Wednesday 23 February 2011

जनता के आईने में भारतीय न्यायपालिका -3

राज्य ने इस प्रकार न्यायिक क्षेत्र मंे हस्तक्षेप कर अनुच्छेद 50 की भावना के विपरीत कार्य किया है। यद्यपि संविधान का अनुच्छेद 227 उच्च न्यायालयों को सभी न्यायालयों व अधिकरणों पर पर्यवेक्षण एवं नियंत्रण के अधिकार देता है किन्तु उच्च न्यायालयों द्वारा अधिकरणों से कोई प्रतिवेदन तक नहीं मांगे जाते और न ही उनमें नियुक्तियों एवं स्थानान्तरण में उच्च न्यायालयों की कोई प्रषासनिक भूमिका रहती है। अधीनस्थ अधिकरणों व न्यायालयों द्वारा भेजे जाने वाले आवधिक प्रतिवेदन भी मात्र एक रिक्त औपचारिकता है तथा इनमें असंतोशजनक गुणात्मक एवं गणात्मक स्थिति परिलक्षित होने पर भी कोई सम्यक या समुचित कार्यवाही नहीं की जाती। एक द्विसदस्यीय अधिकरण द्वारा पूरे वर्श भर में 4 प्रकरणों का निपटान करने पर भी पद सोपान में उच्च अधिकरण द्वारा कोई निवारक कार्यवाही नहीं की गयी। सरकार का यह दावा कि अनुभवी व विषेशज्ञों द्वारा सस्ते तथा त्वरित न्याय हेतु अधिकरणों का गठन किया जाता है खोखला प्रतीत होता है जब 90 दिन की निर्धारित अवधि में निर्णित होने वाले प्रकरण 5 वर्श से लम्बित हैं।
न्यायाधीषों के दुराचरण एवं अक्षमता की षिकायतों पर कार्यवाही करना सामान्यतः आवष्यक नहीं समझा जाता है क्यांेकि संविधान में न्यायपालिका का षासन के किसी अंग के प्रति दायित्व रेखांकित नहीं किया गया है। इससे न्यायिक आचरण स्वच्छन्द एवं नियन्त्रणहीन होने का जोखिम है। सामान्यतः संगीन आरोप लगाये जाने तक न्यायिक अधिकारियों पर कार्यवाही हेतु न्यायप्रषासन प्रतीक्षा करता है। अतः सामान्यतः दुराचरण पर कार्यवाही नहीं होने से न्यायाधीष दुस्साहसी हो जाते है। अन्ततोगत्वा कुछ गंभीर आरोपों वाले न्यायाधीषों को सेवामुक्त कर प्रकरण का संक्षिप्त पटाक्षेप कर दिया जाता है। विचाणीय प्रष्न है कि क्या ये न्यायाधीष रातों-रात या एक चरण में ही इतने अधिक दुस्साहसी हो गये अथवा इनके विरूद्ध आने वाले छोटी षिकायतों पर कार्यवाही न होने के कारण से इनका उत्साहवर्द्धन हुआ। इस दिषा में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने उ.प्र.न्या. अधिकारी संघ के प्रकरण में किसी भी न्यायाधीष के विरूद्ध मुख्य न्यायाधीष की पूर्वानुमति के बिना कोई भी आपराधिक प्रकरण दर्ज करने पर रोक लगाकर अलौकिक किन्तु संविधान विरोधी कार्य कर दिया है। इस निर्णय ने अब किसी भी न्यायिक अधिकारी के दुराचार के विरूद्ध जनता को उपचार का मार्ग बन्द कर दिया है किन्तु नया वैकल्पिक मार्ग भी प्रदान नहीं किया है।यद्यपि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने षोशित रेल्वे कर्मचारी  के  प्रकरण में कहा है कि असमानता चाहे हैसियत, अवसर या सुविधा की हो समाप्त होनी चाहिए, विषेशाधिकार का अन्त होना चाहिए और षोशण भागना चाहिए । जनतन्त्र में जनमत ही संप्रभु्, सर्वोच्च एवं सर्वश्रेश्ठ निर्णायक है। इंग्लैण्ड में इस गंभीर एवं चुनौतीपूर्ण समस्या से निपटने के लिए संवैधानिक सुधार अधिनियम 2005 द्वारा न्यायाधीषों का दायित्व निर्धारण का प्रावधान रखा गया है। अमेरिका एवं पाष्चात्य देषों में लोक-सेवकों को हमारी तरह दण्ड प्रक्रिया संहिता धारा 197 जैसे संरक्षण का प्रावधान नहीं है। संरक्षण की आवष्यकता  राजसता में भागीदार को  नहीं अपितु अषक्त को  है । कहा भी गया है कानून कमजोर को पीस देता है व ताकतवर उसके ऊपर षासन करता है । पाष्चात्य देषों में न्यायाधीषों के विरूद्ध षिकायतों, उनकी सार्वजनिक प्रताड़ना, अषंकालिक नियुक्ति आदि के विधिवत् प्रावधान हैं।
हमारे यहां न्यायिक दृश्टान्तों के माध्यम से संवैधानिक न्यायालयों द्वारा सुस्थापित सिद्धान्तों की स्वयं उनकी रजिस्ट्री द्वारा अवहेलना की जाती है। न्यायाधीष में कुषाग्रबुद्धि, न्यायप्रिय विक्रमादित्य की छवि देखने वाली जनता को यद्यपि न्यायालयों से राजनीति, षासन-प्रषासन के षुद्धिकरण की उच्च अपेक्षाएं है किन्तु यक्ष प्रष्न यह है कि जो न्यायालय अपनी स्वयं की स्वच्छन्द व नियन्त्रणहीन रजिस्ट्री का षुद्धिकरण करने में विफल  हैं वह षासन के अन्य अंगों के षुद्धिकरण की जनता की अपेक्षाओं तक कितना खरा उतर सकेंगे। दिनांक 23.12.2006 को हुई उच्च न्यायालयों के महारजिस्ट्रारों एवं राज्य विधि सचिवों की संयुक्त विचारगोश्ठी में विचार व्यक्त किया गया था कि सतर्कता प्रकोश्ठ न्यायालय स्टाफ पर प्रभावी नियंत्रण रखेगा और उनकी गतिविधियों का नियमित अनुश्रवण करेगा ताकि जनता की नजर में न्यायालयों की छवि धूमिल न हो। पीठासीन अधिकारी को प्रकरणों में पेषी निरपवाद रूप से स्वयं को ही देनी चाहिए और प्रक्रिया व प्रणाली को इस प्रकार प्रवाहित करना चाहिए ताकि स्टाफ सदस्यों का विवादकों के साथ न्यूनतम सम्पर्क हो।  सर्वोच्च न्यायालय ने भी तारक सिंह के प्रकरण में कहा है कि हमें स्मरण रखना चाहिए बाहरी तूफान की तुलना में अन्दरूनी कठफोड़ों से अधिक भय है। अधिवक्ताओं द्वारा न्यायालय स्टाफ से टाईपिस्ट कार्य लेना भी एक छद्म भ्रश्टाचार एवं घुसपैठ है ।
देष को (अरून्धतिराय के प्रकरण में) दिवालिया राजनीति से ग्रसित बताने वाला हमारा माननीय सर्वोच्च न्यायालय आम नागरिक (नगरपालिका कमेटी, पटियाला) के प्रकरण में विधायिका को सर्वोच्च बताते हुए हस्तक्षेप से मना कर सकता है किन्तु न्यायाधीषों की परिलब्धियों व सुविधाओं में वृद्धि के (ऑल इंडिया जजेज) प्रकरण में विधायिका को निर्देष देना अपने क्षेत्राधिकार में मानता है।हमारे यहां व्यावहारिक रूप में फिर भी प्रक्रियागत जटिलताओं को वरीयता दी जाती है। अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा डाक माध्यम से प्रेशित प्रलेखों को स्वीकार किया जाता है। हमारे यहां अर्द्ध-न्यायिक या कार्यपालक न्यायालयों द्वारा तो डाक से प्राप्त प्रलेखों का संज्ञान लिया जाता है किन्तु न्यायिक न्यायालयों में डाक से प्राप्त प्रलेखों पर सामान्यतः कार्यवाही नहीं की जाती है। यद्यपि स्वयं न्यायालय नागरिकों को डाक द्वारा प्रेशित समन या नोटिस को उचित तामिल विषेशाधिकार मानते हैं। इस प्रकार नागरिकों के द्वारा प्रेशण एवं नागरिकों को न्यायालय द्वारा प्रेशण में भिन्न-भिन्न मानदण्ड की अनुचित कार्यसंस्कृति एवं षैली द्वारा संविधान के अनुच्छेद 14 का स्पश्ट उल्लंघन किया जा रहा है।
वर्तमान न्याय-प्रणाली में पुलिस द्वारा नागरिकों पर की जा रही ज्यादतियों एवं अत्याचारों के विरूद्ध भी कोई प्रभावी उपचार उपलब्ध नहीं है। यदि कोई न्यायाधीष पुलिस ज्यादती से पीड़ित  हो तो न्यायाधीषों को कागजी चीता बताते हुए भी दोशी पर हर प्रकार के संभव दंड-अनुषासनिक, दांिण्डक, अवमान-अधिरोपित किए जा सकते हैं किन्तु आम नागरिक के पीड़ित होने पर मात्र राजकोश से क्षतिपूर्ति दिलवाकर कर्Ÿाव्य की प्रायः इतिश्री कर ली जाती है। स्मरणीय है कि कल्याणकारी लोकतान्त्रिक राज्य अपने नागरिकों के विरूद्ध किसी संप्रभुता का दावा नहीं कर सकता है। जब जनता को अपनी सुरक्षा का विष्वास हो तो वह सत्य व न्याय की मदद के लिए आगे अवष्य आयेगी क्योंकि भयभीत व्यक्ति सत्य नहीं बोल सकता । न्यायालयों द्वारा जनता का विष्वास जीतने की आवष्यकता है। हमें खाकी मिश्रित ष्याम आतंकवाद से दूर रहना है।
न्यायतन्त्र से जुडे. लोगाों का विष्वास है कि यदि समय पर वास्तविक न्याय दिया जाने लगा तो तुच्छ  मामले भी आने लगेंगे क्योंकि वर्तमान में अतिपीड़ित ही पहुंच रहे हैं । अन्तिम उपचार के रूप में नागरिक न्यायालयों में इसलिए आते हैं कि वर्तमान व्यवस्था में इसका कोई विकल्प नहीं है। संचार, बैंकिग आदि सेवाओं के वैष्वीकरण के बाद राज्य क्षेत्रीय सेवा प्रदाताओं की हिस्सेदारी घटी है। दायित्व सहित निजी न्यायतन्त्र  दायित्वहीन राज्य न्यायतन्त्र का अच्छा विकल्प हो सकता है। न्यायतन्त्र द्वारा अनुचित विलम्ब, उत्पीड़न के लिए, सरकार द्वारा नागरिकों को  पर्याप्त प्रतिपूर्ति स्वतः दी जानी चाहिए जिसे दोशी अधिकारी से वसूल करना राज्य का विषेशाधिकार हो सकता है। यदि चिकित्सकीय लापरवाही जिम्मेदारी का कारण बन सकती है तो न्यायिक लापरवाही इसका अपवाद कैसे हो सकती है। न्यायिक कार्यवाही भी अलौकिक न होकर संविधान की परिधि में समान लौकिक कार्यवाही ही है।

( फॉण्ट परिवर्तन से हुई वर्तनी संबंधित अशुद्धियों के लिए खेद है )

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