Sunday 24 February 2013

भारत में जन विरोधी बजट व आर्थिक नीतियाँ

देश की आजादी के समय हमारे पूर्वजों के मन में बड़ी उमंगें थी और उन्होंने अपने और आने वाली पीढ़ियों के लिए सुन्दर सपने संजोये थे| आज़ादी से लोगों को आशाएं बंधी थी कि वे अपनी चुनी गयी सरकारों के माध्यम से खुशहाली और विकास का उपभोग करेंगे| देश में कुछ विकास तो अवश्य हुआ है लेकिन किसका, कितना और इसमें किसकी भागीदारी है यह आज भी गंभीर प्रश्न है जहां एक मामूली वेतन पाने वाला पुलिस का सहायक उप निरीक्षक निस्संकोच होकर धड़ल्ले से अरबपति बन जाता है उच्च लोक पदों पर बैठे लोगों की तो बात क्या करनी है| वहीं आम नागरिक दरिद्रता के कुचक्र में जी रहा है- उसे दो जून की रोटी भी सम्मानपूर्वक उपलब्ध नहीं हो रही है| शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे झूझना पड़ता है| स्वयं योजना आयोग ने लगभग 40 वर्ष पहले भी माना था कि आज़ादी के बाद अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ी है जबकि हमारा पवित्र संविधान सामाजिक और आर्थिक न्याय का पाठ पढाता है| आज तो यह खाई इतनी बढ़ चुकी है कि शायद आने वाली कई पीढ़ियों के लिए भी इसे पाटना मुश्किल हो जाएगा|
एक नागरिक पर उसके सम्पूर्ण परिवार के भरण पोषण का नैतिक और कानूनी दायित्व होता है| इस तथ्य को स्वीकार करते हुए अमेरिका में आयकर कानून बनाया गया है और वहां नागरिकों का कर दायित्व उनकी पारिवारिक व आश्रितता की स्थिति पर निर्भर करता है| यदि करदाता अविवाहित या अलग रहता हो तो भी यदि उस पर आश्रित हों तो उसे आयकर में काफी छूटें उपलब्ध हैं| उदाहरण के लिए एक अविवाहित पर यदि कोई आश्रित नहीं हों तो उसकी मात्र 9750 डॉलर तक की वार्षिक आय करमुक्त है वहीँ यदि उस पर आश्रितों की संख्या 6 हो तो उसे 32550 डॉलर तक की आय पर कर देने से छूट है| ठीक इसी प्रकार यदि एक व्यक्ति घर का मुखिया हो व उस पर आश्रितों की संख्या 6 हो तो उसे 35300 डॉलर तक की आय पर कोई कर नहीं देना पडेगा| इसी प्रकार आश्रितों की विभिन्न संख्या और परिवार की संयुक्त या एकल स्थति के अनुसार अमेरिकी कानून में छूटें उपलब्ध हैं| इस प्रकार अमेरिका पूंजीवादी व्यवस्था वाला देश होते हुए भी समाज और सामाजिक-आर्थिक न्याय को स्थान देता है|  
भारत में अंग्रेजी शासनकाल में 1922  में राजस्व हित के लिए 64 धाराओं वाला संक्षिप्त आयकर कानून का निर्माण किया गया था और तत्पश्चात स्वतंत्रता के बाद 1961 में नया कानून बनया गया| इस कानून को बनाने में यद्यपि संवैधानिक ढांचे को ध्यान में रखा जाना चाहिए था किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं किया गया है| कानून को समाज का अनुसरण करना चाहिए और इनके निर्माण में जन चर्चाओं के माध्यम से जनभागीदारी होनी चाहिए क्योंकि कानून समाज हित के लिए ही बनाए जाते हैं| भारत के संविधान में यद्यपि समाजवाद, सामजिक न्याय और आर्थिक न्याय का उल्लेख अवश्य किया गया है किन्तु इन तत्वों का हमारी योजनाओं, नीतियों और कानूनों में अभाव है| भारत में सभी नागरिकों को एक सामान रूप से कर देना पड़ता है चाहे उन पर आश्रितों की संख्या कुछ भी क्यों न हो| संयुक्त परिवार प्रथा भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है| हमारे यहाँ  परिवार के कमाने वाले सदस्य पर शेष सदस्यों के भरण-पोषण का नैतिक और कानूनी दायित्व है क्योंकि भारत में पाश्चात्य देशों के समान सामजिक सुरक्षा या बीमा की कोई योजनाएं लागू नहीं हैं| जबकि पश्चात्य संस्कृति में परिवार नाम की कोई इकाई नहीं होती और विवाह वहां एक संस्कार के स्थान पर अनुबंध मात्र है| पाश्चात्य देशों में एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में औसतन 5-6 विवाह करता है| परिस्थितिवश जब परिवार में एक मात्र कमाने वाला सदस्य हो और उस पर आश्रितों की संख्या अधिक हो तो भारत में उसके लिए आयकर चुकाने की क्षमता तो दूर रही अपना गरिमामयी जीवन यापन भी कठिन हो जाता है | वैसे भी भारत में आश्रितता की औसत संख्या 5 के लगभग आती है| इन सबके अतिरिक्त समय समय पर विवाह जन्मोत्सव आदि सामाजिक समारोहों पर होने वाले व्यय का भार अलग रह जता है| इस प्रकार हमारा आयकर कानून हमारे सामाजिक ताने बाने पर आधारित नहीं और न ही यह अमेरिका जैसे पूंजीवादी समर्थक देशों की प्रणाली पर आधरित है| बल्कि हमारे बजट, कानून और नीतियाँ तो, जैसा कि एक बार पूर्व प्रधान मंत्री श्री चंद्रशेखर ने कहा था, आयातित हैं जिनका देश की परिस्थितियों से कोई लेनादेना या तालमेल नहीं है| उक्त विवेचन से यह बड़ा स्पष्ट है कि देश में न तो अमेरिका की तरह पूंजीवाद है और न ही समाजवाद है बल्कि अवसरवाद है तथा हम आर्थिक न्याय, समाजवाद और सामजिक न्याय का मात्र ढिंढोरा पीट रहे हैं, उसका हार्दिक अनुसरण नहीं कर रहे हैं|  

देश में सत्तासीन लोग नीतिगत निर्णय लेते समय राजनैतिक लाभ हानि व सस्ती लोकप्रियता पर अधिक और जनहित पर कम ध्यान देते हैं| हमारे पास दूरगामी चिंतन, दीर्घकालीन तथा टिकाऊ लाभ देने वाली नीतियों  का सदैव अभाव रहा है| सामाजिक हितों के सरोकार से देश में 14 बैंकों का 1969 में राष्ट्रीयकरण किया गया और 1980 में फिर 6 और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया किन्तु कुछ समय बाद ही इन्हीं बैंकों के निजीकरण पर मंथन होने लगा| यह हमारी अपरिपक्व और विदेशी इशारों पर संचालित नीतियों की परिणति है| देश में बैंकों और वितीय कंपनियों, जिनमें जनता का धन जमा होता है,  पर निगरानी रखने और उनके लिए नीतियाँ निर्धारित करने का कार्य रिजर्व बैंक को सौंपा गया है| किन्तु ध्यान देने योग्य तथ्य है कि देश में नई-नई निजी वितीय कम्पनियां और बैंकें मैदान में बारी बारी से  आती गयी हैं और इनमें जनता का पैसा फंसता रहा है| इन कमजोर और डूबंत बैंकों का अन्य बैंकों में विलय कर दिया गया या अन्य तरीके से उनका अस्तित्व मिटा दिया गाया| रिजर्व बैंक अपने कानूनी दायित्वों के निर्वहन में, और कमजोर वर्गों के हितों की रक्षा करने में विफल रहा है| देश को राष्ट्रीय सहारा जैसी कंपनियों द्वारा दिए गए जख्म भी अभी हरे हैं| आज देश में राष्ट्रीय स्तर का ऐसा कोई भी निजी क्षेत्र का बैंक या वितीय कंपनी नहीं है जिसका 20 वर्ष से ज्यादा पुराना और उज्ज्वल इतिहास हो| कुल मिलाकर वितीय और बैंकिंग क्षेत्र में हमारी नीतियाँ जनानुकूल नहीं रही हैं| जो निजी  क्षेत्र के बैंक आज देश में कार्यरत हैं उनकी भी वास्तविक वितीय स्थिति मजबूत  नहीं है चाहे उन्होंने चार्टर्ड अकाऊटेन्ट की मदद से कागजों में कुछ भी सब्ज बाग़  दिखा रखे हों|  

प्रकृति ने समस्त संसाधन सभी प्राणियों के लिए समान रूप से निशुल्क उपलब्ध करवाए हैं और सभी नागरिकों को इन संसाधनों के दोहन करने के समान अधिकार हैं| एक व्यक्ति अपनी स्वयं की क्षमता से इन प्राकृतिक संसाधनों का सीमित दोहन कर सकता है किन्तु कुछ लोग अन्य लोगों की सहायता से इन संसाधनों का अधिक दोहन कर धन कमाते हैं और अपने इन सहायकों को कम प्रतिफल कर देकर धन संचय करते हैं| स्वस्प्ष्ट है कि अन्य लोगों का हक़ छीनकर और उनका शोषण कर धन संचयन कर धनपति-पूंजीपति बना जा सकता है| आज देश में बहुत सी ऐसी कहानियां मिल सकती हैं जिनमें फुटपाथ पर सामान बेचने वाले लोग सत्तासीन लोगों से मिलकर किसी न किसी रूप में सार्वजनिक धन को लूटकर या कर चोरी कर शीघ्र ही धनाढ्य हो गए हैं| देश के संविधान में यद्यपि समाजवाद का समावेश अवश्य है किन्तु देश के सर्वोच्च वितीय संस्थान रिजर्व बैंक के केन्द्रीय बोर्ड में ऐसे सदस्यों के चयन में इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं है जिनकी समाजवादी चिंतन की पृष्ठभूमि अथवा कार्यों से कभी भी वास्ता रहा है| सर्व प्रथम तो बोर्ड के अधिकाँश सदस्य निजी उद्योगपति पूंजीपति हैं| जिन सदस्यों को उद्योगपतियों के लिए निर्धारित कोटे के अतिरिक्त -  समाज सेवा , पत्रकारिता आदि क्षेत्रों से चुना जाता है वे भी समाज सेवा, पत्रकारिता आदि का मात्र चोगा पहने हुए होते हैं व वास्तव में वे किसी न किसी  औद्योगिक घराने से जुड़े हुए हैं| एक उद्योगपति का स्पष्ट झुकाव स्वाभाविक रूप से व्यापार के हित में नीति निर्माण में होगा| इससे भी अधिक दुखदायी तथ्य यह है कि  केन्द्रीय बोर्ड के 80% से अधिक सदस्य विदेशों से शिक्षा प्राप्त हैं फलत: उन्हें जमीनी स्तर की भारतीय परिस्थितियों का कोई व्यवहारिक ज्ञान नहीं है अपितु उन्होंने तो इंडिया को मात्र पुस्तकों  में पढ़ा है| ऐसी स्थिति में रिजर्व बैंक बोर्ड द्वारा नीति निर्माण में संविधान सम्मत और जनोन्मुख नीतियों की अपेक्षा करना ही निरर्थक है| रिजर्व बैंक, स्वतन्त्रता पूर्व 1934 के अधिनियम से स्थापित एक बैंक है अत: उसकी स्थापना में संवैधानिक समाजवाद के स्थान पर औपनिवेशिक साम्राज्यवाद की बू आना स्वाभाविक  है| देश के 65% गरीब, वंचित और अशिक्षित वर्ग का रिजर्व बैंक के केन्द्रीय बोर्ड में वास्तव में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है| दूसरी ओर भारत से 14 वर्ष बाद 1961 में स्वतंत्र हुए दक्षिण अफ्रिका के रिजर्व बैंक के निदेशकों में से एक कृषि व एक श्रम क्षेत्र से होता है| हमारे पडौसी देश पाकिस्तान के केन्द्रीय बैंक में निदेशक मंडल में प्रत्येक राज्य से न्यूनतम एक निदेशक अवश्य होता है जबकि हमारे देश में ऐसे  प्रावधान का नितांत अभाव है|


                 संयुक्त राज्य अमेरिका में आयकर ढांचा

  


           No. of Dependents→
Status
                  EXEMPTED INCOME  IN $   
0
1
2
 3
4
5
 6
Single
 9750
13550
17350
21150
24950
28750
32550
Married joint
19500
23300
27100
30900
34700
38500
42300
Married separate
  9750
13550
17350
21150
24950
28750
32550
Head of house
12500
16300
20100
23900
27700
31500
35300

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