Friday 9 November 2012

सूचना के अधिकार अधिनियम से क्या मिला ?


सूचना के अधिकार अधिनियम से क्या मिला ?

भारतीय लोग अक्सर सूचना का अधिकार अधिनियम को बहुत बडा मील का पत्थर मानते हैं और बड़े इत्मीनान से इसका गुणगान करते हैं| किन्तु वास्तविक स्थिति क्या है इसका मूल्यांकन निम्नानुसार है| एक सूचनार्थ आवेदन को सूचना आयोग द्वारा निर्णित होने में समान्यतया लगभग दो वर्ष का समय लग जाता है| अनुभव से प्रमाणित होता है कि सामान्यतया शक्तिशाली और संवेदनशील विभाग/कार्यालययथा - न्यायालय, सतर्कता, भ्रष्टाचार निरोधक, गृह मंत्रालय, न्याय विभाग, प्रशासन, पुलिस आदि  15-20% से अधिक मामलों में सूचनाएं नहीं देते हैं और सूचना आयोगों में याचिकाओं के ढेर लगे पड़े हैं| सूचना आयोग भी इन लोक प्राधिकारियों के साथ मिलीभगत से ही कार्य कर रहे हैं और लगभग यही प्रतिशत सूचना आयोगों द्वारा सूचना प्रदानागी के आदेशों का आता है| इन सभी लोक सेवकों को इस बात का ज्ञान और विश्वास है कि वे चाहे जो मर्जी करें उनका कुछ भी बिगडने वाला नहीं है- उन्हें दण्डित करने के सभी प्रावधान मात्र कागजी और जनता को भ्रमित करने के लिए हैं, आखिर थकहार कर अधिकतम एक नागरिक अपने पक्ष में आयोग से आदेश पारित करवा लेगा| इस आदेश की पालना में भी कई पेंच और पैंतरे होंगे| इस अवधि में अन्याय की अग्नि में रक्त तो आखिर नागरिक का ही जलेगा| हाँ स्थानीय और तुलनात्मक रूप से कम ताकतवर विभागों यथा पंचायत, स्कूल, नगर पालिका, निर्माण विभाग द्वारा दी जाने वाली सूचनाएं कुछ अधिक प्रतिशत हो सकती हैं| इस प्रकार इन परिस्थितियों में आपको बारबार आवेदन और अपील कर पूर्ण सूचना प्राप्ति में 10-14  (100/15-20% X 2) वर्ष  का समय लग जायेगा और तब तक प्राप्त उस सूचना की उपयोगिता व प्रासंगिकता ही नहीं रह जायेगी| भारत में एक व्यक्ति की औसत आयु 64 वर्ष को देखते हुए यह समय वैसे भी बहुत अधिक है| समर्थ लोगों को तो पहले भी वैध या अवैध ढंग से सूचनाएं मिल जाया करती थी किन्तु आम नागरिक के लिये आज भी कोई उपचार उपलब्ध नहीं हैं|
सूचना आयोग एक ट्राईब्युनल है और ट्राईब्युनल के गठन का उद्देश्य जनता को सस्ता और शीध्र न्याय उपलब्ध करवाना होता है क्योंकि भारत में न्याय प्रणाली मंथर और खर्चीली है| किन्तु यहाँ तो ट्राईब्युनल भी अपने उद्देश्य में विफल है| प्रथम तो सूचना आयोग कोई अर्थ दंड नहीं लगाते हैं और लगा भी दें तो यह राशि इतनी स्वल्प है कि अधिनियम का उल्लंघन रोकने में असफल है| लगभग  80% केन्द्रीय मामलों में इसे वसूल भी नहीं किया जा रहा है|  छठे वेतन आयोग से कर्मचारियों के वेतन और रिश्वत सहित अन्य आय में काफी वृद्धि हुई है जिससे यह अर्थदंड उनके लिए नगण्य रह गया है| आज सरकारी अधिकारियों के पास धन का कोई अभाव नहीं रहा है परिणामत: वे रिश्वत भी धन की बजाय सेवा के रूप में लेना अधिक पसंद करते हैं|

जहां तक अधिनियम की भावनात्मक अनुपालना करने का प्रश्न हैं, धारा 4 की अपेक्षानुसार 120 दिन की समयावधि में समस्त रिकार्ड सूचीबद्ध हो जाना चाहिए था ताकि आवश्यकता होने पर रिकार्ड की तलाशा जा सके किन्तु आज तक स्वयं केन्द्रीय सूचना आयोग ने भी  ऐसी सूची तैयार नहीं की है अन्य लोक प्राधिकारियों का तो जिक्र ही क्या किया जाये| हाँ कर्नाटका विधान सभा ने इस प्रसंग में अवश्य प्रशंसनीय कार्य कर अपनी समस्त पत्रावलियों की सूची इन्टरनेट पर डाल दी है|  सूचना के अधिकार का एक मनोवैज्ञानिक पहलू यह भी है कि नागरिक अपने सेवकों से सूचनाएं इसलिए माँगते हैं कि उन्हें अपने सेवकों के क्रियाकलापों पर विश्वास नहीं है व महसूस होता है कि उनके सेवक स्वच्छतापूर्वक और निष्ठापूर्वक कार्य नहीं कर रहे हैं (वास्तविकता तो यह है कि वे मुश्किल से ही कार्य करते हैं)| जिस दिन उन्हें विश्वास हो जायेगा कि उनके सेवक स्वच्छतापूर्वक निष्ठा से सेवा कार्य कर रहे हैं उस दिन से वे सूचनाओं के लिए आवेदन करना स्वत: ही कम कर देंगे|
ऐसा नहीं है कि सरकार की ओर से पहले से ऐसी व्यवस्थाओं का अभाव हो जिससे जनता को यह अधिकार देना आवश्यक हो गया हो| देश में कानूनी प्रावधानों और दिखावटी जनतांत्रिक आदेशों की पहले से भरमार है किन्तु यक्ष प्रश्न तो उनकी अनुपालना का है| अधिनियम बनने के उपरांत भी देश के न्यायतंत्र से जुड़े मुख्य न्यायाधिपति, कोलकता उच्च न्यायालय, बार काउंसिल और एटोर्नी जनरल  अपने आपको  अधिनियम  के दायरे से बाहर होने का दावा कर चुके हैं| अब ऐसे भले लोगों से जनता न्याय की आशा करती है तो वह किस सीमा तक वास्तविकता में बदल सकती है स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं रह जाती|
भारत सरकार के प्रशासनिक सुधार विभाग ने भारत सरकार के उपक्रमों/ कार्यालयों/विभागों  की कार्यप्रणाली को विनियमित करने के लिए एक मैनुअल तैयार कर रखी है| इस प्रकार के मैनुअल राज्य सरकारों ने भी बना रखे हैं| इस मैंनुअल के पैरा 15(4) में कहा गया है कि आवश्यक डाक जैसे ही प्राप्त होगी वितरित कर दी जायेगी और अन्य डाक सुविधा जनक  अंतराल से यथा 12 बजे , 2 बजे, 4 बजे वितिरित कर दी जायेगी| किन्तु वास्तव में डाक का वितरण एक दिन में तीन बार के स्थान पर सामान्यतया तीन दिन बाद किया जाता है| ठीक इसी प्रकार पैरा 66 में कहा गया है कि  जनता से प्राप्त सन्देश की 15 दिन के भीतर प्राप्ति भेजी जायेगी और आगामी 15 दिन के भीतर जवाब भेज दिया जायेगा| आगे यह भी कहा गया है कि यदि कोई सन्देश किसी विभाग को गलती से संबोधित कर दिया गया हो तो उसे एक सप्ताह के भीतर उपयुक्त विभाग को अंतरित कर दिया जायेगा| व्यवहार में अनुपयुक्त विभाग में प्राप्त सन्देश का संबंधित नहीं लिखकर वहीँ उसका असामयिक अंत कर दिया जता है| पैरा 66 में आगे कहा गया है कि जनता से प्राप्त किसी निवेदन को यदि किसी कारण से स्वीकार नहीं किया जा सके तो इस प्रकार की अस्वीकृति के कारण दिए जाने चाहिए| आगे कहा गया है कि जनता से प्राप्त आवेदनों को प्रशासनिक सुविधा की बजाय, जहां तक संभव हो, उपयोगकर्ता के दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए| पैरा 121 में कहा गया है कि कोई भी अधिकारी सामान्य नियम के तौर पर, यदि  उच्च समय सीमा तय न हो तो, किसी भी मामले को अपने पास 7 दिन से अधिक बकाया नहीं रखेगा| यदि प्रकरण का सद्भावपूर्वक निपटान दिया जाये तो यह समय सीमा उपयुक्त है किन्तु जब  अलिखित कुटिल नीतियां और चालें अपनाकर किसी नागरिक के औचित्यपूर्ण निवेदन को भ्रष्टतापूर्वक अस्वीकार करना हो तो उसमें समय लगना स्वाभाविक है| यदि कोई मामला इस सीमा से अधिक समय तक बकाया रहता है तो उसका स्पष्टीकरण टिपण्णी के साथ दर्ज किया  जायेगा| किन्तु व्यवहार में इन निर्देशों की खुली अवहेलना हो रही है| यदि मैनुअल के इन लाभदायी प्रावधानों की सख्ती से अनुपालना की जाये तो सूचना के अधिकार के प्रावधानों का प्रयोग करने की आवश्यकता ही न्यूनतम रह जायेगी| उक्त सभी प्रावधानों का सरकारी तंत्र द्वारा विभिन्न  कुतर्कों पर आधारित किसी ने किसी बहाने से उल्लंघन किया जाता रहता है| स्वयं  प्रशासनिक सुधार विभाग द्वारा इस मैनुअल की अनुपालना नहीं की जाती है और कहा जाता है कि मैनुअल निदेशात्मक है आज्ञापक नहीं जबकि मैनुअल में यह कहीं पर भी  नहीं लिखा है कि यह आज्ञापक नहीं है| स्वस्पष्ट है कि एक नियोक्ता द्वारा बनाये गए नियम सेवक पर बाध्यकारी प्रभाव रखते हैं और इनका सेवक द्वारा उल्लंघन किया जाना कदाचार की परिधि में आता है व सेवक को इसके लिए दण्डित किया जा सकता है| यदि विभागीय नियमों की अनदेखी की जाये तो फिर अनुशासन व व्यवस्था किस प्रकार कायम रह सकती है? सुस्थापित नियम के तौर पर जब तक विभाग ने किसी विषय पर अपने निर्देश तय नहीं कर रखे हों तब तक सामान्य मैनुअल लागू होता है और यदि इससे भिन्न किसी परिपाटी या प्रक्रिया को अपनाया जाये तो भी उसके तर्कसंगत कारण होने चाहिए न कि अपनी सुविधा या मनमानेपन के लिए मैनुअल का परित्याग कर दिया जाये|

हमारी विधायिकाओं की स्थिति भी जनानुकूल नहीं है| एक तिहाई जन प्रतिनिधि तो प्रमाणित रूप से दागी हैं ही शेष दो तिहाई के बेदाग़ होने की गारंटी नहीं दी जा सकती| फिर भी वे माननीय कहलाते हैं| इतना ही नहीं वे अक्षम भी हैं| भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन ने एक बार कहा था कि प्रजातंत्र के चार स्तम्भ होते हैं और भारत में साढ़े तीन स्तंभ क्षतिग्रस्त हो चुके हैं| श्री अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों में, “विधायी कार्य को जिस सीमा तक सक्षमता या प्रतिबद्धता से करना चाहिए  न तो संसद, न ही राज्य विधान सभाएं कर रहीं है। कुछ अपवादों को छोड़कर जो लोग इन लोकतान्त्रिक संस्थानों के लिए चुने जाते है, वे औपचारिक या अनौपचारिक रूप से विधि-निर्माण में न तो प्रशिक्षित हैं और न ही अपने पेशे में सक्षमता और आवश्यक ज्ञान का विकास करने में प्रवृत प्रतीत होते हैं। समाज के वे लोग जो मतदाताओं की सेवा में सामान्यतः रूचि रखते हैं और विधायी कार्य कर रहे हैं, आज की मतदान प्रणाली में सफलता प्राप्त करना कठिन पाते हैं और मतदान प्रणाली धन-बल, भुज-बल और जाति व समुदाय आधारित वोट बैंक द्वारा लगभग विध्वंस की जा चुकी है। शासन के ढांचे में भ्रष्टाचार ने लोकतंत्र के सार-मताधिकार- को ही जंग लगा दिया है, शासन -ढांचे में भ्रष्टाचार की सुनिश्चित संभावना के कारण राजनैतिक पार्टियों में अवसरवाद व बेशर्मी बढ़ी है जिससे बिना लोकप्रिय जनादेश के प्रायः अवसरवादी गठबन्धन व समूहीकरण हुआ है। प्रणाली में कमियों के कारण वे सत्ता  पर फिर भी काबिज हो जाते है तथा बने रहते हैं। जातिवाद, भ्रष्टाचार तथा राजनीतिकरण ने हमारी सिविल सेवाओं की दक्षता व निष्ठा में भी कमी लाई है। जवाबदेही के अभाव में वर्तमान शासन प्रणाली में राजनैतिक पार्टियों के घोषणा-पत्रों, नीतियों, कार्यक्रमों का अभिप्रायः समाप्त हो गया है। उक्त कारणों से जन-प्रतिनिधि इन राजपुरुषों के विरुद्ध कोई भी कार्यवाही करना कठिन पाते हैं| जन-प्रतिनिधि प्राय: नियमों को लांघकर कार्य करवाते हैं और इसके निर्बाध संपन्न होने लिए वे टिपण्णी के उपर मंत्री का मामला जैसे शब्द पेन्सिल से लिखवाते हैं जिसे बाद में मिटा दिया जाता है और आवश्यकता पडने पर सम्बंधित अधिकारी से मौखिक विमर्श कर लिया जाता है| सूचना का अधिकार इस गोरख-धंधे तक पहुँचने में असमर्थ है| एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि हमारे देश में औसत आयु 64 वर्ष है जबकि पाश्चात्य देशों में यह  88 वर्ष है| एक व्यक्ति में समय और अनुभव के हिसाब से ही बौद्धिक परिपक्वता का संचार होता है| विकसित देशों के जनप्रतिनिधियों की आयु का औसत  हमारे यहाँ से ऊँचा है इस कारण भी हमारे जनप्रतिनिधियों में अपेक्षित बौद्धिक परिपक्वता  और अनुभव का तुलनात्मक अभाव है|

महाभारत में कहा गया है कि जिस राज्य की दंड व्यवस्था कमजोर हो वह राज्य नष्ट हो जाता है| इस प्रसंग में सोवियत रूस का एक प्रसंग महत्वपूर्ण है जहां एक समाचार वाचक को गलत समाचार पढने पर दंडस्वरूप साइबेरिया के बर्फीले जंगलों में लकड़ी काटने भेज दिया गया था| किन्तु जनता द्वारा चुनी गयी सरकार द्वारा स्थापित निर्देशों/नियमों का लोकतंत्र के सेवकों द्वारा खुला और मनमाना उल्लंघन भारत भूमि पर निर्बाध रूप से जारी है| हमारे तथाकथित लोक सेवकों द्वारा सरकारी नियमों और निर्देशों के उल्लंघन के लिए नियमों से विपरीत टिप्पणियाँ बनाकर उनका वरिष्ठ अधिकारी से अनुमोदन करवाकर मामले का निपटान देने की धूर्त परिपाटी का सहारा लिया जाता है| यहाँ तक की नीतिगत मामले, जोकि मात्र जनप्रतिनिधियों की अधिकार सीमा में हैं, का निपटान ये अधिकारीगण निस्संकोच होकर दे देते हैं| टिप्पणियाँ बनाने के लिए उक्त मैनुअल में प्रारूप निर्धारित है किन्तु टिप्पणियां बनाते समय इस प्रारूप का ही परित्याग कर दिया जाता है जिससे दोषी लोगों का दायित्व स्पष्ट नहीं हो पाता है| टिपण्णी में न तो प्रारम्भ की तिथि और न ही किस अधिकारी को संबोधित है यह लिखा जाता है और न ही यह स्पष्ट किया जाता है कि हस्तगत प्रकरण में निर्णय लेना किस अधिकारी की शक्ति में आता है बल्कि सम्पूर्ण मामला ही गोलमोल कर दिया जाता है| यह भारत सरकार के कार्यालयों, यहाँ तक कि लोकतंत्र के सर्वोच्च संस्थानों -लोक सभा और राज्य सभा सचिवालयों की कार्य शैली है| जो प्रकरण जन प्रतिनिधियों की किसी कमिटी  के विचारण का हो उस पर इस प्रकार की अनुचित और विधि विरुद्ध टिप्पणियाँ बनाकर निचले स्तर पर ही बंद कर दिया जाता है और वह मामला कमेटी के समक्ष कभी भी नहीं आ पाता है और इस प्रकार देश में  लोकतंत्र पर नौकरशाही भारी पड़ रही है| क्या यही हमारा 65 वर्ष का परिपक्व लोकतंत्र है जिसका सपना हमारे पूर्वजों ने देखा होगा? अब प्रश्न यह उठता है कि यदि देश के नौकरशाह ही प्रत्येक प्रकरण का अंतिम और असामयिक अंत करने के लिए सक्षम और जनता के भाग्य विधाता हों तो फिर विधायिकाओं या उनकी कमेटियों की क्या आवश्यकता है|
आज केंद्र सरकार के सचिवालय या कार्यालय में अधिकारी यह कहते आसानी से सुने जा सकते हैं कि हमने तो जो करना था कर दिया अब जहां मर्जी चले जांयें| उन्हें इस बात का पूरा पूरा विश्वास और ज्ञान है कि उनके कदाचार के लिए वे न तो विभागीय कार्यवाही में दण्डित होंगे और न ही किसी अन्य मंच या न्यायालय से उन्हें कोई दंड मिलेगा क्योंकि वहाँ पर  भी कोई सज्जन व्यक्ति नहीं हैं अपितु उनकी बिरादरी के ही लोग पदासीन हैं|  देश के सरकारी कार्यालयों में मुश्किल से ही कोई कार्य भय या लालच  के बिना होता होगा| आज ज्यादातर सरकारी कार्यालयों में कोई भी नीतिगत या नीतिसम्म्त निर्णय नहीं लिया जाता है बल्कि इधर की डाक उधर और उधर की डाक इधर भेजकर कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है| इस प्रकार, विशेष कर (राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री सहित) सचिवालय तो डाकघर की भांति बिना पढ़े ही डाक को आगे फॉरवर्ड करने का कार्य मात्र कर रहे हैं अत: इन्हें सचिवालय की बजाय डाक विनिमय केन्द्र कहा जाय तो इनका सही नाम और चरित्र जनता के सामने आ सकेगा|
यद्यपि भारतीय दंड संहिता की धारा 166 में लोक सेवक द्वारा विधि की अवज्ञा कर किसी व्यक्ति को हानि पहुँचाने पर व धारा 167 में अशुद्ध दस्तावेज रचकर किसी को हानि पहुंचाने  पर दंड का प्रावधान है| यह प्रावधान भी दिखावटी सा ही लगता है क्योंकि सामान्यतया मजिस्ट्रेट भी किसी लोक सेवक के विरुद्ध कोई कार्यवाही प्रारम्भ तक नहीं करते| यहाँ तक कि कानून की पुस्तकों में भी इन धाराओं में दण्डित होने के ऐतिहासिक उदाहरण मिलने  कठिन हैं| यदि मजिस्ट्रेट उक्त दो धाराओं को कठोरता से लागू करें तो भ्रष्टाचार और लापरवाही, तथा लोक सेवकों द्वारा मनमानेपन में आश्चर्यजनक कमी आ सकती है|

आज भारत में लोक सेवक पूरी तरह से संवेदनहीन, निर्भय और स्वछन्द हैं, उन्हें कोई भी कार्य जनता की अपेक्षाओं के अनुकूल करने की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि यदि वे उचित ढंग से कार्य नहीं भी करेंगे और उनके वरिष्ठ अधिकारी का उन्हें सानिद्य प्राप्त है तो उन्हें कोई भी दण्डित नहीं कर सकेगा| दूसरी ओर इस विद्यमान अस्वच्छ व्यवस्था में यदि वे जन अपेक्षाओं के अनुरूप कार्य कर रहे हैं किन्तु उनके वरिष्ठ उनसे अप्रसन्न हैं तो उन्हें कोई पुरस्कार प्राप्त नहीं होगा| देश में बढ़ते घोटाले, अराजकता और अव्यवस्था इस बात की गवाही देते हैं कि शीर्ष स्तर पर राजकीय सेवा में ईमानदार और निष्ठावान लोगों का अभाव है और निष्ठावान व ईमानदार लोग इस विद्यमान वातावरण में आगे बढ़ना तो दूर टिकना तक मुश्किल पाते हैं| जो मुठीभर ईमानदार व कायर लोग इस व्यवस्था में हैं वे कुछ भी करने में अपने  आपको असहाय और असमर्थ पाते हैं|








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