Friday 6 December 2013

यदि देश का पुलिस बल निष्ठा पूर्वक कार्य करता तो शायद नीतिनिर्माण के अतिरिक्त गृह मंत्रालय की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती

गृह मंत्रालय सरकार एक प्रमुख अंग है जो मुख्य रूप से पुलिस से सम्बन्ध रखता है व  पुलिस ज्यादतियों से सम्बंधित शिकायतों पर समुचित कार्यवाही करने का दायित्व मंत्रालय पर है| किन्तु व्यवहार में पाया गया है कि स्वतंत्रता के बाद भी पुलिस के रवैये में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है| देश में पुलिस बलों का गठन यद्यपि जनता की सुरक्षा के लिए किया गया है किन्तु देश की पुलिस आज भी अपने कर्कश स्वर का प्रयोग जनता को भयभीत करने के लिये ही कर रही है परिणामत: देश का पुलिस संगठन अपराधियों का मित्र और आम नागरिक के दुश्मन की तरह देखा जाता है| आज भी आम नागरिक पुलिस से दूर ही रहना चाहता है|
मंत्रालय भी अपने कर्तव्यों में घोर विफल है और पुलिस अभी भी बेलगाम है तथा पुलिस बल का उपयोग आमजन की सुरक्षा की बजाय मात्र (आर्थिक या राजनैतिक) सतासीन लोगों की रक्षा के लिए हो रहा है| इस स्थिति पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि स्वयं केन्द्रीय गृह मंत्रालय में 20 से अधिक पुलिस अधिकारी नियुक्त/प्रतिनियुक्त हैं जो गृह मंत्रालय सचिवालय की कार्यशैली व संस्कृति को अपदूषित कर रहे हैं| राज्यों की स्थिति भी लगभग समान ही है| इससे यह गृह मंत्रालय कम और पुलिस मंत्रालय ज्यादा नजर आता है| मैं अपने अनुभव से यह बात स्पष्ट तौर पर कह सकता हूँ कि सम्पूर्ण देश के पुलिस बलों में निष्ठावन और योग्य व्यक्ति मिलने कठिन है | देश के पुलिस बलों का वातावरण ही ऐसा है कि वहां कोई भी निष्ठावान  व्यक्ति टिक नहीं सकता| जो लोग आज पुलिस बलों में टिके हुए हैं वे सभी अपने कर्तव्यों और जनता के प्रति निष्ठावान के स्थान पर अपने वरिष्ठ अधिकारियों और राजनेताओं के स्वामिभक्त अधिक हैं और उनके प्रसाद स्वरुप ही पदोन्नतियाँ और पदक पा रहे हैं| यदि कोई निष्ठावान व्यक्ति भ्रान्तिवश इस बल में भर्ती हो भी जाए तो उसे भीरु बनकर पुलिस की अस्वस्थ परम्पराओं को निभाना पडेगा या पुलिस सेवा छोडनी पड़ेगी| यदि एक व्यक्ति सर्वगुण  सम्पन्न होते हुए भीरु हो तो उसके सभी गुण निरुपयोगी हैं क्योंकि वह उनका कोई उपयोग नहीं कर सकता|
पुलिस के विरुद्ध आने वाली समस्त शिकायतों में दोषी पुलिस अधिकारी का बचाव करने के लिए गृह मंत्रालय में पर्याप्त पुलिस अधिकारी लगा रखे हैं| ऐसी स्थिति में पुलिस सुधार की कोई भी आशा करना ही व्यर्थ है| गृह मंत्रालय में इन पुलिस अधिकारियों को लगाने से कोई जन अभिप्राय: सिद्ध नहीं होता क्योंकि जो पुलिस वाले अपने कार्यक्षेत्र में रहते हुए पुलिस को जनोंन्मुखी नहीं बना सके वे मंत्रालय में किस प्रकार सहायक हो सकते हैंयदि देश का पुलिस बल निष्ठा पूर्वक कार्य करता तो शायद नीतिनिर्माण के अतिरिक्त गृह मंत्रालय की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती और जितना बड़ा गृह मंत्रालय का बीड़ा है उसका एक चौथाई ही पर्याप्त रहता|  

वैसे भी पुलिस तो जनता की सुरक्षा के लिए क्षेत्र में कार्य करने वाला बल जिसका कार्यालयों में कोई कार्य नहीं है| सभी स्तर के पुलिस अधिकारियों को कार्यक्षेत्र में भेजा जाना चाहिए और उन्हें, अपवादों को छोड़कर, हमेशा ही चलायमान ड्यूटी पर रखा जाना चाहिए| आज संचार के उन्नत साधन हैं अत: आवश्यकता होने पर किसी भी पुलिस अधिकारी से कभी भी कहीं भी संपर्क किया जा सकता है व आमने सामने बात की जा सकती है और पुलिस चलायमान ड्यूटी पर होते हुए भी कार्यालय का कामकाज देख सकती है|
वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को यह भी निर्देश हो को वे पुलिस थानों के कार्यालय की बजाय जनता से संपर्क कर निरीक्षण रिपोर्ट बनाएं| पुलिस का कार्य विशुद्ध रूप से जनता को सुरक्षा उपलब्ध करवाना और कानून-व्यवस्था बनाए रखना है, किसी भी प्रकार से प्रशासन में हस्तक्षेप करना उनका कार्य नहीं है| पुलिस को वैसे भी सचिवालय में कार्य करने का कोई प्रशिक्षण नहीं होता अपितु शस्त्र चलाने, कानून-व्यवस्था का ही प्रशिक्षण दिया जाता है अत: सचिवालय के लिए पुलिस का कोई उपयोग न्यायोचित नहीं है| सचिवालय को, जो पुलिस अधिकारी कहीं पर उपयुक्त न हों, ऐसे नाकाम पुलिस अधिकारियों की शरण स्थली नहीं बनाया जाए

वास्तव में देखा जाये तो वर्दी में छिपे अपराधी ही आज समाज के लिए सबसे बड़ा ख़तरा हैं| अतेव गृह मंत्रालय को पुलिस प्रभाव से पूर्णतया मुक्त कर गृह मंत्रालय का शुद्धिकरण किया जाये, पुलिस को अपने कार्य क्षेत्र में भेजा जायऔर प्रत्यक्ष सुरक्षा के अतिरिक्त किसी भी पुलिस अधिकारी को गृह मंत्रालय में नियुक्ति अथवा प्रतिनियुक्ति पर नहीं रखा जाए|  

आपराधिक मामलों में पुलिस जांच अपराधी को कम और पीड़ित को ज्यादा दुःख देने वाली होती है| यहाँ तक की पुलिस द्वारा जांच में, निर्धारित नियमों से विपरीत प्रक्रिया अपनाई जाती है| यद्यपि पुलिस को अपराध की सूचना मिलने पर तुरंत घटना स्थल पर जाकर प्रमाणों को सुरक्षित करना चाहिये और अपराधी का पक्ष जानना  चाहिए किन्तु पुलिस ठीक इसके विपरीत, पहले पीड़ित के बयान लेती है और अक्सर पीड़ित को धमकाकार उसे मामला वापिस लेने के लिए दबाव बनाती है| जबकि यदि पुलिस पहले अपराधी के बयान ले और बाद में इन बयानों के आधार पर पीड़ित के बयान ले तो पीड़ित पक्षकार, अपराधी के बयानों के विषय में, और बेहतर स्पष्टीकरण  दे सकता है और पीड़ित के बयान तो स्वयम ऍफ़ आई आर या न्यायालय के माध्यम से प्राप्त परिवाद में पहले से ही होते हैं| इससे स्थिति प्रारम्भिक स्तर पर ही अधिक स्पष्ट हो सकेगी| पुलिस अनुसन्धान का अभिप्राय किसी पक्ष को पीड़ा पहुंचाना न होकर दोनों पक्षों को सुनकर निष्पक्ष तथ्यात्मक रिपोर्ट तैयार करना है  जबकि पुलिस द्वारा मनमानी प्रक्रिया अपनाई जाती| आश्चर्य होता जब कई बार पुलिस किसी अभियुक्त की लम्बी अवधि के लिए रिमांड की मांग करती है वहीं कई बार अभियुक्त से कोई पूछताछ किये बिना ही उसे दोषी मान बैठती है|  

जनता की पुलिस के प्रति शिकायतों में भी कोई कमी नहीं आयी है और पुलिस वालों को यह विश्वास है  कि वे चाहे जो करें उनका कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है| आंकड़े बताते हैं कि वर्ष भर में पुलिस के विरुद्ध प्राप्त होने वाली शिकायतों में मुश्किल से मात्र 1 प्रतिशत में ही कोई कार्यवाही होती है क्योंकि  इन शिकायतों की जांच किसी पुलिस अधिकारी के द्वारा ही की जाती है| आखिर वे अपनी  बिरादरी के विरुद्ध कोई कदम कैसे उठा सकते हैं? अत: यह व्यवस्था की जाए कि भविष्य में किसी भी पुलिसवाले चाहे किसी भी स्तर का क्यों न हो, के विरुद्ध जांच पुलिस द्वारा नहीं की जायेगी| अब तक की प्रवृति के अनुसार देश में जांचें दोषियों को बचाने के लिए की जाती रही हैं न कि दोषी का दायित्व निश्चित करने के लिए| मैं एक उदाहरण से आपको यह स्पष्ट करना चाहूंगा| एक बार ट्रेन के कुछ डिब्बे पटरी से उतर गए तो जांच के लिए इंजीनियर आये और डिब्बे वाले इंजीनियरों ने रिपोर्ट दी कि पटरी का अलायन्मेंट सही नहीं था और पटरी वाले इंजीनियरों का कहना था कि डिब्बे के पहियों का अलायन्मेंट ठीक नहीं था किन्तु किसी ने भी अपने विभाग को सही और दुरस्त होने या सही नहीं होने पर कोई टिपण्णी नहीं कीआज हमारी सरकारें इस प्रकार के छद्म बहानों की तामीर पर ही चल रही हैं और जांचों में मुख्य मुद्दे से हटकर ही कोई निष्कर्ष निकाला जाता है जिससे दोषियों को फलने फूलने का अवसर मिल रहा है और देश में दोषी लोक सेवक रक्तबीज की तरह बढ़ रहे हैं
अनुसन्धान में अग्रसर होने के लिए पुलिस तुरंत अपराधी का पक्ष जाने और पहले पीड़ित के बयान लेने में अनावश्यक समय बर्बाद नहीं करे क्योंकि जांच का उद्देश्य अभियुक्त की गिरफ्तारी के मजबूत आधार तैयार करना नहीं होकर सत्य का पता लगाना है|   न ही अभियुक्त की गिरफ्तारी न्याय का अंतिम लक्ष्य है|

दंड प्रक्रिया संहिता एवं पुलिस नियमों में पुलिस हैड कांस्टेबल को पुलिस थाना के प्रभारी की शक्तियां दी  हुई हैं  अत: निरीक्षक का हमेशा थाने पर उपस्थित रहना आवश्यक नहीं और एफ आई आर दर्ज करने के लिए हैड कांस्टेबल को किसी प्रशासनिक आदेश की भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह कानून द्वारा ऐसा करने के लिए पहले से ही सशक्त है और कोई भी पुलिस अधिकारी कानून से ऊपर नहीं है|  जरूरत है पुलिस की कार्य शैली और भूमिका में जनानुकूल परिवर्तन कर इसे एक नई दिशा दी जाए |

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