी संख्या में लोगों को मर्माहत किया, सदमा पहुँचाया। पहले रोज़ मीडिया में जब इसकी खबरें छपीं तब तक यह सनसनीखेज़ खबर भर थी। इसके बाद भारतीय जनता पार्टी ने इस सभा में विचार व्यक्त करने वालों पर देशद्रोह का मुकदमा चलाने की माँग की तब अचानक लोगों को लगा कि यह तो देशद्रोह हो गया है।
अरुंधती रॉय के वक्तव्य से जुड़े अनेक मसले हैं, जिनपर मीडियाकर्मी होने के नाते हमें ध्यान देना चाहिए। उन्होंने जो कहा वह देशद्रोह था या नहीं? दूसरे इस प्रकार के संवेदनशील मसलों को किस तरह रिपोर्ट किया जाय? तीसरे कभी ऐसा मौका आ पड़े जब हमें इंसानियत और राष्ट्रप्रेम के बीच चुनाव करना हो तो क्या करें? मीडिया के मार्फत हमारा समाज विचार-विमर्श भी करता है और जानकारी भी हासिल करता है, इसलिए हमारा फर्ज़ होता है कि इसके मार्फत हम पूरी कोशिश करें कि दोनों काम वस्तुगत(ऑब्जेक्टिवली) पूरे हों। हमारा कोई भी दृष्टिकोण हो दूसरे सभी दृष्टिकोणों को सामने रखें। यह बेहद मुश्किल काम है।
हमारे संविधान का अनुच्छेद 19(1) ए नागरिकों को अपनी बात कहने का अधिकार देता है। इस अधिकार पर कुछ पाबंदियाँ भी हैं। अनुच्छेद19(2) ए में कहा गया है कि अनुच्छेद 19(1)ए के होते हुए भी भारत की एकता और अखंडता, देश की सुरक्षा, वैदेशिक रिश्तों, लोक व्यवस्था,  मानहानि, अश्लीलता आदि के मद्देनज़र इस अधिकार को नियंत्रित तथा सीमित किया जा सकता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 121ए तथा124ए के अंतर्गत देशद्रोह दंडनीय अपराध हैं। 124ए में उन गतिविधियों के तीन स्पष्टीकरण हैं, जिन्हें देशद्रोह माना जा सकता है। इन स्पष्टीकरणों के बाद भी केदारनाथ बनाम बिहार राज्य के मामले में 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब तक सशस्त्र विद्रोह या हिंसा के इस्तेमाल की अपील न हो तब तक कुछ भी राजद्रोह नहीं है। मोटे तौर पर राष्ट्र-राज्य से असहमति को देशद्रोह नहीं मानना चाहिए।
सन 1922 में अंग्रेज सरकार ने महात्मा गांधी और शंकरलाल घेलाभाई बैंकर पर ‘यंग इंडिया’ में प्रकाशित तीन लेखों को लेकर आईपीसी की धारा124 ए के तहत मुकदमा चलाया। हालांकि महात्मा गांधी और बैंकर ने शुरू में ही आरोप को स्वीकार कर लिया, इसलिए मुकदमे को आगे बढ़ाने की ज़रूरत नहीं थी, पर सरकारी एडवोकेट जनरल सर स्ट्रैंगमैन का आग्रह था कि कार्यवाही पूरी की जाय।
बीसवीं सदी में अभिव्यक्ति के अधिकार को लेकर काफी विचार-विमर्श हुआ। खासतौर से अमेरिका के वियतनाम,अफगानिस्तान और इराक अभियानों के मद्देनज़र। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान देश-द्रोह और देश-भक्ति जैसे जुम्ले ज्यादा ज़ोरदार ढंग से उछले। बीबीसी तक पर कई बार संदेह किया गया। वियतनाम और इराक में कार्रवाई के दौरान अमेरिका में सरकार-विरोधी रैलियाँ निकलतीं रहीं। अच्छा हुआ कि अरुंधती रॉय के खिलाफ कार्रवाई नहीं की गई। इससे हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था मजबूत ही हुई है। कमज़ोर नहीं हुई। 
अरुंधती रॉय के विचार-व्यक्त करने के अधिकार का समर्थन एक बात है और उनके विचारों का समर्थन दूसरी बात है। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है या नहीं इस बारे में कम से कम उन्हें विशेषज्ञ नहीं माना जा सकता। कश्मीर पर कोई भी दृष्टिकोण तब तक अधूरा है, जब तक उसके सारे पहलू साफ न हों। कश्मीरी पंडित डोगरे और लद्दाख के बौद्ध गिलानी साहब के इस्लामी एजेंडा में फिट नहीं होते। कश्मीर की स्वतंत्रता एक अलग मसला है और उसे पाकिस्तान में शामिल कराने की कामना दूसरा मसला है। अरुंधती रॉय की भारतीय राष्ट्र-राज्य के बारे में तमाम धारणाओं से सहमति और असहमति व्यक्त की जा सकती है। कश्मीर पर वे क्या चाहतीं हैं, यह बात साफ नहीं है। इस मामले में गिलानी और कश्मीर के दूसरे अलगाववादियों के बीच भी मतभेद हैं।
मुम्बई की आदर्श हाउसिंग सोसायटी के घपले, कॉमनवेल्थ गेम्स के घोटालों और उसके पहले शेयर बाज़ार से लेकर हवाला तक के घोटालों को देखें तो हमें इस व्यवस्था में तमाम खोट नज़र आएंगे। हैरत इस बात पर है कि हमारा मीडिया इन मामलों की तह तक नहीं जाता। इसकी एक वज़ह यह है कि मीडिया का लक्ष्य बिजनेस है जन-कल्याण नहीं। राष्ट्रवाद के भावनात्मक पहलू का फायदा तो वह उठाना चाहता है, पर राष्ट्रीय कल्याण के व्यावहारिक मसलों की तफतीश नहीं करना चाहता। भ्रष्टाचार के मसलों पर हमारा मीडिया सरकारी भ्रष्टाचार पर नज़र रखता है, पर कॉरपोरेट भ्रष्टाचार पर चर्चा से बचता है, जहाँ उसके व्यावसायिक हित जुड़े होते हैं।
शुरुआत में मैने चीन के मानवाधिकार कार्यकर्ता ल्यू श्याओबो का ज़िक्र किया था। चीन के संविधान के अनुच्छेद 35 के तहत वहाँ के नागरिकों को अभिव्यक्ति, अखबार निकालने, सभा करने, संगठन बनाने और आंदोलन करने तक की आज़ादी है। यह आज़ादी काग़ज़ी है। हमारे संविधान की आज़ादियाँ अपेक्षाकृत कम काग़ज़ी हैं, पर पूरी वे भी नहीं हैं। हमारा आदर्श वाक्य सत्यमेव जयते पूरी तरह लागू होना चाहिए। इसके लिए कम से कम अपनी बात कहने का हक तो होना चाहिए। अपने देश से प्रेम इसलिए होना चाहिए कि हम इसमें रहने वाले लोगों को न्यायपूर्ण व्यवस्था देना चाहते हैं, उनकी खुशहाली चाहते हैं। देश-प्रेम और मनुष्य-मात्र से प्रेम के बीच कोई टकराव नहीं होता।   
इस पूरे मामले में व्यक्ति के अधिकार का मसला मेरे विचार से महत्वपूर्ण है। अरुंधती रॉय के समग्र राजनैतिक विचारों में कुछ बातें आकर्षित करती हैं और बहुत सी नहीं करतीं।

1 comment:

  1. A good piece of knowledge based information with current status.

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