Thursday 8 March 2012

न्यायपालिका – कुछ रोचक तथ्य



  1. ईस्ट इंडिया कं. व्यापारी के छद्म वेश में भारत को लूटने आई थी| 1857 की क्रांति के बाद जनता की आवाज़ को दबाने के उद्देश्य को ध्यान में रखकर ब्रिटिश सरकार ने कानून निर्माण प्रारम्भ किया जिसमें अभियोजन स्वीकृति, राज कार्य में बाधा, न्यायिक अधिकारी संरक्षण अधिनियम आदि थे किन्तु  विदेशों (ब्रिटेन) में आज ऐसे कानून नहीं हैं जबकि भारत में न्यायाधीश संरक्षण अधिनयम 1985 बना कर राजतन्त्रिक व्यवस्था को और मज़बूत कर दिया गया है ... लोक व्यवस्था राज्य का विषय है, अतः जहाँ केंद्र उदासीनता बरते, दंड विधि और दंड प्रक्रिया विधि, राज्यों को स्वयं ही बनानी चाहिए|
  2. जोगिन्दर कुमार बनाम उ प्र के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जघन्य अपराध के अतिरिक्त गिरफ्तारी को टाला जाना चाहिए जबकि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 59 के अंतर्गत न वकील बिना जमानत रिहाई की मांग करते हैं और न गिरफ्तार व्यक्ति को मजिस्ट्रेट रिहा करते हैं| राष्ट्रीय पुलिस आयोग की  1980 की रिपोर्ट के अनुसार 60% गिरफतारियां अनावश्यक हैं जिन पर जेलों का 43.2% व्यय होता है| एक ओर संसाधनों का अभाव व दूसरी ओर अनावश्यक गिरफतारी एवं जमानत में  सीमित साधनों और  संसाधनों का दुरुपयोग हो रहा है| जिन मामलों और जिन परिस्थितियों में सर्वोच्च न्यायालय जमानत ले उनमें मजिस्ट्रेट क्यों नहीं ले सकता ...एक विचारणीय प्रश्न है |
  3. किन्तु वकीलों को भी 5-7  पृष्ठ की याचिका और 5 मिनट की बहस में उ न्या में अच्छी फीस 20000-30000 रु. मिल जाती है| इस प्रकार  राज उ न्या में वर्ष  में 18000 जमानत आवेदनों में 36 करोड़ रु. का कारोबार होता है| जिस दिन जमानत का कोई आवेदन नहीं आये उस दिन सभी संबद्ध उदास दिखाई देते हैं| आस्ट्रेलिया में जमानत पर एक पूर्ण अलग कानून है और जमानत को वहाँ पर अधिकार बताया गया है जबकि भारत में कानून में मात्र 4-5 धाराएं ही हैं|
  4. फिर गिरफ्तारी क्यों ?.... यातना न देने व सुविधाएं देने के लिए वसूली होती है| अभिरक्षा में भी इन्हीं बातों के लिए वसूली होती है और खानपान पर खर्चे में भी कमिशन मिलता है| गिरफ्तारी व अभिरक्षा में जेल स्टाफ, पुलिस, न्यायाधीश, वकील और सरकारी वकील आदि सभी का हित निहित है| आपराधिक मामलों  में दोषसिद्धि तो मात्र 1.5% है किन्तु अभियोजन व अभिरक्षा की हिंसा  का न्यायिकेतर (Extra Judicial Punishment) दंड गिरफ्तार सभी कमजोर व्यक्तियों को झेलना पडता  है|  
  5. भारत में केंद्र अथवा राज्यों द्वारा न्यायाधीशों के पदों के लिए कोई नीति घोषित नहीं है| मामलों के निपटान में लगने वाला उ. न्या. द्वारा निर्धारित समय ---मूल मामले में 3 दिन, रिविजन में 1/10 दिन है ...फिर भी दोनों में समान विलम्ब से   5-7  साल में निर्णय हो पाता है| बिहार में एक अधीनस्थ न्यायाधीश वर्ष में औसत 284 मामले निपटता है जबकि केरल में 2575 राज में 1286 | मद्रास उच्च न्यायालय में न्यायाधीश वर्ष में औसत 5005 मामले निपटता है जबकि  दिल्ली में 1258  राज में 2656 | दूसरी ओर समस्त भारत में लागू मौलिक कानून- संविधान, दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता, साक्ष्य विधि, सिविल संहिता एक हैं फिर भी कानून की मनमानी व्याख्या और स्वयं के लिए सुहावनी प्रक्रियाएं अपनाकर भिन्न भिन्न परिणाम दे रहे हैं| यह स्थिति न्यायपालिका के अनियंत्रित और स्वछन्द होने के अशुभ संकेत देती है|
  6. विदेशों में जन प्रतिनिधियों, पुलिस, न्यायाधीशों और न्यायिक कर्मचारियों तक के लिए आचार संहिताएं बनी हुई हैं और उनका जांच में सहयोग न करना अर्थात स्वयं के मामले में झूठ बोलना भी एक दंडनीय दुराचरण माना गया है| अमेरिका में पूर्ण कालिक न्यायाधीश 8 वर्ष और अंशकालिक न्यायाधीश 4 वर्ष के लिए नियुक्त होते हैं जबकि भारत में सरकार तो गिराई जा सकती किन्तु  जैसा कि अरुण जेटली ने कहा था न्यायाधीश को नहीं हटाया जा सकता|
  7. विधायिका एवं कार्यपालिका पर नियंत्रण है  किन्तु न्यायपालिका पर नियंत्रण का भारत में संसदीय लोकतंत्र में भी अभाव, न्यायपालिका किसी के प्रति भी जवाबदेह नहीं है जबकि इंग्लॅण्ड, अमेरिका (न्यायिक लोकतंत्र) में  स्वतंत्र न्यायिक आयोग हैं जो न्यायपालिका पर नियंत्रण रखते हैं| अमेरिका में न्यायालयों के निष्पादन पर सरकार  निजी एजेंसी  से सर्वे करवाती है| भारत में जागरण द्वारा 3 वर्ष पूर्व करवाए गए सर्वे में 74% ने माना था कि न्यायपालिका भ्रष्ट है |
  8. अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका में न्यायिक कार्यवाही की ऑडियो रिकार्डिंग 1961 से ही होती है ताकि कार्यवाही का सही एवं सत्य रिकार्ड रहे , भारत में तो जो पक्षकार (लोक अभियोजक) उपस्थित नहीं होते उनकी भी झूठी उपस्थिति दिखा दी जाती है| न्यायाधीश घंटों देरी से आते हैं और आनन फानन में सुनवाई करते हैं.. दो-दो मामलों में एक साथ बहस सुनली जाती, साथ में अथवा न्यायाधीश की अनुपस्थिति में भी गवाहों के बयान होते रहते हैं| विरोध का मानस बनाने  वाले वकीलों को डर रहता है कि उनके मामलों में स्वेच्छाचारी आदेश पारित कर दिए जायेंगे जिनका कोई उपचार नहीं होगा|
  9. भारत में न्यायिक वातावरण ऐसा है जिसमें कोई भी प्रतिभाशाली गरिमामयी व्यक्ति कार्य करना पसंद नहीं करेगा| विधि संकाय की प्रतिभाएं कोर्पोरेट क्षेत्र की ओर पलायन कर रही हैं| मध्य प्रदेश  में 3000 में से एक भी वकील  ऐ डी जे परीक्षा पास नहीं कर सका ... 6 करोड़ की आबादी वाले राज. में एक भी विधि शोध सहायक लिखित परीक्षा उत्तीर्ण नहीं.आखिर साक्षात्कार से भर्ती की गयी| हरियाणा एवं उ प्र की स्थिति भी समान ही है|
अमेरिका में मिसिसिपी राज्य में न्यायाधीश डीयरमेन को मात्र अन्य न्यायधीश द्वारा पूर्व में निर्णित मामले में ( गलती से) सिफारिश पर भी दण्डित कर दिया गया था|  वहीँ न्यायाधीश कुक ने नियमों के अनुसरण में अपनी सम्पतियों का ब्यौरा निर्धारित समय सीमा दिनांक 09.07.2010 के स्थान पर दिनांक 18.11.10 को प्रस्तुत किया था| अभियुक्त न्यायाधीश कुक ने यह बचाव लिया कि इस दौरान उसकी माँ कैंसर से पीड़ित थीं और अंततः उनका देहावसान भी हो गया था अतः वह समय पर ब्यौरा प्रस्तुत नहीं कर सका| फिर भी न्यायिक आयोग ने यह शिकायत प्रस्तुत की और अनुशंसा की कि न्यायाधीश कुक पर 132 दिन की चूक के लिए 6600 डॉलर अर्थदंड और 332.5 डॉलर खर्चा लगाया जाना चाहिए| न्यायिक अधिकारियों को विलम्ब व अव्यवस्था के लिए भी दण्डित किया जाता है| अमेरिका में जिला न्यायाधीशों को लगभग 25000डॉलर वार्षिक भुगतान किया जाता है और वहाँ उचित (न्यूनतम) मजदूरी 15000 डॉलर वार्षिक है| संचार, परिवहन आदि विभिन्न क्षेत्रों में विदेशी तकनीक और प्रक्रियाएं अपनाई जा रही हैं तो न्यायिक क्षेत्र में ऐसी तकनीक क्यों नहीं अपनाई जा सकती ...

1 comment:

  1. Excellent. It is open fact that indian judicial system is nearly dead, and probably, the worst in the world. We do not practise what we preach, and to lie in court is defacto a fundamental right of all citzens (read lawyers) who are never afraid to abuse the process of law for petty gains. This is universally known but will it change? Not before India is outsourced in toto I suppose.

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