Sunday 20 February 2011

न्यायाधीशों की कमी- एक मिथक

उच्चतम न्यायालय के आंकडों के अनुसार वर्श 2009 में मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीषों ने 5005 प्रकरण प्रति न्यायाधीष से प्रकरणों का निपटारा किया है जबकि भारत के समस्त उच्च न्यायालयों का इसी अवधि में प्रति न्यायाधीष औसत मात्र 2537 प्रकरण रहा है।इस प्रकार समस्त उच्च न्यायालयों में कुल 272 न्यायाधीष अधिषेश हैं जिन्हें बकाया मामलों के निस्तारण में संलग्न किया जा सकता है।अधिनस्थ न्यायालयों में भी केरल  के न्यायाधीषों ने वर्श 2009 में प्रति न्यायाधीष 2575 प्रकरणों का निस्तारण किया है जबकि समस्त भारतीय न्यायाधीषों का यह औसत 1142 प्रकरण है।  सर्वोŸाम निस्तारण के आधार पर समस्त भारतीय अधीनस्थ न्यायालयों में 7507 न्यायाधीष अधिषेश हैं जिनका उपयोग बकाया मामलों के निपटान में किया जा सकता है। भारत में न्यायालयों एवं न्यायाधीषों के पद सृजन हेतु कोई ठोस सैद्धान्तिक नीति-पत्र नहीं है। अतः सुस्पश्ट नीति के अभाव में मनमानी करने का अवसर उपलब्ध है। विडम्बना यह है कि सम्पूर्ण देष में एक समान मौलिक कानून-संविधान, व्यवहार प्रक्रिया संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता, साक्ष्य अधिनियम व दण्ड संहिता- के उपरान्त न्यायालयों द्वारा अपनायी जाने वाली मनमानी व स्वंभू प्रक्रिया व परम्पराओं के कारण निस्तारण में गंभीर अन्तर है। देष की सरकारें और न्यायपालिका जनता को गुमराह मात्र कर रही हैं । 

(फॉण्ट परिवर्तन से हुई वर्तनी सम्बंधित अशुद्धियों के लिए खेद है )

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