Friday 7 December 2012

लोक सेवक की परिधि


सुप्रीम कोर्ट ने षेरसिंह बनाम सुरेन्द्र कुमार (ए.आई.आर. 1998 सु.को. 2289) के मामले में कहा है कि इस प्रकार का गैर सहयोगी व्यवहार विषेशतः एक सार्वजनिक निकाय द्वारा एक आदर्ष नियोक्ता के रूप में अखरता है जो कि न्यायालय के सामने उसने मुद्दे निर्णय हेतु उठाये है। एक विवादक पक्षकार जब सरकार या सार्वजनिक निकाय हो तो उसे कुछ भी छुपाना नहीं चाहिए और नाम मात्र का भी कोई विरोधाभास हो तो बिन्दुओं के निर्धारण हेतु न्यायालय के सामने सारा रिकॉर्ड रख देना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल राज्य बनाम् निषान्त सरीन के मामले के निर्णय दि. 9.12.10 में स्पश्ट किया है कि यदि जांच एजेन्सी को कोई उचित षिकायत हो तो यदि कोई नई विशय वस्तु आवष्यक नहीं हो तो स्वीकृति से मना करने के आदेष को चुनौति देनी चाहिए थी और लेकिन ऐसा नहीं किया गया। स्वीकृतिदाता अधिकारी की षक्तियां लगातार प्रकृति की नहीं होने से उसी विशय सामग्री पर केवल एक बार ही प्रयोग की जा सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब राज्य बनाम चरणसिंह (1981 एआईआर सु0को0 1007) में कहा है कि नियम 16.38 एक आपराधिक न्यायालय द्वारा अभियोजन प्रारम्भ करने के लिए पूर्ववर्ती षर्त नहीं है अपितु यह विभाग को निर्देष की प्रकृति की है और यह अभियोजन के लिए अनुमति या स्वीकृति के लिए नहीं है। न ही यह दण्ड प्रक्रिया संहिता और भ्रश्टाचार निवारण अधिनियम के प्रावधानों पर अभिभावी है। जांच जिला मजिस्ट्रेट द्वारा प्रथम दृश्टया मामले के निर्धारण कर   यह देखने के लिए निर्दिश्ट है कि दोशी पक्षकार के विरूद्ध विभागीय कार्यवाही की जाए अथवा नहीं और इस नियम द्वारा मात्र विभागीय कार्यवाही में प्रक्रिया और दण्ड विनियमित होते है जो कि पुलिस अधीक्षक के विचार से अनियंत्रित है। ।
यद्यपि राज्य स्वीकृति देने या मना करने में कानूनी क्षेत्राधिकार प्रयुक्त करता है। किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि यह षक्ति दोबारा प्रयोग नहीं की जा सकती। बाद के चरण में यद्यपि पुनर्विचार करने का राज्य को स्पश्ट अधिकार नहीं है फिर भी यह प्रषासनिक प्रकृति की है। स्वीकृति देने का आदेष की वैधता आपराधिक न्यायालय द्वारा पुनरीक्षा के अधीन है। स्वीकृत देने से मना करने का आदेष बड़े न्यायालयों द्वारा न्यायिक पुनरीक्षा के अधीन है।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने सत्यदेव षर्मा बनाम राजस्थान राज्य (1998 डब्ल्यू एल एन 438) में कहा है कि यदि विद्यायिका का यह उद्देष्य होता कि पुलिस को कम्पनी मामलों में संज्ञेय अपराधों की स्थिति में कानूनी अधिकार नहीं है तो दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (1) में ऐसा प्रावधान करने से कुछ भी रोकने वाला नहीं था। कम्पनी अधिनियम 1956 के प्रावधानों का उद्देष्य दण्ड कानूनों के लागू होने में कम्पनी के पदधारियों और कार्यकर्ताओं के लिए सुरक्षा चाहने का उद्देष्य नहीं था।
नृपति घोशाल बनाम प्रेमावती कप्पू (एआईआर 1996 सु0को0 2586) में कहा है कि यद्यपि कब्जा नहीं देने के लिए अवमान कार्यवाही की गई किन्तु निर्धारित समयावधि में इस न्यायालय में अपील दायर करने के लिए कोई कदम नहीं उठाये गये। इससे यह जाहिर होता है कि सम्बन्धित कार्यवाहियों में उदासीनता बरती गई । जिम्मेवारी अधिकारी को देरी के लिए उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए । संबन्धित सरकारों द्वारा उच्च न्यायालय या इस न्यायालय में अपील दायर करने में यही प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिए। रजिस्ट्री को निर्देष दिया जाता है कि वे इस आदेष की प्रति मंत्रीमण्डल सचिव, राज्यों के मुख्य सचिव, अटॉर्नी जनरल और राज्यों के महाधिवक्ता को आवष्यक कार्यवाही हेतु भेजी जावे।

No comments:

Post a Comment