Saturday 31 March 2012

क्या हमें न्याय मिलेगा ?


भारत में ब्रिटिश सरकार ने इस मंशा से कानून बनाये थे कि उसके कार्यों में गोपनीयता बनी रहे और उसके कर्मचारी किसी भी प्रकार के भय और दंड से निरापद बने रहें तथा सरकारी खजाना निर्बाध रूप से भरता रहे| शायद स्वतंत्रता के बाद भी देश में यही नीति अनुसरण की जा रही है| स्वतंत्र भारत के इतिहास में सूचना का अधिकार अधिनियम पहला ऐसा कानून है जिससे यह संकेत मिलता है कि  देश अब स्वतंत्र है| यद्यपि इस कानून का भी गहराई से अवलोकन करें और अमेरिका जैसे देशों के सम्बंधित कानून से तुलना करें तो  हमारा यह कानून भी बौना दिखाई देता है|

उच्चतम न्यायालय देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था है, बार काउन्सिल ऑफ इंडिया देश के विधि व्यवसाय पर नियंत्रण रखने वाली सर्वोच्च संस्था है और भारत के अटॉर्नी जनरल देश के सर्वोच्च विधि अधिकारी हैं|ये तीनों निकाय देश में न्यायिक ढांचे की नींव हैं जिनके पुख्तापन पर देश के न्यायिक ढांचे की मजबूती निर्भर करती है| इसके अतिरिक्त इन संस्थाओं के पदाधिकारियों से विधि का विशेष ज्ञान रखने की भी अपेक्षा की जाती है| देश की जनता आशा करती है कि ये संस्थान अपने कार्यों का निष्पादन जनहित के अनुकूल करें और इसमें ऐसा कुछ भी नहीं हो जिसे जनता से गुप्त रखा जाय| देश के उच्चतम न्यायालय ने क्रान्ति एण्ड एसोसिएट्स बनाम मसूद अहमद खान की अपील सं0 2042/8 में कहा भी है कि इस बात में संदेह नहीं है कि पारदर्शिता न्यायिक शक्तियों के दुरूपयोग पर नियंत्रण है। निर्णय लेने में पारदर्शिता न केवल न्यायाधीशों तथा निर्णय लेने वालों को गलतियों से दूर करती है बल्कि उन्हें विस्तृत संवीक्षा के अधीन करती है।

सूचना का अधिकार कानून बड़ा स्पष्ट है कि यह लोक प्राधिकारियों पर लागू होता है और लोक प्राधिकारी शब्द को कानून में परिभाषित भी कर रखा है | किन्तु विडम्बना यह है देश के तत्कालीन मुख्य न्यायाधिपति माननीय श्री के जी बालाकृष्णन  ने अपने कार्यालय को सूचना के अधिकार कानून के दायरे से बाहर होने का दावा किया| ठीक इसी प्रकार केन्द्रीय सूचना आयोग के समक्ष एक मामले में बार काउन्सिल ऑफ इंडिया ने भी अपने आपको सूचना के अधिकार कानून के दायरे से बाहर होने का दावा किया| अंततोगत्वा इन्हें दायरे में मान लिया गया| भारत के अटॉर्नी जनरल ने अभी तक सूचना का अधिकार कानून के प्रावधानों की अनुपालना नहीं की है और स्वयं को सूचना के अधिकार कानून के दायरे से बाहर होने का दावा करते हैं| यह मामला भी केन्द्रीय सूचना आयोग के पास विचाराधीन है और दिनांक 11.04.12 को सुनवाई हेतु सूचीबद्ध है| अब जनता के सामने यह यक्ष प्रश्न उठता है कि जो पदाधिकारीगण जनता को अपने कार्यालय में उपलब्ध सूचना तक नहीं देना चाहते क्या उनसे जनता को न्याय प्राप्त हो सकेगा| इसके दूसरे संभावित पहलू पर विचार करें कि जिन लोगों को सूचना के अधिकार कानून  की जनतांत्रिक व्याख्या तक करनी नहीं आती क्या वे इन गरिमामयी पदों को धारण करने लायक हैं| और इस प्रकार के अहम वाले या वैकल्पिक रूप में ज्ञान के अभाव वाले व्यक्तियों के हाथों में लोकतंत्र कितना सुरक्षित हो सकता है यह अपने आप में एक ज्वलंत प्रश्न बन जाता है|

इंग्लॅण्ड के लोर्ड चांसलर के अनुसार न्यायपालिका में भले व्यक्तियों की आवश्यकता है और कानून का कुछ ज्ञान तो एक अतिरिक्त लाभ है (ए आई आर 1994 एस सी 268 - सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रिकोर्ड एसोसिअसन बनाम भारत संघ)| भारतीय परिपेक्ष्य में इस पर विचार करें कि क्या  इन ऊँचे पदों पर बैठे ये लोग वास्तव में भले हैं| माननीय श्री सौमित्र सेन ने वकील होते हुए कुछ दुराचरण किये थे किन्तु इन दुराचरणों की अनदेखी कर उनका नाम उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद के लिए अनुशंसित कर दिया गया| बाद में जब उक्त दुराचरण उजागर हुए तो उन पर महाभियोग चलाया गया किन्तु इस बात की कोई जांच नहीं की गयी कि एक दुराचारी को आखिर ऐसा गरिमामय पद किस प्रकार प्राप्त हो गया| यह सब इसलिए संभव हुआ कि  उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद के लिए होने वाले वाले चयनों को सरकार और न्यायालय दोनों ही गुप्त रख रहे हैं और शायद सत्ता की मजबूती बनाये रखना चाहते हैं|

भारतीय न्याय व्यवस्था के संबंध में एक अन्य दुखदायी पहलू बकाया मामलों का अम्बार है| इसके लिए भारतीय न्यायपालिका न्यायाधीशों की कमी को जिम्मेदार बताती है और अमेरिका जैसे देशों का उदाहरण देती है, जहां जनसंख्या के अनुपात में अधिक न्यायाधीश कार्यरत हैं| किन्तु यह भी गंभीर विषय है कि भारत में अभी तक न्यायाधीशों के पद सृजन के लिए कोई नीति तक तय नहीं है| दूसरा, अमरीका में न्यूनतम मजदूरी लगभग 15000 डॉलर प्रतिवर्ष है और जिला न्यायाधीशों को लगभग 25000 डॉलर प्रतिवर्ष वेतन दिया जाता है जबकि भारत जैसे गरीब देश में जहां न्यूनतम मजदूरी 5500 रूपये प्रति माह है वहीँ जिला न्यायाधीशों को रुपये 60000 से भी अधिक प्रति माह वेतन दिया जा रहा है| यदि भारत में भी न्यायाधीशों (और सभी  लोक सेवकों) को सुसंगत आनुपातिक वेतन दिया जाये तो इसी बजट में 6 गुणे न्यायाधीश लगाये जा सकते हैं|
अक्सर न्यायपालिका के समर्थक लोग तर्क देते हैं कि अच्छे वेतन से न्यायाधीशों की सभी जरूरतें पूरी हो सकेंगी और न्यायपलिका में भ्रष्टाचार नहीं होगा| किन्तु विचारणीय प्रश्न यह रह जाता है कि छठे वेतन आयोग में सभी कर्मचारियों के वेतन में लगभग 50% प्रतिशत वृद्धि हुई है और इसके बाद  भ्रष्टाचार में कितनी कमी आई है यह जनता अच्छी तरह जानती है| गत दो दशकों में हमारे जन प्रतिनिधियों के वेतन भत्तों में जिस गति से वृद्धि हुई है शायद उससे भी तेज गति से उनके स्तर पर भ्रष्टाचार में वृद्धि हुई है| हमारे आदर्श नीति ग्रन्थ महाभारत में कहा गया है कि प्रायः  भौतिक प्रगति और आध्यात्मिक प्रगति एक दूसरे के विपरीत होती है| जिस प्रकार जल की कमी होने पर उसके उपयोग में मितव्ययता बरती जाती है और पर्याप्तता होने पर उसका दुरूपयोग होता है वैसे ही उपभोग तो अपने आप में एक कुचक्र है जो उतरोतर नयी आवश्यकताओं को जन्म देता है अतः वर्तमान आवश्यकताओं के संतुष्ट होने पर नयी आवश्यकताएँ जन्म ले लेंगी| इस प्रकार वेतन में काफी बढ़ोतरी करके भी भ्रष्टाचार पर नियंत्रण नहीं पाया जा सकता| न्यायाधीश अपनी आवश्यकताओं को सीमित रख कर, और यदि वे भले व्यक्ति हैं तो संतोष से ही नैतिक रूप में  भ्रष्टाचार पर नियंत्रण पा सकते हैं|

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