Sunday 23 November 2014

सरकारी बैंकों में डूबते ऋणों की समस्या व सुरक्षा

गत वर्षों से बैंकों के डूबत ऋणों में  भारी वृद्धि हो रही है  किन्तु सरकार को इनकी कोई विशेष चिंता नहीं है| बैंकों में ऊँचे पदों पर नियुक्तियां तो राजनैतिक हस्तक्षेप से होती ही हैं किन्तु निचले स्तर पर भी हस्तक्षेप से इनकार नहीं किया जा सकता| बड़े उद्योगपतियों को ऋण देना ऊँचे अधिकारियों की शक्तियों में आता है जिन पर राजनेताओं के उपकार होते हैं अत: उनमें कायदे कानून गुणवता सब ताक पर रख दी जाती है और ये ऋण कालांतर में डूबते हैं, मूल धन और ब्याज माफ़ कर दिए जाते हैं| दूसरी ओर बैंकों द्वारा इन ऋणियों की सम्पतियों का निर्धारित निरीक्षण  भी नहीं किया जाता| बैंकों को यह निर्देश हैं कि  वे एक लाख से बड़े ऋणों  का मासिक अंतराल से निरीक्षण  करें और इससे छोटे ऋणों का त्रैमासिक निरीक्षण  करें| जहां संदेह हो वहां  कम अवधि में निरीक्षण करें किन्तु वास्तविक स्थिति बहुत भिन्न है| बैंक ऋणों के अधिकाँश मामलों में ऋण देने के बाद कोई निरीक्षण किया ही नहीं जता है किन्तु फिर भी ऋणियों से निरीक्षण  व्यय नियमित वसूल किये जाते हैं| निरीक्षण  व्यय एक खर्चे की पूर्ति है जो लगे हुए खर्चे  की भरपाई के लिए होते हैंऐसी  स्थिति में बिना निरीक्षण  किये इनकी  वसूली बिलकुल अवैध और अनुचित है| इस स्थिति को जानते हुए भी  रिजर्व बैंक, भारत सरकार और ऑडिटर  मौन हैं |

बैंकों की वार्षिक विवरणी में बीमा के समान ऋणीवार निरीक्षण  का कोई ब्यौरा नहीं दिया जता है बल्कि अंत में एक साथ यह सामान्य और झूठी पुष्टि प्रबंधक द्वारा कर दी जाती है कि ऋणों का निर्धारित निरीक्षण  किया जाता रहा है वे सब ठीक हैं| इस प्रकार बैंक प्रबंधकों द्वारा अपने कर्तव्यों की उपेक्षा कर एक और ऋणों को डूबत बना दिया जता है वहीं ऋणियों से ऐसे खर्चे की वसूली की जा रही जो बैंकों  ने उठाये ही नहीं |

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