Tuesday 4 December 2012

कमजोर कानूनों से जूझता भारतीय गणतंत्र


अंग्रेजों की शासन नीति का मूलमंत्र फूट डालो और राज करो रहा है| इस नीति के अनुसरण में उन्होंने भारत के देशी राजाओं को आपस में लड़वाकर सम्पूर्ण देश पर शासन स्थापित कर लिया था| इतना ही नहीं जब व्यापारिक क. ईस्ट इंडिया क. देश में सता की बागडोर संभालने में असमर्थ रही तो ब्रिटिश संसद ने भारत सरकार अधिनियम 1858 पारितकर भारत पर शासन की बागडोर अपने हाथ में  ले ली और फूट की राजनीति को आगे बढ़ाया| अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने कानून निर्माण की प्रक्रिया को इस प्रकार के सांचे में ढाला कि किसी भी कृत्य, अकृत्य या अपकृत्य से सरकार और उसके सेवक किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी सिविल व आपराधिक से मुक्त रहें और जनता आपस में लड़ती रहे ताकि उनके लिए शासन का मार्ग आसान रहे| इन सभी लक्ष्यों को ध्यान में रखकर सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 का निर्माण किया गया और इसके माध्यम से अपील, निगरानी आदि विभिन्न प्रकार के विलम्बकारी साधनों की एक लंबी श्रृंखला खड़ी कर दी गयी| वकीलों के तकनीकी दांवपेच और रंग दिखाते हैं| इन्हें देखते हुए यद्यपि श्रम सम्बंधित कुछ मामलों में और परिवार न्यायालयों में वकीलों के पैरवी की मनाही है| सुप्रीम कोर्ट ने मालिक मजहर (JT2007(3)SC352) के मामले में यह कहा है कि भर्ती में विलम्ब के कारण जनता न्याय से वंचित रहती है अत: सीधी भर्ती के मामले में 12 माह में और पदोन्नति के मामले में 6 माह में न्यायाधीशों की भर्ती पूर्ण कर ली जानी चाहिए| किन्तु व्यवहार में इन आदेशों की अवहेलना ही हो रही है|
आज भी यदि न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार को छोड़ भी दिया जाये तो न्यायाधीशों और वकीलों की गलतियों व इस श्रृंखला के उपयोग से न्यायिक प्रक्रिया को एक लंबे, अँधेरे और अंतहीन मार्ग पर धकेल दिया जाता है जिससे आम व्यक्ति के लिए न्याय प्राप्ति एक दिवा स्वप्न बन कर रह जाता है| वकीलों और न्यायाधीशों की गलतियों व लापरवाहियों के लिए उन्हें कोई दंड नहीं दिया जाता परिणामस्वरूप ये निर्बाध गति से जारी हैं| अंतर्राष्ट्रीय मिलटरी ट्राइब्यूनल ने  संयुक्त राज्य बनाम अल्स्तोटर मामले में जर्मन न्यायाधीश ओसवाल्ड रोह्थाग द्वारा दिनांक 23.03.1942 को दिए गए अनुचित निर्णय के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी| न्यायाधीशों के अनुचित फैसलों से समाज पर गंभीर प्रभाव पड़ता है और ये समाज में अस्थिरता उत्पना करते हैं| यह भी प्रासंगिक है कि जब गैर-इरादतन हत्या के लिए सजा हो सकती है तो फिर अनुचित फैसले, चाहे गैर-इरादतन ही हों, उनके लिए सजा क्यों नहीं होनी चाहिए| संहिता में सरकार अथवा उसके अधिकारी को विशेष दर्जा दिया गया और धारा 80 में यह प्रावधान किया गया कि इनके विरुद्ध मुकदमा करने से पूर्व कम से कम 60 दिन का नोटिस देना आवश्यक है| इसी प्रकार संहिता के आदेश 27 नियम 5 ख में  न्यायाधीशों पर यह दायित्व भी डाला गया कि वे ऐसे मुकदमे में जिनमें सरकार पक्षकार हो सुलह का प्रयास करेंगे| इन प्रावधानों के माध्यम से सरकार के विरुद्ध नागरिकों के जायज दावों में भी सुलह के नाम पर विलम्ब करने का एक और नया हथियार बनाया गया ताकि मुकदमेबाजी द्रोपदी के चीर की भांति अनंत बनी रहे| ये सभी कानून हमारे सामाजिक ताने बाने से नहीं निकले हैं| कानून समाज के लिए बनाए जाते हैं न कि समाज कानून के लिए बना है| अफ़सोस कि इन औपनिवेशक कानूनों को हम पिछले  65 वर्षों में भी बदल नहीं पाए हैं जबकि देश का सुप्रीम कोर्ट और विधि आयोग धारा 80 के औचित्य पर कई बार सवाल उठा चुके हैं|  

स्वतंत्रता के पश्चात देश की बदली परिस्थितयों के मद्देनजर देश के कानून की पुनरीक्षा करने और उसमें संशोधन के लिए एक आदेश द्वारा विधि आयोग का गठन किया गया| किन्तु आज तक विधि आयोग के गठन, उसकी रिपोर्टों पर कार्यवाही, कार्यक्षेत्र आदि को परिभाषित करने के लिए कोई सुपरिभाषित कानून अधिनियमित नहीं किया गया और देश का विधि आयोग आज भी एक गैर-सांविधिक उत्पति की तरह कार्य कर रहा है| परिणामत: विधि आयोग की रिपोर्टों पर क्या कार्यवाही हुई अथवा उनको स्वीकार करने व अस्वीकार करने के क्या कारण रहे इस तथ्य से स्वतंत्र भारत की जनता अनभिज्ञ ही रहती है| दूसरी ओर मात्र इंग्लॅण्ड ही नहीं अपितु हमारे पडौसी देश नेपाल, बंगलादेश, श्रीलंका और पाकिस्तान ने भी विधि आयोग का गठन एक अधिनियम के माध्यम से कर रखा है| भारत को भी चाहिए की वह विधि आयोग के गठन, उसकी उपयोगिता और रिपोर्टों पर कार्यवाही को अधिनियम के माधयम से सुपरिभाषित करे और यह सुनिश्चित करे कि  विधि आयोग की रिपोर्टें विधि मंत्रालय में मात्र धूल की भेंट न चढें| इन  रिपोर्टों को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने के कारण जनता को सूचित किये जाएँ|   

सरकारी सेवकों के अपकृत्य स्वतंत्रता के तुरंत बाद न्यायविदों के चिंतन के केंद्र बिंदु रहे और  विधि आयोग ने अपनी पहली रिपोर्ट दुष्कृत्यों में राज्य दायित्व विषय पर विधि मंत्रालय को दिनांक 11.05.1956  को सौंपी| इस रिपोर्ट में राज्य के दायित्व के संबंध में कानून बनाने की अभिशंसा के साथ यह भी बल दिया गया कि राज्य के दायित्व के लिए लापरवाही के प्रमाण की आवश्यकता न समझी जाये| रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि जनता कानून के बारे में स्पष्ट जान सके अत: इस विषय पर विधायिका का स्पष्ट और सुपरिभाषित कानून होना चाहिए न कि न्यायाधीशों के दृष्टिकोण के अनुसार कानून का विकास किये जाने के लिए इसे उनकी दया पर खुला छोड़ दिया जाय| किन्तु अत्यंत खेद जनक है कि देश की विधायिका और विधि मंत्रालय ने इस रिपोर्ट पर विचार कर आज तक किसी कानून का निर्माण नहीं किया है और न ही इन सिफारिशों को अस्वीकार करने के कारणों से जनता को अवगत करवाया गया है| फलत: राज्य और उसके सेवकों के दुष्कृत्यों के विरुद्ध नागरिकों को आज भी किसी विशिष्ट कानून में कोई उपचार उपलब्ध नहीं हैं और जनता उपचारहीन स्थिति का सामना कर रही है| किसी स्पष्ट कानून के अभाव में न्यायालय अपने विवेक से कानून की व्याख्या करते हैं और यह स्थिति नागरिकों के लिए सुखद नहीं है|    जहां बम्बई उच्च न्यायालय ने एक दिन की अवैध हिरासत के लिए वीणा सिप्पी को 275000 रूपये क्षतिपूर्ति दिलवाई वहीं उस न्यायालय के उसी न्यायाधीश वाली बेंच ने कादर सत्तार सोलंकी को मात्र 15000 रुपये की क्षतिपूर्ति दिलवाई है| यहाँ तक कि देश में विधि स्नातक के पाठ्यक्रम में दुष्कृति विधि शामिल है किन्तु उसमें भी विदेशी दृष्टांत ही पढाए जाते हैं व मुश्किल से ही कोई भारतीय उदाहरण मिल पाता है| ठीक इसी प्रकार पुलिस थानों में एफ आई आर लिखना या न लिखना पुलिस अपना विशेषाधिकार मानती है और यह स्थिति जनता को लंबे समय से परेशान कर रही है| दिनांक 25.04.1980  को विधि मंत्रालय को सौंपी गयी विधि आयोग की 84 वीं रिपोर्ट के पृष्ठ 20 पैरा 3.32 में विधि आयोग ने स्पष्ट सिफारिश की थी कि संज्ञेय अपराध की सूचना मिलने पर पुलिस द्वारा एफ आई आर नहीं लिखने को भारतीय दंड संहिता की नई धारा 167क के अंतर्गत संज्ञेय और जमानतीय अपराध माना जाय व प्रसंज्ञान लेने के लिए किसी दोषी अधिकारी विशेष के नाम की आवश्यकता नहीं समझी जाए| विधि आयोग न्यायविदों का बहु-सदस्यीय संस्थान है जिसके अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश होते हैं| अत: आयोग की सिफारिशें महत्वपूर्ण होती हैं न कि किसी कूड़ेदान में फैंकने के योग्य| किन्तु भारत सरकार ने इतनी लंबी अवधि बीतने के बावजूद भी इस अनुशंसा पर कोई सार्थक कार्यवाही नहीं की है| इससे यह संकेत मिलता है कि हमारे चुने गए जन प्रतिनिधियों पर पुलिस बल हावी है या दोनों के मध्य अपवित्र गठबंधन है, देश की शासन-प्रणाली में लोकतंत्र के तत्वों का अभाव है व आज भी पुलिस राज कायम है|  देश की विधायिका सार्थक बहस के साथ किसी दूरगामी और टिकाऊ परिणाम वाले ठोस कानून निर्माण के स्थान पर राजनैतिक लाभ के लिए तात्कालिक व सस्ती-लोकप्रियता वाले कानून और योजनाएं बनाने, और आरोप-प्रत्यारोप व शोर-शराबे में जनता का समय और धन बर्बाद कर रही है| ऐसे मामले जिनमें नोट या वोट का प्रश्न नहीं हो सामान्यतया बिना बहस के ही पारित कर दिए जाते हैं किन्तु जिन मामलों में वोट बैंक का प्रश्न हो उसमें आवश्यकतानुसार सभी चुप्पी साध लेते हैं या सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित हो जाता है| बांग्लादेशी विस्थापितों की समस्या इसका ज्वलंत उदाहरण है| हमारी विधायिका ने पशु क्रूरता निवारण (1960)  और घरेलू हिंसा के विषय में तो कानून बना दिये हैं लेकिन आज तक पुलिस हिंसा से निपटने के लिए किसी कानून का निर्माण में असमर्थ रहना इसका ज्वलंत उदाहरण है| फलत: अपराधों पर नियंत्रण पाने के लिए पुलिस आज भी प्रतिहिंसात्मक तरीकों से कानून को अपने हाथ में लेती रहती है और पुलिस के हाथों में जनता की स्थिति आज स्वतंत्र भारत में भी पशुओं से बदतर है| देश के कानून में पुलिस क्रूरता से बचाव के लिए जनता को पशुओं के समान भी अधिकार उपलब्ध नहीं हैं|

65 वर्षों के स्वतंत्रता काल के बावजूद देश में वास्तविक कानून का राज स्थापित नहीं हो पाया है और आंशिक न्याय की अवधारण पर आधारित विधि आयोग की रिपोर्टें इस स्थिति में न ही कोई मौलिक परिवर्तन कर पायी हैं| स्वतंत्रता के बाद भी देश में पुलिस और नौकरशाही के हाथ मजबूत ही हुए हैं| देश के कर्णधार जनता को नैतिकता का पाठ पढाने में विफल रहे हैं| दूसरी ओर युद्ध जर्जरित जापान का पुनर्निर्माण और हमारी स्वतंत्रता प्राप्ति लगभग समकालीन ही है किन्तु आज जापान और हमारी परिस्थितियों में भारी अंतर है, बावजूद इसके कि जापान में प्राकृतिक संसाधनों का अभाव है और हमारे यहाँ प्राकृतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं| स्मरण रहे कि जापान में मात्र 1/6 भूमि ही समतल और कृषि योग्य है|
किसी विषय पर स्पष्ट नीति होने से उस विषय में मनमानी करने के अवसर न्यूनतम होते हैं किन्तु देश की स्वतंत्रता को 65 वर्ष होने पर भी आज तक न्यायालय खोलने या न्यायाधीश का पद सृजित करने के लिए कोई नीति नहीं बन पाई है| यह स्थिति न्यायाधीशों और राजनेताओं दोनों को मिलकर मनमानी व राजनीति करने के लिए खुला अवसर मुहैया करवाती है अत: किसी भी पक्षकार ने इस स्थति में परिवर्तन की पहल नहीं की है| वैसे भी राजनीतिक पृष्ठ भूमि वाले वकील ही संवैधानिक न्यायालयों में न्यायाधीश नियुक्त हो पाते हैं| एक बार सेवानिवृत न्यायाधिपति इसरानी के लिए कांग्रेस पार्टी से उन्हें राज्य सभा सदस्यता दिलाने की मांग करते हुए राजस्थान के सिंधी समाज ने कहा था कि उन्होंने पार्टी की बड़ी सेवा की है| जब किसी विषय विशेष के लिए  न्याय निकाय की आवश्यकता अनुभव होती है तो उसके लिए अलग से ट्राइब्यूनल का गठन कर दिया जाता है और यह तर्क दिया जाता है कि इससे जल्दी न्याय मिलेगा| उपभोक्ता, सूचना के अधिकार , सेवा आदि से सम्बंधित मामलों की सुनवाई इन ट्राइब्यूनल में हो रही है जो कि समान रूप से विलम्बकारी हैं| वास्तव में इन ट्राइब्यूनलों के गठन के पीछे कई छुपे हुए उद्देश्य हैं यथा राजनैतिक दलों द्वारा अपने स्वामिभक्त लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त कर जनाधार मजबूत करना, ट्राइब्यूनलों के माध्यम से न्यायिक क्षेत्र पर नियंत्रण रखना क्योंकि ये  ट्राइब्यूनल संबद्ध मंत्रालय के नियंत्रण में कार्य करते हैं न कि उच्च न्यायालय के नियंत्रण में| सेवा निवृत लोगों को नियुक्त कर उन्हें, सेवा काल के कुकृत्यों के लिए, ब्लैकमेल करते रहना ताकि वे अधिकाधिक निर्णय सरकार के पक्ष में करते रहें| पारदर्शी सार्वजानिक जांच या लिखित परीक्षा के बिना लोकतंत्र में नियुक्त प्रत्येक (न्यायिक या गैर न्यायिक) लोक अधिकारी जनता पर जबरदस्ती थोपा गया सामन्तशाह है जिसकी स्वस्थ लोकतंत्र मे अनुमति नहीं दी जा सकती| सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 37 में सारांशिक कार्यवाही का प्रावधान पहले से ही है और सरकार इस सूची में संशोधन और परिवर्द्धन करके किसी भी मामले को सिविल न्यायालयों द्वारा ही सारांशिक कार्यवाही प्रक्रिया से शीघ्र निर्णित करने की व्यवस्था कर सकती है| आवश्यकतानुसार शुल्क में रियायत या मुक्ति की व्यवस्था भी की जा सकती है| इस प्रकार किसी भी प्रकरण के लिए अलग से किसी  ट्राइब्यूनल की कोई आवश्यकता नहीं है बल्कि ट्राइब्यूनलों के गठन के पीछे तो छुपे हुए अपवित्र उद्देश्य होते हैं|    
 हमारी सवा अरब की आबादी में हमें आज क्रिकेट और हाकी तक के लिए देश में योग्य व (पक्षपात से दूर रहने वाले) विश्वसनीय कोच नहीं मिले फलत: हमें विदेशी कोचों की सेवाएं लेनी पडी हैं तो संवेदनशील न्यायिक क्षेत्र में हमें विश्वसनीय व्यक्ति मिलने की आशा किस प्रकार करनी चाहिए| आज अंतर्राष्ट्रीयकरण के दौर में न्यायिक क्षेत्र में भी विदेशी सेवाओं की सख्त आवश्यकता है| विधि आयोग में नियुक्तियों के लिए अमेरिका, इंग्लॅण्ड जैसे देशों के उन प्रतिष्ठित न्यायविदों को वरीयता दी जाये जो मूलत: जनतांत्रिक विचार रखते हों| अन्य सदस्य नियुक्त करते समय भी ध्यान रखा जाये कि उनमें से पेशेवर वकील या न्यायाधीश कम से कम हों अन्यथा ये लोग अपनी बिरादरी के हितों को प्रभावित करने वाली कोई बात मुश्किल से ही कहेंगे| संभव हो तो विधि मंत्री भी किसी सुलझे हुए गैर-राजनैतिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति को ही बनाया जाय जब देश में राजनीति अस्वच्छता का दूसरा नाम बन चुकी है| देश की विधायिका इस पर शीघ्र ध्यान दे अन्यथा इस लोकतंत्र की लुटिया डूब जायेगी|

2 comments:

  1. aapka kehna 100% shi hai. Durbhagye se kanoono ka bhartiyakaran karne ka koi paryas kiya hi nhi gya aur jhooth ke khambho par khda hmara kanooni tantar kisi bhi samye bharbhrakar girne ke kgar par hai aur us samye desh ki kya sthiti hogi, uski kalpna mushkil hai

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