दिल्ली में चलती बस में सामूहिक बलात्कार की घटना के
बाद उबाल खाई और अक्रोशित जनता सडक पर उतर आई है और जगह-जगह जनता भावावेश में आकर बलात्कारियों
को मृत्यु दंड देने की मांग कर रही है| ऐसा नहीं है कि बलात्कार के विषय में यह
आक्रोश पहली बार उभरा हो| पूर्व में भी इस जघन्य अपराध के विरोध में स्वर उठते रहे
हैं किन्तु भावावेश से किसी निर्णायक बिंदु पर नहीं पहुंचा जा सकता है| दिल्ली
हमारी राजनीति का केंद्र है और यहाँ हर गली में नेता बसते हैं| उल्लेखनीय है कि जिस दिल्ली की सड़कों पर घटना के बाद लाखों की तादाद में लोग
उतरे उसी दिल्ली की सडक पर पीडिता दो घंटे तक खून से लथपथ हालत में पड़ी रही और
पुलिस सहित किसी भी राहगीर ने उसकी कोई
सुध तक नहीं ली| समाज सेवा के नाम पर राजनीति करने वालों की संख्या यदि
इसमें जोड़ दी जाये तो यह एक बहुत बड़ी जनसँख्या हो जायेगी| स्मरण रहे कि इस प्रकार
की घटनाओं पर राजनैतिक रोटियां सेंकने के लिए पहले भी मृत्यु दंड के प्रावधान की
मांग उठी थी किन्तु स्वयं महिला संगठनों ने ही इस प्रावधान का विरोध किया था|
महिला संगठनों का यह विचार था कि यदि बलात्कारी को मृत्यु दंड दिया जाने लगा तो पर्याप्त
संभव है कि वे पीड़ित महिला से दुष्कर्म के बाद उसकी ह्त्या ही कर देंगे| मानवाधिकारों
की रक्षा के चलते आज विश्व में मृत्यु दंड को समाप्त करने की मांग उठ रही है और कई
देशों ने अपने कानून में से मृत्यु दंड के प्रावधान को ही समाप्त कर दिया है| भारत
में भी उच्चतम न्यायालय का यह विचार है कि मृत्यु दंड की सजा आपवादिक तौर पर और
बिरले से बिरले मामलों में ही दी जाये| यहाँ तक कि सामूहिक हत्याओं के मामले में
भी मृत्यु दंड नहीं दिया जाता बल्कि मृत्यु दंड तो उन बिरले मामलों में ही दिया
जाता है जहां मृत्यु अत्यंत नृशंस तरीके से कारित की गयी हो| ऐसी स्थिति में यदि
कानून की किताब में सैद्धांतिक तौर पर मृत्यु दंड का प्रावधान कर दिया गया तो भी
वह उक्त कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा और वास्तव में मृत्यु दंड किसी बलात्कारी को मिल
पायेगा यह संदेहास्पद है| जहां पीड़ित महिला की ह्त्या ही कर दी गयी हो वहाँ तो स्पष्ट
प्रमाण के अभाव में यह और कठिन हो जाएगा| कारावास का उद्देश्य दोषी में सुधार करना
होता है जबकि मृत्यु दंड तब दिया जाता है जब उसमें सुधार की संभावनाएं समाप्त हो
गयी हों| सजा देने हेतु न्यायालय के लिए मात्र अपराध की प्रकृति ही पर्याप्त नहीं
है अपितु पीड़ित व अभियुक्त दोनों का पूर्ववर्ती चरित्र, अभियुक्त की उम्र,
पश्चाताप आदि के साथ साथ साक्ष्य की प्रकृति भी विचारणीय होती है|
हाल ही के वर्षों में देश के बलात्कार कानून में
संशोधन किये गए हैं और आज इस अपराध के लिए अधिकतम सजा आजीवन कठोर कारावास व
न्यूनतम सजा सात वर्ष है| मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से सोचा जाये
तो यह प्रावधान अपराध की रोकथाम के लिये पर्याप्त और उचित है यदि देश के पास
वास्तव में कठोर कारावास के लिए व्यवस्था हो| क्योंकि कठोर कारावास में दोषी जीवन
भर पीड़ित होता जबकि मृत्यु दंड में तो उसे क्षणिक पीड़ा ही होती है और उसकी मृत्यु
का दुष्परिणाम, बिना किसी अपराध के, उसका परिवार जीवन भर के लिए भुगतता है| उच्चतम
न्यायालय ने भी एडिगा बनाम आंध्र प्रदेश (1974 AIR 799) में कहा है कि देरी से दिए
गए मृत्यु दंड की बजाय शीघ्र दिया गया आजीवन कारावास अधिक प्रभावी है|
दूसरी ओर हम
आये दिन सुनते हैं कि सरकारी जेल में प्रभावशाली लोगों को सभी सुविधाएं मुहैय्या
करवाई जाती हैं तथा पेशेवर व खूंखार अपराधी जेल से ही अपराध जगत का संचालन करते
हैं और चुनावों में जीतकर ये कानून तोडने वाले ही कानून बनाने वाले बन जाते हैं|
यह भी सुना जाता है कि देश की जेलों में प्रभावशाली लोगों के स्थान पर अन्य (प्रोक्सी)
जेल की सजा काटते हैं और वास्तविक दोषी बाहर स्वतंत्र विचरण करते रहते हैं| देश की
सभी जेलों के हालत लगभग एक जैसे ही हैं अलबता जहां जेल प्रशासन अधिक सख्त दिखाई
देता है वहाँ इस सख्ती को नरम बनाने के लिए अतिरिक्त कीमत अदा करनी पड़ सकती है| अत:
ऐसी स्थिति में देश में प्रभावशाली लोगों के लिए तो कोई सजा है ही नहीं और जो अपने
गरिमामयी गुजर बसर की व्यवस्था भी ठीक से करने में असमर्थ हैं उनके लिए सामान्य
जीवन भी एक सजा बन जाता है| जबकि आज अमेरिका, इंग्लॅण्ड आदि देशों में प्राइवेट जेलें
भी सफलता पूर्वक कार्य कर रही हैं| एक अन्य विचारणीय पहलू यह भी है कि भारत में
आजीवन कारावास की प्रभावी अवधि प्राय: 14 वर्ष ही होती है व विभिन्न अपराधों के
लिए भी दोषी पाए जाने पर किसी एक अपराध के लिए जो अधिकतम दंड निधारित हो वही दिया जाता
है और सभी सजाएं एक साथ चलती हैं| जबकि अमेरिका में आजीवन कारावास की अवधि 30 वर्ष
है और भिन्न– भिन्न अपराधों की सजाएं अलग अलग
चलती हैं व इनकी सम्मिलित अवधि आजीवन कारावास से भी अधिक हो सकती है|
मृत्यु दंड की सजा के पहलू का दूसरा भाग यह है कि निचले
स्तर के मजिस्ट्रेट न्यायालयों में तो पैरवी हेतु अभियोजन सञ्चालन के लिए
पूर्णकालिक स्थायी सहायक लोक अभियोजक नियुक्त होते हैं किन्तु सत्र न्यायालय, जहां बलात्कार के मामलों की सुनवाई होती है, में अभियोजन के
सञ्चालन के लिए मात्र अंशकालिक और अस्थायी लोक अभियोजक नियुक्त किये जाते हैं| इन लोक अभियोजकों को नाम मात्र का पारिश्रमिक देकर उन्हें
अपनी आजीविका के लिए अन्य साधनों से गुजारा करने के लिए खुला छोड़ दिया जाता है| वर्तमान में लोक अभियोजकों को लगभग सात हजार रुपये मासिक
पारिश्रमिक दिया जा रहा है जबकि सहायक लोक अभियोजकों को पूर्ण वेतन लगभग तीस हजार
रुपये दिया जा रहा है| यह अनुमान लगाना सहज है कि
बलात्कार के मामलों में पैरवी कितनी ईमानदारी और निष्ठा से होती है| दंड का प्रावधान
जितना कड़ा होगा, पुलिस और अभियोजन को अभियुक्त के साथ मोलभाव करने का उतना ही अच्छा
अवसर उपलब्ध होगा और दोषी के दण्डित होने के अवसर घटते जायेंगे ऐसी संभावना से भी इनकार
नहीं किया जा सकता| देश की पुलिस ही वास्तव में सबसे
बड़ी राजनेता और मनोवैज्ञानिक है| सरकार के दोनों पक्षों को खुश रखते हुए वह दोहन
चालू रखती है| अक्सर संसाधनों की कमी बताने वाली पुलिस पहले पीड़ित पक्ष को सहायता
की दिलाशा दिखाकर साक्ष्य जुटाएगी व शोषण करेगी और बाद में अभियुक्त को उन्हीं
साक्ष्यों की गंभीरता बताकर अपना काम करेगी, साक्ष्य गायब कर देगी| किन्तु परिवादी
के प्रभावशाली होने पर यही पुलिस हवाई जहाज से दौडती हुई अपराधी का पीछा करती है| चिकित्सकीय प्रमाण का भ्रष्ट दांवपेच अलग रह
जाता है|
राजस्थान में कुछ विदेशी महिलाओं के साथ हुए दुष्कर्म
के मामलों में दोषी लोगों को कुछ घंटों अथवा कुछ दिनों में ही दण्डित कर दिया गया
था| पद ग्रहण करते समय न्यायाधीश शपथ लेते हैं कि वे राग, द्वेष व भयमुक्त होकर
कार्य करेंगे| न्यायाधीश ऐसी धातु से बने होने चाहिए जो किसी भी तापमान पर नहीं
पिघले| किन्तु आज से लगभग बीस वर्ष पूर्व एक छोटे स्तर की सरकारी कर्मचारी भंवरी
देवी ने बाल विवाह की रिपोर्ट की और फिर भी बाल विवाह संपन्न हो गया| बदले की आग से
धधकते विरोधी लोगों ने उसके पति के सामने ही भंवरी देवी से सामूहिक बलात्कार किया
और सत्र न्यायाधीश ने यह कहते हुए सभी बलात्कारियों को मुक्त कर दिया कि सामान्यतया
बलात्कार किशोरों द्वारा किया जाता है और चूँकि अभियुक्त मध्यम उम्र के हैं इसलिए उन्होंने
बलात्कार नहीं किया होगा| इतना ही नहीं न्यायाधीश ने आगे लिखा कि एक ऊँची जाति का
व्यक्ति नीची जाति की औरत से बलात्कार कर अपने आपको अपवित्र नहीं कर सकता| महिला आई
ए एस अधिकारी बजाज के साथ हुए यौन शोषण के मामले में काफी संघर्ष के बाद भी अभियुक्त
पुलिस अधिकारी को मात्र अर्थ दंड से ही दण्डित किया गया| न्यायालयों में सामान्यतया समय पर निर्णय नहीं होते और मामले
पुराने होने पर ऊपर से दबाव बढ़ने पर आनन फानन में ताबडतोड निर्णय देते हैं जिसमें
निर्णय की गुणवता भेंट चढ जाती है| लगभग 15 वर्ष पूर्व बीकानेर में अपने कनिष्ठ
पुलिस अधिकारी की पत्नि के साथ अशोभनीय व्यवहार के लिए हाल ही में अभियुक्त पुलिस
अधिकारी पर भी जुर्माना ही लगाया गया है, उसे किसी प्रकार के कारावास की सजा नहीं
दी गयी है| इसी भारत भूमि पर महाभारत काल में द्रोपदी के
शीलहरण पर दुर्योधन की जंघा तोड़ी गयी थी और दुशासन की छाती के लहू से वेणी-संहार
किया गया था| जेब कतरने से अपराध जगत में कदम रखने वाला एक अपराधी ही
दण्डित नहीं होने पर आगे चलकर क्रमशः निस्संकोच चोर, ठग और डाकू बनता है| जिस
व्यक्ति को यौन शोषण के लिए कोई कारावास की सजा नहीं दी जाये वह बलात्कार का
दुस्साहसपूर्ण कदम उठा सकता है| उक्त मामलों में न्यायाधीशों ने अपनी शपथ, यदि
उसका कोई मूल्य हो तो, किस प्रकार निर्वाह किया है, समझ से परे है| इस प्रकार देश
का तथा कथित सम्पूर्ण लोकतान्त्रिक ढांचा पीड़ित व्यक्ति के अनुकूल नहीं है| जैसा
कि एक बार पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन ने कहा था कि प्रजातंत्र के चार
स्तंभ होते हैं और भारत में उनमें से साढ़े तीन स्तम्भ क्षतिग्रस्त हो चुके हैं|
अत: देश की विद्यमान व्यवस्था में आम आदमी के लिए न्याय पीड़ादायी और कठिन मार्ग
है| जब तक पीड़ित को न्याय नहीं मिले न्याय हेतु किया गया सारा सार्वजानिक खर्च
राष्ट्रीय अपव्यय है और पीड़ित के दृष्टिकोण से न्यायतंत्र एक भुलावा मात्र है| यदि
आम आदमी के लिए न्याय सुनिश्चित करना हो तो देश के संविधान, विधायिका, कानून,
न्याय एवं पुलिस सभी औपनिवेशिक प्रणालियों का पूर्ण शुद्धिकरण करना होगा तथा सस्ती
लोकप्रियता व तुष्टिकरण मूलक नीतियों का परित्याग करना होगा|
दक्षिण अफ्रिका में न्यायालयों की कार्यवाही का सही और
सच्चा रिकार्ड रखने के लिए 1960 से ही ओडियो रिकार्डिंग की जाती है और भारत में
न्यायालय अपनी कार्यवाही का सही और सच्चा रिकार्ड रखने से परहेज करना चाहते हैं|
यदि कोई पक्षकार किसी इलेक्ट्रोनिक साधन से न्यायिक कार्यवाही का रिकार्ड रखे तो
बड़ी ही तत्परता से उसे मानसिक रूप से अस्वस्थ बताकर हिरासत में भेज दिया जाता है और
उस पर न्यायिक अवमान का मुकदमा अलग से ठोक दिया जाता है| देश में दर्ज आपराधिक मामलों
में सजा दो प्रतिशत से भी कम में ही हो पाती है और बलात्कार के मामलों में भी यह
मात्र 26 प्रतिशत है अत: किसी कागजी प्रावधान से कोई उद्देश्य पूर्ति नहीं होगी
अपितु न्यायतंत्र से जुड़े सभी जन सेवकों को संवेदनशील व जनता के प्रति जिम्मेदार
बनाना पहली आवश्यकता है| भारत में जैसे जैसे सरकारी
अधिकारियों का अनुभव और पद की ऊँचाई बढती जाती है उसी अनुपात में उनमें स्वछंदता
परिपक्वता होती जाती है| विद्यमान
व्यवस्था में यदि बलात्कारी को मृत्युदंड का प्रावधान कर भी दिया गया तो उसको
मृत्यु दंड दिलाने के लिए पर्याप्त साक्ष्य कौन जुटाएगा, कौन कीमत चुकायेगा व कौन
मृत्यु दंड देगा – एक रहस्यमय प्रश्न है |