Saturday 17 November 2012

भारत में कानून के राज का अभिप्राय

देश में जब तक अनियंत्रित भ्रष्टाचार और विलम्बकारी तन्त्र की गहरी जड़ों वाली उत्पीड़नकारी आपराधिक न्याय प्रणाली जारी रहेगी, तब तक यह  अपराध और क्रूरता से पीड़ित लोगों को न्याय प्रदान से मना करती रहेगी। आज भारत के प्रत्येक उच्च और शक्ति-संपन्न अपराधी को न्यायपालिका पर पूरा विश्‍वास है और वह पूरी तरह से आश्‍वस्त है कि शिकायतकर्ता को वह एक लंबे और शरारतपूर्ण मार्ग पर धकेलने में समर्थ है और इसमें अंतिम विजय उस अपराधी की ही होगी। जहां लगातार देरी से व्यथित व्यक्ति के साथ गंभीर अन्याय होगा। जिसमें औपनिवेशिक व्यवस्था द्वारा देरी से किया न्याय, न्याय हेतु मनाही में बदल जायेगा। जो लोग इस सुस्थापित व्यवस्था को चलाने के लिये प्रशिक्षित और सिद्धहस्त हैं, उनसे न्यायपालिका में कोई चमत्कारिक या क्रांतिकारी बदलाव की अपेक्षा नहीं की जा सकती-ऐसे परिवर्तन, जिनसे बिलकुल विपरीत परिणाम प्राप्त हो सकें।
लोकतंत्र की अपेक्षा है कि ब्रिटिश शासन से बाद भारत के लोगों को सुरक्षा और न्याय मिले। न्यायपालिका को यह भ्रम हो सकता है कि उसकी जनता में बड़ी इज्जत है, जबकि आम भारतीय बहुत लंबे समय से न्यायपालिका और पुलिस दोनों से बुरी तरह से हताश और निराश है, क्योंकि दोनों ही संस्थान अभी भी औपनिवेशिक शासन व्यवस्था की रीति-नीतियों, कानूनों और सिद्धान्तों से संचालित हैं। पुलिस से तो लोग बुरी तरह से आतंकित भी हैं, जबकि न्यायपालिका में बढते भ्रष्टाचार और बड़े लोगों के प्रति न्यायपालिका के उदार नजरियों को लेकर लोगों में गुस्सा है। सभ्य समाज की संवेदनहीनता के कारण आज दुर्घटना और हिंसक अपराधों के पीड़ित दम तोड़ते रहते हैं, किन्तु इस कारण नहीं कि हम अमानवीय हैं, अपितु इस उत्पीड़नकारी आपराधिक न्याय संस्थान  न्यायपालिका व पुलिस  के खोप के कारण कानून में विश्‍वास करने वाले भारत के आम नागरिक न्यायपालिका और पुलिस की उस कार्य संस्द्भति से पूरी तरह से भयभीत हैं जो उसे औपनिवेशिक युग से विरासत में प्राप्त हुई है। आज भी देश की न्यायपालिका लोकतान्त्रिक मूल्यों को नए ढंग से परिभाषित करने के स्थान पर औपनिवेशिक संस्था की तरह तात्कालीन प्रोटोकोल और परम्पराओं को  ही आगे बढ़ा रही है और करोड़ों भारतीयों को शासन का बड़प्पन और शक्ति अति भयभीत कर रहे हैं व आम आदमी को विवश कर संस्थागत न्यायिक विलम्ब के निर्बाध कुचक्र के माध्यम से उसका आर्थिक शोषण कर गंभीर अन्याय के वश में कर रही है तथा एक मात्र हानिकारक भ्रष्टाचार के कारण यह जारी है। औपनिवेशिक काले कानूनों और उनकी भाषा का जारी रहना करोड़ों भारतीयों के लिए आज भी एक पहेली बना हुआ है और भारतीय समाज और समुदाय लोकतान्त्रिक मूल्यों के साथ टकराव जारी रखे हुए है। इन औपनिवेशिक काले कानूनों के माध्यम से किया जाने वाला तथाकथित न्याय हमारे सामाजिक तानेबाने से नहीं निकला है, अपितु वह सत्रहवीं और अठारवीं सदी के यूरोप की उपज है, जो कि कानून और न्याय के नाम पर बड़ी संख्या में मानवजाति को गुलाम बनाने की पश्‍चिमी सामाजिक तकनीक रही है। ये समस्त कानून देशी भारतीयों पर, अंग्रेजों द्वारा थोपे गए एक तरफा अनुबंध मात्र हैं जो जिम्मेदार लोगों को सुरक्षा प्रदान करने के सिद्धांत पर राज्य की स्थापना करते हों। भूत की तरह पुलिस की ओर से आनेवाली गोलियों को आज भी विशेष संरक्षण प्राप्त है। लोगों को ऐसी भाषा में न्याय नहीं दिया जा सकता, जिसे वे जानते ही नहीं हों इंग्लैण्ड में इतालवी या हिंदी भाषा में न्याय देने का दुस्साहस नहीं किया जा सकता, किन्तु भारत में 65 वर्षों से यह सब कुछ जारी है, क्योंकि 2 फरवरी 1835 को थोमस बैबंगटन मैकाले ने इसे इजाद किया था कि हमें एक ऐसा वर्ग तैयार करने का भरसक प्रयास करना है जो हमारे और जिन करोड़ों भारतीयों पर हम शासन करें के बीच अनुवादक का कार्य कर सके। एक ऐसा वर्ग जो रक्त और रंग से तो भारतीय हो, परन्तु विचारों, नैतिकता और रूचि से अंग्रेज हो। आज की भारतीय न्याय व्यवस्था ने मैकाले के स्वप्नों को साकार करने के अतिरिक्त शायद ही कुछ किया होगा? आज की भारतीय न्याय प्रणाली भी काले उपनिवेशवादी कानूनों, प्रोटोकोल और परम्पराओं को जारी रखे हुए है, जिनमें एक गरीब न्यायार्थी की स्थिति मात्र गुलाम जैसी होकर रह जाती है और अत्याचारी पुलिस, जो चाहे अत्याचार कर सकती हैं और निर्भीक  होकर हत्याएं कर सकती है, उसको एक सुरक्षा के आवरण में ढांक दिया जाता है। ऐसे मामलों में स्वतंत्र न्यायिक जांच के लिए मना करने वाली न्यायपालिका इन आपराधिक द्भत्यों का उत्साहपूर्वक संरक्षण करती है। अफसोस कि फिर भी इसे न्याय, कानून के समक्ष समानता और लोकतंत्र कहा जाता है? अब समय आ गया है, जबकि आम भारतीय को सत्य की पहचान करनी चाहिए और इस उपनिवेशवादी मुकदमेबाजी उद्योग की चक्की में नहीं पीसना चाहिए और बदनामीयुक्त जीवन में नहीं रहना चाहिए। स्वतंत्र भारत के सम्पूर्ण काल का जिक्र ही क्या करना, जब मात्र 1990 से लेकर 2007 तक के बीच करीब 17000 हजार आरोपी व्यक्ति अर्थात् पुलिस की अन्य ज्यादतियों और यातनाओं को छोड़कर भी प्रतिदिन औसतन 3 व्यक्ति पुलिस हिरासत में मर चुके हैं और शायद ही इनमें से किसी पुलिसवाले का बाल भी बांका हुआ हो यहॉं तक की प्रमाण स्वरूप घटना का वीडियो उपलब्ध हो तो भी पुलिस का कुछ नहीं बिगड़ता! आखिर पुलिस अंग्रेजी शासनकाल से सर्वोच्च जो है। आज हमारी इस विद्भत, और लोकतांत्रिक सिद्धांतों के विपरीत और अनुपयुक्त प्रणाली में तुरंत निम्न परिवर्तन करने की महती आवश्यकता है :-
उन समस्त उपनिवेशवादी काले कानूनों और परम्पराओं की पहचान कर निरस्त किया जाये जो  वर्ग भेद करते हैं और कानून में विश्‍वास करने वालों में भय उत्पन्न करने वाली शक्ति और छवि का प्रदर्शन करते हों और साथ ही जो अपराधियों को अपराध करने को प्रेरित करते हों।
आज राष्ट्रद्रोह कानून को चंद लोगों की मर्जी पर नहीं छोड़ा जा सकता जो जनविरोधी उपनिवेशवादी कानून को अन्याय और भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठने वाले स्वरों को दबाने कुचलने लिए चुनिन्दा तौर पर इसका उपयोग करते हों।
उन सभी उपनिवेशवादी कानूनों के अंतर्गत प्रसंज्ञान लिया जाना बंद होना चाहिए, जिनका निर्माण मात्र शासक वर्ग द्वारा शोषण और अत्याचारों के विरुद्ध उठने वाले विरोधी स्वरों को दबाने के लिए किया गया हो। विशेषतया दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 46, 129, 144, 197 आदि और वे सब विशेष कानून जो मुठीभर अपराधियों ने लोगों की स्वतन्त्रता और कानून के समक्ष समानता छीनने के लिए बनाये हों एक लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली में राज्य के आपराधिक कानून से किसी को भी विशेष सुरक्षा नहीं दी जा सकती और इससे समानांतर संवैधानिक व्यवस्था का जन्म होता है।
जिन बलों का गठन बाहरी आक्रमणों से रक्षा के लिए किया गया है, उनका देश में प्रयोग नहीं होना चाहिए, क्योंकि उन्हें मात्र बाहरी आक्रमणों से निपटने का प्रशिक्षण होता और उनका देश के नागरिकों के विरुद्ध उपयोग लोकतांत्रिक सिद्धांतों के सर्वथा विपरीत है।
हमारे चुने गए जन प्रतिनिधियों को चाहिए कि वे अपने क्षेत्र की जनता से इन प्रस्तावित विधेयकों पर परामर्श लें। क्योंकि जनता ने उहें अपना प्रतिनिधि चुनकर कोई गुनाह नहीं किया है। अपने सभी लोकतान्त्रिक अधिकार गिरवी नहीं रखे हैं। हमारी मान्यता है कि लोकतंत्र कोई मूकदर्शी खेल नहीं है, बल्कि सतत रूप से कानून का राज है। ऐसे कानून का राज जो जमीनी स्तर के लोगों की सहभागिता वाले हमारे सामाजिक ताने बाने से बुना गया हो।

1 comment:

  1. अनियंत्रित भ्रष्टाचार और विलम्बकारी तन्त्र की गहरी जड़ों वाली उत्पीड़नकारी आपराधिक न्याय प्रणाली जारी रहेगी.

    उन सभी उपनिवेशवादी कानूनों के अंतर्गत प्रसंज्ञान लिया जाना बंद होना चाहिए,

    राष्ट्रद्रोह कानून को चंद लोगों की मर्जी पर नहीं छोड़ा जा सकता

    स को हिंदी वेब साईट www.navsancharsamachar.com पर ले रहा हूँ .

    कृपया इस साईट को देखे .

    एडिटर
    शैलेश कुमार
    9355166654
    बहादुरगढ़ हरियाणा

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