Thursday 24 February 2011

जानें कानून -001


उŸार प्रदेश राज्य परिवहन निगम के परिचालक सुरेश चन्द शर्मा पर आरोप था कि उसने यात्रियों से रोडवेज बस यात्रा का किराया तो वसूला, लेकिन टिकिट नहीं काटे और किराये की राशि अपनी जेब में रख ली। इस मामले में परिवहन निगम ने उसे सेवा से बर्खास्त कर दिया। परिचालक ने ट्रिब्यूनल में अपील की। ट्रिब्यूनल ने  बर्खास्तगी की सजा को ज्यों की त्यों बहाल रखा, लेकिन इसके खिलाफ हाई कोर्ट में अपील पेश करने पर हाई कोर्ट ने बर्खास्तगी की सजा के आदेश को निरस्त कर दिया। जिसके विरुद्ध परिवहन निगम की अपील पर निर्णय सुनाते हुए देश की सर्वोच्चत अदालत अर्थात् सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के निर्णय को उलटते हुए कहा कि हाई कोर्ट का यह दायित्व है कि वह ट्रिब्यूनल द्वारा निर्धारित तथ्यों को उलटते समय केवल कारण ही नहीं, बल्कि असरदार कारणों का उल्लेख करे। यदि हाई कोर्ट का निर्णय असरकारी कारणों से सहीतरह से समर्थित नहीं है तो ऐसा निर्णय अपने आप ही दूषित है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अन्त में परिचालक की प्राथमिक सजा को बरकरार रखते हुए कहा है कि  भ्रश्टाचार /दुर्विनियोग के दोषी के लिये सेवा से बर्खास्तगी ही एक मात्र दण्ड है। (उŸार प्रदेश राज्य परिवहन निगम बनाम सुरेश चन्द शर्मा दि. 26.05.10)


सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि किसी भी संस्थान या तंत्र की सद्भावनापूर्ण आलोचना उस संस्थान या तंत्र के प्रशासन को अन्दर झांकने और अपनी लोक-छवि में निखार हेतु उत्प्रेरित करती है। न्यायालय इस स्थिति की अवधारणा पसंद नहीं करते कि उनकी कार्यप्रणाली में किसी सुधार की आवश्यकता नहीं है। किन्तु यह स्पश्ट करना आवश्यक है कि जो कुछ न्यायालयों में या न्यायालयों द्वारा किया जा रहा है, उसके प्रति असम्मति व्यक्त करने से यद्यपि कानून नहीं रोकता है, फिर भी न्यायपालिका पर भ्रश्टाचार के निराधार आरोप लगाना, अभिव्यक्ति व्यक्ति की स्वतंत्रता की भ्रान्त अनुज्ञा नहीं हो सकती। मुक्त भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का दुरूपयोग है और अवमानना कानून के समीप ले जाता है।
(एम.आर.पाराशर बनाम डॉ. फारूक अब्दुल्ला-1984 क्रि. ला. रि. (सु. को.)113)

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