Tuesday 22 February 2011

जनता के आईने में भारतीय न्यायपालिका -2

यायिक, अर्द्धन्यायिक या कार्यपालक न्यायाधीषों की कार्यषैली, चरित्र और गुणधर्म में मुष्किल से ही कोई अन्तर हो सकता है अपितु न्यायिक न्यायालयों की कार्यवाही अधिक जटिल एवं लम्बी होने के कारण विलम्बकारी अवष्य होती है। एक जिले के न्यादर्ष आँकड़ों से प्रकट होता है कि वर्श भर में दोशसिद्ध होने वाले प्रकरण उस वर्श में दर्ज प्रथम सूचना प्रतिवेदनों का मात्र 1.5 प्रतिषत हैं ,षेश 98.5 प्रतिषत का अभियोजन के नाम अनुचित उत्पीड़न होता है। अन्य जिलों की स्थिति भी कमोबेष इसी स्तर के समकक्ष प्रतीत होती है। इस प्रसंग में प्रायः विधि तन्त्र से जुडे़ लोग कुतर्कों का सहारा लेकर बचाव करते देखेसुने जा सकते है। उनके अनुसार झूठी प्रथम सूचनाएं दर्ज करवाना, न्यायालय की मदद हेतु जनता का आगे न आना, पक्षकारों में समझौता होना आदि कारणों से दोश सिद्धियां नहीं हो पाती हैं। वास्तविक स्थिति यह है कि झूठे अभियोग दर्ज करवाने पर धारा 182, 211 व क्षतिपूर्ति आदि के प्रावधान हैं जिनका उपयोग कर ऐसी मनोवृति को बदला जा सकता है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357 के क्षतिपूर्ति के प्रावधान का उपयोग भी यदाकदा होता है। न्याय तन्त्र में जनता के विष्वास में कमी होने के कारण ही मदद हेतु आगे न आना, समझौता होना आदि परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं। अधिकांष आपराधिक मामलों में न्यायाधीषों द्वारा तकनीकी आधार गढ़कर अभियुक्त को दोशमुक्त कर दिया जाता है किन्तु ऐसा करने में प्रायः यह स्पश्ट नहीं किया जाता कि आरोपित धारा के अपराध का कौनसा घटक-भाग पूर्ण नहीं होता है। दूसरी ओर दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 76 से 95 तक में दोश सिद्धि के सीमित अपवाद वर्णित हैैं फिर भी न्यायाधीष इस लक्ष्मण रेखा से परे जाकर स्वरचित अपवादों के आधार पर दोशमुक्त कर देते हैैैं।
न्यायालयों द्वारा दिए गए अनुकरणीय निर्णय भी उपलब्ध हैं किन्तु इनकी संख्या नगण्य है तथा वे भी किसी भावावेष में आकर किसी अज्ञात या अपवित्र कारण से प्रभावित प्रतीत होते हैं। नाम-मात्र के अपवादिक अच्छे निर्णयों से आम नागरिक का कल्याण नहीं हो सकता। यदि वास्तव में अच्छे निर्णय दिए जाए तो वादकरण स्वतः कम हो जायेगा। किन्तु अधिकांष निर्णय तुश्टीकरण पर आधारित लोकप्रियता उन्मुख नीति का अनुसरण कर दिए जाते हैं। जनता की अपेक्षा है आपवादिक उदाहरणों को छोड़कर सभी न्यायिक निर्णय अनुकरणीय हो।
आज देष में सिविल प्रकृति के वाद अत्यन्त सीमित रह गये है। न्याय-तन्त्र से जुडे़ लोगों का रात-दिन अपराधियों से वास्ता पड़ता रहता है व उनके द्वारा अपनायी जाने वाली तकनीक, क्रिया विधि से वे सभी परिचित होते रहते हैं। ऐसी स्थिति में न्याय-तन्त्र से जुडे़ लोगों- पुलिस, अधिवक्ता व न्यायाधीष- की मनोवृति आपराधिक होने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। प्रभावी नैतिक व आध्यात्मिक षिक्षा और सुसंस्कार ही एकमात्र इसकी रोकथाम हो सकती है। न्याय का उद्गम स्त्रोत अंतरात्मा है, ज्ञान नहीं। इंग्लैण्ड के लॉर्ड चांसलर के अनुसार न्यायाधीष होने के लिए भला व्यक्ति होना आवष्यक है तथा कानूनी ज्ञान एक अतिरिक्त गुण है।
विगत तीन दषकों से जनहित याचिका के नाम पर न्यायपालिका का महिमामडंन कर इसे एक सामाजिक न्याय का नवोन्मेशी साधन बताया जा रहा है जबकि व्यवहार प्रक्रिया संहिता की धारा 91 में इसके समानान्तर प्रावधान निचले स्तर तक के न्यायालयों के लिए सन् 1908 से विद्यमान हैं। हमारी जटिल न्यायिक प्रक्रिया मात्र न्यायतन्त्र से जुडे़ लोगों के लिए स्वर्ग के समान है तथा इसके प्रत्येक सरलीकरण का वे प्रत्यक्ष एवं परोक्ष विरोध करते हैं। वास्तविक न्यायोन्मुख सरलीकरण के किसी भी कदम को उनका हार्दिक समर्थन प्राप्त नहीं होता है। त्वरित निर्णय हेतु वर्श 1999 व 2002 में व्यवहार प्रक्रिया संहिता में किए गए संषोधनों का अधिवक्तागणों द्वारा राश्ट्रव्यापी विरोध किया गया और अंततः सलेम बार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में रिट याचिका भी दायर की गयी। इस याचिका के निर्णय में त्वरित निस्तारण हेतु  प्रकरण प्रवाह प्रबन्धन नियम बनाये जाने की अनुषंसा की गयी। किन्तु स्वयं सर्वोच्च न्यायालय तथा अधिकंाष उच्च न्यायालयों ने स्वानुषासन के लिए ऐसे नियम आज तक नहीं बनाये हैं। कुछ उच्च न्यायालयों ने जो अनमने मन से नियम बनाये हैं उनमें मौलिक बातों के समावेष का अभाव है। इससे अधिक दुखद पहलू यह है कि इन नियमों की भी व्यवहार में अनुपालना नहीं हो रही है। दाण्डिक नियमों के अनुसार दाण्डिक याचिका पर तुरन्त कार्यालय रिपोर्ट होकर न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की जानी चाहिए किन्तु व्यवहार में एक सप्ताह तक का समय लगना सामान्य बात है। प्रकरणों के निपटान में लगने वाला औसत 15 वर्श का समय भी चिन्ताजनक है। सरकारी सेवाओं के बदले मांगा जाने वाला समस्त प्रकार का कर, उपकर, षुल्क आदि भुगतान करने वाली जनता को समय पर न्याय दिया जाना चाहिए । लोक अदालत प्रणाली भी न्यायतंत्र का कोई विजय-स्तम्भ नहीं है बल्कि न्याय-तंत्र द्वारा संविधान सम्मत न्याय देने में विफलता की उपज है। प्रायः कमजोर पक्ष के हित की बलि से ही समझौते सम्पन्न होते हैं क्योंकि जिनके पास प्रचुर संसाधन हैं वे न्याय प्रवाह को अपनी सुविधानुसार प्रवाहित करने में सफल हो जाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने भी एक प्रकरण (ललिता कुमारी) में कहा है कि पक्षकार के व्यवहार कुषल होने पर कार्यवाही सुपरसोनिक जेट की गति से प्रगति करती है।

हमारे न्यायालयों के पास प्रमुख कार्य गिरफ्तारी एवं जमानत से सम्बन्धित है। सर्वोच्च न्यायालय ने जितेन्द्र कुमार बनाम उŸारप्रदेष राज्य के मामले में यह सिद्धान्त प्रतिपादित कर रखा है कि जघन्य अपराध के अतिरिक्त गिरफ्तारी नहीं की जानी चाहिए किन्तु छोटे-मोटे अपराधों में भी पुलिस द्वारा गिरफ्तारी करना आम बात है और न्यायाधीष ऐसी गिरफ्तारी का मौन रहकर वैधानिकरण करते रहते हैं। 1.3 करोड़ की आबादी एवं 43 न्यायाधीषों वाले दिल्ली राज्य के उच्च न्यायालय में वर्श 2009 में 2517 जमानत याचिकाएं प्रस्तुत हुई जबकि 7 करोड़ की आबादी एवं 30 न्यायाधीषों के राजस्थान राज्य के उच्च न्यायालय में समान अवधि में 17225 जमानत याचिकाएं प्रस्तुत हुई। इन आकंड़ों से स्पश्ट है कि राजस्थान राज्य में सदोश परिरोध (अनावष्यक गिरफ्तारियां) अधिक होने के साथ-साथ अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा अधिक प्रकरणों में जमानत से इन्कार भी किया जाता है। गिरफ्तारी एवं जमानत की परिहार्य कार्यवाही मंे जन समय व संसाधनांे का अनावष्यक अपव्यय होने से न्यायालयों को प्रकरणों के वास्तविक निस्तारण हेतु कम समय उपलब्ध होना भी दुखद पहलू है। न्यायालयी निर्णय प्रक्रियागत न्याय तो हो सकतें है किन्तु सभी को वास्तविक न्याय की परिधि में मानना कठिन हैं। 
न्यायाधीष सामान्यतः न्याय सदन में 2-3 घन्टे प्रतिदिन बैठक करते हैं। औसत भारतीय की आय से लगभग 15 गुणा से भी अधिक वेतनमान न्यायाधीषों को इसलिए दिया जाता है कि वे पूरे नियत समय में न्यायालय में बैठें तथा निर्णय लेखन, छानबीन जैसा कार्य गृह-कार्य के रूप में करेंगे। इस हेतु उन्हें इन्टरनेट एवं लेपटॉप की सुविधाएं भी उपलब्ध करवायी गयी हैं किन्तु इस सभी व्ययभार से जनता को मिलने वाला लाभ जनता के हृदय-तराजू में तोला जा सकता है।
हमारे संविधान के अनुच्छेद 50 में न्यायपालिका को कार्यपालिका के नियंत्रण से मुक्त होने की आदर्ष स्थिति का उल्लेख है, किन्तु षनैः षनैः विभिन्न बोर्डांे, अधिकरणों, आयुक्तालयों आदि अर्द्धन्यायिक निकायों का गठन कर न्यायिक न्यायालयों के क्षेत्राधिकार में कटौती कर दी गयी है। जो प्रकरण पूर्व में न्यायिक न्यायालयों द्वारा अन्वीक्षणीय थे अब अन्य अधिकरणों के क्षेत्राधिकार में है। इस प्रकार न्यायिक एवं कार्यपालक न्यायालयों के मध्य विभाजक रेखा अत्यन्त क्षीण व धुंधली हो गयी। आज स्थिति यह है कि देष में कुल न्यायिक कार्य का 50ः से अधिक भाग इन अधिकरणों द्वारा सम्पन्न किया जा रहा है जिनका वास्तव में कोई पर्यवेक्षण या अधीक्षण उच्च न्यायालयों द्वारा नहीं किया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि इन अधिकरणों में पदस्थापना, स्थानान्तरण आदि सरकारों द्वारा किये जाने के कारण ये संविधान की भावना के अनुरूप कार्यपालिकीय नियन्त्रण से मुक्त भी नहीं हैै।            


(फॉण्ट परिवर्तन से हुई वर्तनी सम्बंधित अशुद्धियों के लिए खेद है )

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