Saturday 17 November 2012

भ्रष्टाचार अनुकूल परिस्थितियों में पनपता है


भ्रष्टाचार के प्रसंग में जन लोकपाल बिल पर भारत  में यह गर्मागर्म बहस का विषय रहा कि इसके दायरे से किसे बाहर रखा जाये| वैसे भी भ्रष्टाचार पर अंतर्राष्ट्रीय संधि -2003 की भारत ने काफी विलम्ब से वर्ष 2011 में पुष्टि की है जिससे भ्रष्टाचार के विषय में भारत की संजीदगी, गंभीरता  और प्रतिबद्धता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है| दूसरी ओर हमारे पडौसी देश पाकिस्तान की स्थिति की ओर देखें तो वहाँ भ्रष्टाचार सम्बंधित मामलों के लिए राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो अध्यादेश, 1999 लागू है| यह अध्यादेश सम्पूर्ण पकिस्तान में राष्ट्रपति सहित पाकिस्तान में सेवारत सभी लोक पदधारियों पर लागू है और अभियोजन के लिए किसी पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है| ऐसी परिस्थितियों में भारत में भी भ्रष्टाचार सम्बंधित किसी भी कानून के दायरे से किसी भी पदाधिकारी को बाहर रखने की क्या आवश्यकता हो सकती है|

अध्यादेश की धारा 16 (ए) के अनुसार ऐसे अपराधों की सुनवाई दिनप्रतिदिन के आधार पर होगी और 30 दिन के भीतर निपटा दी जायेगी| धारा 18 (एफ) के अनुसार कोई भी जांच या अनुसंधान शीघ्रतम किन्तु 75 दिन के भीतर पूर्ण कर लिया जावेगा| धारा 32 के अंतर्गत अंतिम निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में 10 दिन में अपील दाखिल की जा सकेगी और जिसे न्यूनतम दो न्यायाधीशों की बेंच द्वारा सुना जायेगा व अपील दाखिल करने से 30 दिन के भीतर निर्णित कर दिया जायेगा| उक्त के अतिरिक्त पकिस्तान के भ्रष्टाचार  सम्बंधित कानून का दयारा भी बड़ा व्यापक है और उसमें किसी वितीय संस्था, बैंक, सरकारी विभाग  के प्रति दायित्व या ऋण का जानबूझकर चुकारा न करना भी उक्त अध्यादेश  की परिधि में अपराध है| बड़े पैमाने पर आम जनता से धोखाधड़ी और अमानत में खयानत को भी इस कानून के दायरे में लेकर त्वरित कार्यवाही का प्रावधान किया गया है| जबकि भारत में आम जनता के साथ संगठित तौर पर व्यावसायिक धोखाधडियाँ होती रहती हैं और पुलिस व देश के न्यायालय बड़े पैमाने पर पीड़ित देश की जनता के ऐसे मामलों को सिविल प्रकृति का मानकर ख़ारिज करते रहते हैं| उक्त से स्पष्ट है कि जोंक की तरह जनता का रक्तपान करने वाले अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के फलने फूलने के लिए भारत भूमि बड़ी अनुकूल है| जिस प्रकार कोई भी वनस्पति या प्राणी अनुकूल वातावरण में आसानी से फलता फूलता है उसी प्रकार विद्यमान परिस्थितियों में भारत में भ्रष्टाचार अच्छी तरह से फलफूल सकता है- नित नए उजागर होने वाले घोटाले इसे प्रमाणित करते हैं| 

दुर्भाग्य से हमारी कमजोर विधायिका द्वारा कोई प्रभावी व सख्त कानून नहीं बनाया जाता और यदि संयोग से हमारी विधायिका कोई जनानुकूल कानूनी प्रावधान कर दे तो हमारी न्यायपालिका उसकी मनमानी व्याख्याकर उसे भी विफल कर देती है| कहने को तो हमारे यहाँ भी भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 19 में यह प्रावधान है कि कोई भी न्यायालय इस अधिनियम के अंतर्गत कार्यवाही के विरुद्ध किसी भी आधार पर रोक नहीं लगायेगा और देश का सुप्रीम कोर्ट भी सत्यनारायण शर्मा बनाम राजस्थान राज्य (AIR 2001 SC 2856) में इस आशय की सैद्धांतिक पुष्टि कर चुका है किन्तु इसके बावजूद देश के विभन्न संवैधानिक न्यायालयों ने भ्रष्टाचार के बहुत से मामलों में आज भी रोक लगा रखी है और इस कारण उनमें परीक्षण रुके हुए हैं| इससे भ्रष्टाचारियों का मनोबल बढता है और पीड़ित व्यक्ति हताश होता है व न्यायप्रणाली में विश्वास कमजोर होता है| किन्तु व्यवहार में भ्रष्टाचार के प्रमाणित मामले में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो, राजस्थान  द्वारा कार्यवाही नहीं करने की शिकायत पर घोषित नीति के अनुसार उसका कोई न्यायिक संज्ञान लेकर आदेश पारित करने की बजाय भारत का सुप्रीम कोर्ट भी उसे अन्य राजकीय विभाग या फारवर्डिंग एजेन्ट की तरह मात्र फारवर्ड कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है| यह स्थिति न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर व निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह लगाती है|
भारत के सामने यह यक्ष प्रश्न है कि पाश्चात्य विकसित लोकतांत्रिक देशों की मजबूत स्थिति को छोड़ भी दिया जाये तो क्या हम हमारे पडौसी देश पाकिस्तान से भी कमजोर हैं अथवा हम भ्रष्टाचार के प्रति गंभीर और प्रतिबद्ध नहीं हैं- इस गंभीर अपराध को रोकने के लिए इच्छशक्ति का अभाव है| यदि हम 65 वर्ष के स्वतंत्रता काल में प्रतिवर्ष 1.5% भी परिवर्तन करते तो आज तक सम्पूर्ण व्यवस्था को जनोन्मुखी बना सकते थे किन्तु हमारी अपनी चुनी गयी सरकारें सुधार के नाम पर गत 65 वर्षों से नाटक मात्र कर रही हैं| सुधार के किसी भी सुझाव के विरुद्ध देश के कर्णधार और नौकरशाह एक स्वर में रटारटाया बहाना बनाते हैं कि क्षेत्र बड़ा होने के कारण यह करना कठिन है जबकि इसी अवधारणा पर क्रमश: पंजाब, उत्तरप्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश को विभाजित कर नए राज्यों का निर्माण किया गया था| किन्तु विद्यमान स्थिति गवाह है कि इन नवनिर्मित राज्यों में भी सार्वजनिक धन की लूट, अराजकता, आम नागरिक की असुरक्षा  और  अव्यवस्था में बढ़ोतरी ही हुई है, किसी प्रकार की कमी नहीं| हमें यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि जिस प्रकार एक महावत विशालकाय हाथी पर नियंत्रण स्थापित कर लेता है उसी प्रकार सुधार के लिए आकार की बजाय प्रबल इच्छाशक्ति व युक्ति महत्वपूर्ण है| 

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