श्री
सेठ दामोदर स्वरुप ने डॉ राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में दिंनाक 19.11.1949 को संविधान
सभा में बहस को आगे बढाते हुए आगे कहा कि महात्मा गाँधी ने
अपने जीवनभर विकेन्द्रीयकरण की वकालत की है| आश्चर्य का विषय है उनके विदा होते ही
हम इस बात को भूल गए हैं और राष्ट्रपति व केंद्र को अनावश्यक शक्तियां दे रहे हैं|
वर्तमान सरकार का स्वरुप- दो वर्गों – राज्यों और केंद्र के मध्य
शक्तियों के विभाजन पर आधारित है | यह पहले से ही अतिकेंद्रीयकृत है| यदि
हमें भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और भाई भतीजावाद समाप्त करना है तो दो खण्डों की
योजना उपयुक्त प्रतीत नहीं होती| इसके लिए हमें चार खण्डों की योजना की आवश्यकता
है| जैसा कि मैनें एक बार प्रस्तावित किया था कि ग्राम, शहर और प्रान्त स्तर पर
अलग –अलग गणराज्य होने चाहिए व उनका संघीय स्तर
पर केन्द्रीय गणराज्य में एकीकरण होना चाहिए जिससे ही हमें वास्तविक अर्थों में संघीय
लोकतांत्रिक ढांचा मिल सकेगा| किन्तु जैसा कि मैंने पहले कहा है हमने संघीय के
स्थान पर ऐकिक संविधान का निर्माण किया है| इससे निश्चित रूप से अति केन्द्रीयकरण
होगा, और हमारी सरकार जो लोगों की सरकार होनी चाहिए थी फासिस्ट सरकार हो जायेगी|
इस दृष्टिकोण से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हमारे देश के लिए बनाये गये
संविधान से न तो देश का कल्याण होगा और न ही उन दिखाई देने वाले सिद्धांतों का
संरक्षण होगा जिनके लिए हम आगे बढे हैं| इसी कारण से भारत की समाजवादी पार्टी ने
घोषणा की है कि वे जब कभी भी सता में आये तो वे सर्व प्रथम आम मतदान आधारित एक नई
संविधान सभा का गठन करेंगे और वह सभा इसे पूरी तरह से परिवर्तित करेगी या आवश्यक
संशोधन करेगी| अत: जन हित और उच्च संवैधानिक सिद्धांतों के दृष्टिकोण से यह
संविधान पारित करने के योग्य नहीं है| हमें इस संविधान को निरस्त कर देना चाहिए|
मेरे सम्माननीय साथी शंकर राव देव के शब्दों में चाहे हम इस संविधान को स्वीकार कर
लें, देश के लोग इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगे| उनके लिए यह संविधान एक सामन्य कानून की किसी
अन्य पुस्तक से अधिक कुछ नहीं है| जिस प्रकार सरकार परिवर्तन से लोगों की आशाओं की
पूर्ति नहीं हुई है ठीक उसी प्रकार इस संविधान से भी लोगों की आशाएं अपूरित
रहेंगी| अत: यदि हम लोगों का विश्वास कायम रखना चाहते हैं तो एक परिवर्तन फिर करने
की आवश्यकता है, किन्तु यदि हम यह करने में असफल रहते हैं तो मुझे विश्वास है भारत की जनता और आने वाली पीढियां
हमें किसी अच्छे या सम्माननीय नाम से नहीं
जानेंगी|
इसके पश्चात मद्रास
से प्रतिनिधि श्री टी प्रकाश ने कहा कि यह वह संविधान नहीं है जिसकी मैंने अपने
देश के लोगों के लिए आशा की थी, ऐसा संविधान जिसकी महात्मा गांधी ने योजना बनायीं
थी जिसमें व्यहाहरिक रूप से पंचायती राज हो| इस अविर्भाव और इस कार्यक्रम से पूर्व
में किसी ने भी कल्पना नहीं की थी कि देश के लोग जिस प्रकार बंटे हुए होते हुए भी एक
नेतृत्व में एक बैनर के नीचे साथ-साथ आयेंगे और उनके व काँग्रेस के आदेशों की
अनुपालना करेंगे| वे ही एक मात्र व्यक्ति थे जिन्हें
संविधान बनाना चाहिए था - इस देश के लोगों के लिए सरल संविधान- जिससे उन्हें करोड़ों
लोगों को पूर्ण राहत मिले| उनकी योजना करोड़ों को शिक्षित करने की थी और जब से उन्होंने अफ्रीका से इस धरती पर कदम
रखा इस स्वतंत्रता की लड़ाई को तब से ही चालू रखा| उन्होने संविधान का प्रारूप
तैयार करने से पहले एक पत्र एक सृजनात्मक कार्यकर्ता, एक वकील और एक शिक्षित
व्यक्ति को लिखा जिसने अपना महत्वपूर्ण समय गाँव में बिताया हो| उस पत्र में
महत्मा गांधी के पंचायत संगठन के विषय में सुझाव दिया गया था और आपने उसका विस्तार
से उत्तर दिया था और उससे सर्वाधिक प्रभावित हुए थे क्योंकि आप महात्मा के
सर्वाधिक अग्रणी अनुयायी रहे हैं| ब्रिटिश राज में करोड़ों लोगों की उपेक्षा हुई और ब्रिटिश शासन के अंत के बाद भी
हमारे देश में उनकी उपेक्षा हुई है व हम इस संविधान की ओर बढ़ रहे हैं| संविधान एक
महान दस्तावेज है और साथी – डॉ अम्बेडकर, बड़े वकील व एक योग्य व्यक्ति हैं - इसके निर्माण के
प्रभारी रहे हैं| उन्होंने जो काम किया है उससे दिखा दिया है कि वे इंग्लॅण्ड के
राजा के सलाहकार होने के लिए योग्य हैं| किन्तु यह वह संविधान नहीं है जिसे कि इस
देश के हम लोगों ने चाहा हो| जैसे ही अंग्रेजों को इस देश से बाहर भेजा गया हमें गांधीजी
द्वारा दी गयी शिक्षा के आधार को अस्वीकृत नहीं करना चाहिए था, मात्र शिक्षित ही
नहीं अपितु प्रत्येक क्षेत्र के लोगों को कार्य करने के लिए समर्थ बनाया जाना
चाहिए था| जो गत 26 वर्षों में अपना कपड़ा बनाने, अपनी रोटी कमाने और अन्य सभी रचनात्मक कार्यक्रम चलाने की
बातें हुई अब इस संविधान में कहीं नहीं हैं| इस प्रकार श्री प्रकाश ने अपनी बहस को
पूर्ण किया|
आज
हम देखें तो पाएंगे कि विश्व बहुत छोटे देश यथा जापान, तुर्की आदि के संविधान
हमारे संविधान से बहुत अच्छे हैं| उनमें जनता की स्वतंत्रता और गरिमा का विशेष
ध्यान रखा गया है जबकि भारत में पुलिसिया अत्याचार- रामलीला मैदान, सोनी सोरी आदि-
आज भी अंग्रेजी शासन के समान ही बदस्तूर जारी हैं और लोकतंत्र के सभी स्तम्भ
मूकदर्शक बने हुए हैं| भारत के ही पडौसी देश श्रीलंका के संविधान के अनुच्छेद 11
में प्रावधान है कि किसी को भी अमानवीय या निम्न श्रेणी का व्यवहार, निर्दयी यातना
या दंड नहीं दिया जायेगा| अनुच्छेद 14 में आगे कहा गया है कि प्रत्येक नागरिक को
प्रकाशन सहित भाषण और अभिव्यक्ति, शांतिपूर्ण सम्मलेन, संगठन बनाने, श्रम संगठन
बनाने और उसमें शामिल होने, श्रीलंका के भीतर विचरण और निवास व श्रीलंका लौटने का
अधिकार होगा| अनुच्छेद 24 में यह प्रावधान है कि सम्पूर्ण श्रीलंका में न्यायालयों
की भाषा सिंहली और तमिल होगी| अनुच्छेद 107 में यह प्रावधान है कि प्रत्येक
न्यायाधीश अपने अच्छे आचरण के साथ पद धारण करेगा और संसद को संबोधन के पश्चात
राष्ट्रपति के आदेश के बिना नहीं हटाया जायेगा जोकि संसद के बहुमत वाले सदस्यों
द्वारा समर्थित हो| अनुच्छेद 111 के अनुसार
उच्च न्यायालय न्यायाधीश को न्यायिक सेवा आयोग की अनुशंसा पर अटॉर्नी जनरल
से परमार्श पर नियुक्त किया जायेगा और वह न्यायिक सेवा आयोग की अनुशंसा पर
राष्ट्रपति के अनुशासनिक नियंत्रण और पद से हटाये जाने के अधीन होगा|
उक्त
विवेचन से स्पष्ट है कि आज हमारी बहुत सी आर्थिक, न्यायिक, सामाजिक और राष्ट्रीय
समस्याओं की जड़ें हमारे संविधान से ही निकलती
हैं| वस्तुत: यह प्रारंभ से ही अस्पष्ट और दोषपूर्ण रहा है| इस अस्पष्टता में
ताकतवर लोगों द्वारा कमजोर, दलित और बेसहारा वर्ग के आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक और
मानसिक शोषण के लिए पहले से ही पर्याप्त गुन्जाइस छोड़ी गयी थी जिसका आज खुलकर
दुरूपयोग हो रहा है| आज दंड प्रक्रिया संहिता में तो प्रावधान अवश्य है कि किसी
महिला के बयान पुलिस उसके घर पर ही लेगी किन्तु भारत सरकार अधिनियम,1935 के प्रतिरूप हमारे इस संविधान की ताकत पर
ही पुलिस को आज भी अपने कर्कश स्वर में किसी महिला को फोन पर निस्संकोच यह कहते सुना जा सकता है कि हम
तुम्हारे नौकर नहीं हैं, यहाँ आओ और बयान दो वरना तुम्हें पकड़कर ले जायेंगे| हमारे
संविधान में लोकतंत्र के सेवकों के अधिकारों, शक्तियों और विशेषाधिकारों की तो
भरमार है किन्तु उनके दायित्व, कर्तव्यों और आचरण के नियमों को देश के सम्पूर्ण
कानून में भी नहीं ढूंढा जा सकता है| देश की न्यायपालिका को विधायिका और
कार्यपालिका के कार्य की न्यायिक समीक्षा करने और निर्देश देने का अधिकार है अत:
पीड़ित और शोषित वर्ग का यह अनुमान है कि यह सब कुछ न्यायपालिका के सक्रिय अथवा निष्क्रिय
सानिद्य व संरक्षण के अंतर्गत ही संभव है| सभी ताकतवार लोग इस अस्पष्ट संविधान का समय-समय
पर अपनी सुविधानुसार और मनमाना अर्थ लेते हैं और दिन प्रतिदिन उजागर होते नित नए
घोटालों पर एक नज़र डालें तो भी यही संकेत मिलता है कि आज भारतीय संविधान अपने
उद्देश्यों की प्राप्ति में पूरी तरह विफल है| जब तक इस दोषपूर्ण संविधान की पूर्ण
सफाई नहीं कर दी जाती तब तक आम जनता के लिए यह भ्रम मात्र है कि देश में उनकी
रक्षा करने वाले कानून हैं अथवा कानून का राज है| देश की स्वतंत्रता को एक लंबा
समय व्यतीत होने बावजूद आमजन की समस्याएं द्रुत गति से बढ़ी हैं और आमजन को राहत की
कोई सांस नहीं मिली है| जनतंत्र में प्रजा को राहत की आशा अपने चुने गए
प्रतिनिधियों से ही हो सकती है किन्तु देश के नेतृत्व में अपनी भूल स्वीकार करने
का साहस नहीं है परिणामत: यह दोषपूर्ण संविधान आज तक जारी है| हमारे लोकतंत्र पर मात्र
न्यायपालिका ही भारी नहीं पड़ रही है अपितु प्रजातंत्र के सभी स्तंभ अपने संविधान सम्मत कर्तव्यों
की पालना में जन आकांक्षाओं पर खरे नहीं उतरे हैं|
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