Friday 30 March 2012

न्याय के बिना अधिकार की व्याख्या संभव नहीं


न्याय के बिना अधिकार की व्याख्या संभव नहीं
      ----सचिन कुमार जैन , मध्यप्रदेश

मंशा का सवाल सबसे बड़ा सवाल है। एक तरफ तो न्याय के लिए तंत्र और ढांचा नही है, और वहीँ दूसरी और हमारे न्यायिक तंत्र अपने विशेष अधिकारों के संरक्षण में लगे रहते हैं। भारत में वर्ष 2011 की स्थिति में 2.63 करोड़ मामले अदालतों में लंबित हैं, जिनके निराकरण में, यदि कोई नया मामला दाखिल न हो तो 24 वर्ष लगेंगे। और जिस तरह से मामले दर्ज हो रहे हैं, यदि वैसे ही होते रहे तो वर्ष 2030 में भारत की अदालतों में 24 करोड़ मामले लंबित होंगे। इसका मतलब यह है कि हमारी कार्यपालिका अपनी भूमिका निभाने में लगातार असक्षम होती जा रही है और अन्याय के साथ अधिकारों के हनन की प्रवृति  बढ़ रही है। फिर भी सरकार यह नहीं कहती कि हम एक निश्चित समय में एक सक्रिय और जवाबदेय ढांचा खड़ा कर देंगे ताकि लोगों को न्याय के लिए सालों तक इंतजार न करना पडे। उत्तर पूर्वी भारत के राज्यों-मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, त्रिपुरा जैसे राज्यों में अभी भी उच्च न्यायलय नहीं हैं। उन्हें गुवाहाटी उच्च न्यायालय तक का सफर तय करना पड़ता है।
जरा इस उदाहरण को देखिये. वर्ष 2006 में भारत सरकार ने आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के वनों पर अधिकार के लिए कानून बनाया।  इसके आधार वक्तव्य में लिखा गया कि सालों से आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय होता रहा है और सरकार इस कानून के जरिये उन्हें न्याय देना चाहती है। अब जरा इसके प्रावधान देखिये। वनों पर सामुदायिक हकों को हासिल करने के लिए गाँव के लोगों को यह दस्तावेजी प्रमाण देना होगा कि वे जंगल का उपयोग सांस्कृतिक, धार्मिक, जीवन यापन, आवाजाही, दैनिक उपयोग के लिए लघु वन उपज लेने या चराई के लिए करते रहे हैं। वर्ष 1950 के पहले ही भारत में जिला स्तरों पर सरकारी रिकार्ड रूम में हर एक गाँव के ऐसे दस्तावेज रखे गए हैं जिनमे हर गाँव के संसाधनों के उपयोग का विवरण दर्ज है। जिनके बारे में अब तो कई लोग जानते भी नहीं हैं। इन दस्तावेजों को बाज़िब-उल-अर्ज़ और निस्तार पत्रक कहा जाता है। आज के लाल-फीताशाही के जमाने में गाँव के लोग उन दस्तावेजों तक पंहुच पायेंगे यह असंभव है। परिणाम यह हुआ कि केवल 5 फीसदी मामलों में ही समुदाय जंगलों पर अपने सामुदायिक हकों के दावे कर पाया। अब यदि सरकार की मंशा जंगलों पर समुदाय को हक सौंपने की थी तो कानून में यह प्रावधान क्यों नहीं किया गया कि सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि हर ग्राम सभा और ग्राम वनाधिकार समिति को सरकार उपलब्ध दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध करवाएगी। प्रमाण उपलब्ध करवाना सरकार की जिम्मेदारी होगी, न कि उन लोगों कि जिनके साथ यह ऐतिहासिक अन्याय होता रहा है। यहाँ जब तक राज्य न्याय का चरित्र नही अपनाएगा, तब तक अधिकारों की हर बात बेमानी और बेकार है। सरकार लोगों पर लागू होने वाली अपनी सत्ता और ताकत को कम करने के लिए तैयार नहीं है।
ऐसा भी नहीं है कि सरकार ने किसी भी कानून के सन्दर्भ में इस तरह के कड़क ढाँचे बनाए ही नहीं हैं। जहाँ उसे अपनी को  सत्ता को मजबूत करना था, वहां ऐसे ढाँचे बनाए गए। बिजली का निजीकरण कर दिया गया. अब सरकार के बजाय कम्पनियाँ बिजली की कीमतें  बढ़ाती है। इसके लिए विद्युत नियामक आयोग बना दिए गए हैं, जो इन कीमतों को बढाने की अनुमति  देते हैं। ये आयोग सरकार की नहीं, कंपनियों के तर्क को प्राथमिकता देते हैं. परिणामस्वरुप हर साल बिजली की कीमतें 20 से 30 फीसदी बढती जा रही हैं। अब पानी का भी निजीकरण  हो रहा है और उसमे भी ढांचागत बदलाव लाये जा रहे हैं, अब गरीबों-झुग्गी बस्तियों को भी मुफ्त पानी नहीं मिलेगा. इसकी भी कीमतें बढती जाएँगी। जो कीमतें नहीं चुका पायेगा उसे बिजली और पानी का अधिकार नहीं मिलेगा। इन नियामक आयोगों को राज्य खूब ताकत देता है, ये तो हमारी संसदीय संस्थाओं से भी ऊपर हैं। इसका मतलब है कि नियमों-कानून का लागू होना, इस बात पर निर्भर करता है कि उनके क्रियान्वयन के लिए किस तरह की व्यवस्था बनाई गयी है, व्यवस्था बनी भी है या नहीं और उसके पीछे राज्य की मंशा क्या है?
समस्या यह नहीं है कि 42 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं कि यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है, समस्या यह है कि राज्य ने इस समस्या से निपटने के लिए कोई ठोस, जवाबदेय और संसाधनों से संपन्न कार्यक्रम नहीं बनाया है, हमारे पास जिम्मेदार लोगों का तंत्र नहीं है, नीतियां बनाने वालों और उन्हें क्रियान्वित करने वालों की कोई सुनियोजित व्यवस्था नहीं है, समस्या यह है कि यदि नौकरशाहों का तंत्र है, तो वह जवाबदेय और सक्षम नहीं है। समस्या यह है कि हमारे तंत्र में अच्छा काम करने वालों को पुरुस्कृत करने के बजाय दण्डित किया जाता है। भ्रष्टाचार को जिस तरह से कामकाज के एक तरीके के हिस्से के रूप में मान्यता दे दी गयी है, वह समस्या है। समस्या यह है कि राज्य को बहुत सारी शक्तियां दे दी गयी हैं, परन्तु उनके पास जो नजरिया है, वह उन्हे यह सिखाता है कि राज्य ही सर्वोपरि है, जो उसकी कमियों की बात करे उसे दबाव के जरिये निष्क्रिय कर दिया जाए। वह शक्तियों को जान लेता है और संविधान के उस अध्याय को बंद कर देता है, जिसमें जिम्मेदारियों और कर्तव्यों का उल्लेख होता है। यही कारण है कि कई बार हम राज्य को अपने काम में निरंकुश पाते हैं। अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए आज वह हर नीतिगत और अनीतिगत तरीकों को अपनाता है। हमें उन तरीकों का विश्लेषण करना होगा और लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ उनकी खिलाफत भी करना होगी। आन्दोलन और जनवकालत के बीच के अंतर-संबंधों को भी हमें समझना जरूरी है।
समाज के चरित्र में बदलाव के नजरिए से जन आन्दोलन उपजते हैं। वे कुछ खास परिस्थितियों में बदलाव लाने की पहल करते हैं। वे राजनीतिक और आर्थिक नजरिए से समस्या को देखते हैं, परन्तु आज वे कई दुविधाओं में फंसे हुए हैं। वे तय नहीं कर पा रहे हैं कि यदि व्यवस्था के अन्याय आधारित चरित्र ही संकट का कारण है तो इस व्यवस्था को कैसे बदला जाए। यह व्यवस्था तो लोकतांत्रिक औजारों से ही बदली जा सकती है। हम इस बदलाव को राजनीतिक मानते हैं, परन्तु  सक्रिय  चुनावी राजनीति में दखल नहीं देना चाहते हैं। वे आज केवल सरकार द्वारा खडे किये जा रहे सवालों के जवाब देने में फंस रहे हैं, जबकि जरूरत इस बात की है कि हम सरकार को जवाब देने के लिए मजबूर करें। जिस तरह से सरकार ने समाज को सुविधाओं और सेवाओं के जरिये अलग-अलग भागों में बाँट दिया है, उससे जन आन्दोलन कमजोर हुए हैं।
1997 से पहले राशन की दूकान से सभी को राशन मिलता था, 1997 में सरकार ने नीति बनायी कि अब गरीबी की रेखा खींची जायेगी और जो इसके नीचे होगा, उसे ही सस्ता राशन मिलेगा। इस रेखा के जरिये सरकार ने 64 फीसदी लोगों को राशन की व्यवस्था से बाहर कर दिया। और आज आज जब राशन व्यवस्था में ढांचागत बदलाव के लिए लड़ाई लड़ी जा रही है, तब हमारा माध्यम वर्ग और वह वर्ग जिसे गरीबी की रेखा के नाम पर राशन के दायरे से बाहर कर दिया गया है, वह यह सोच कर लड़ाई से बाहर हो जाता है कि इससे उसका तो लेना-देना ही नहीं है। और जो इसके दायरे में हैं वे सामाजिक और आर्थिक रूप से इतने वंचित हैं कि वे सब कुछ छोड़ कर इस लड़ाई में खड़े ही नहीं हो पा रहे हैं। इस तरह से सामाजिक-राजनीति-आर्थिक अधिकारों की लड़ाई को राज्य कमजोर कर देता है। पिछले 20 वर्षों में हमने देखा कि किसान और मजदूर मिल कर एक ताकत बनते हैं, परन्तु नीतियों के जरिये उनके बीच में भेद खड़ा कर दिया गया। एक तरफ तो खेती पर से रियायत बहुत कम कर दी गयी और उत्पादन का लागत मूल्य बढ़ता गया। ऐसे में राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून के जरिये अकुशल मजदूरों, जो कि खेतिहर मजदूर के रूप में भी काम करते हैं, के लिए मजदूरी की दर को बढ़ाया जाने लगा। भारत में उपजाए जाने वाले उत्पादों को सरकार ने सही मूल्य नहीं दिलवाया और दूसरे देशों से (जहाँ किसानों को खूब रियायत मिलती है) से सस्ते उत्पाद मँगा कर देश के बाजार में खपाए जाने दिए गए। स्थानीय किसान को अपने उत्पाद के लिए बाजार नहीं मिला और वह बदहाली की स्थिति में पंहुच गया। परिणाम यह हुआ कि किसान (भारत में 77 प्रतिशत किसान छोटे और मझौले किसान हैं जिनकी जोत 2 हेक्टेयर से कम है) के लिए खेती से ज्यादा सरल काम आत्महत्या करना हो गया। इसी तरह देश के शहरीकरण ने समाज को गाँव के मुद्दों और नीतिगत समस्याओं से बहुत दूर कर दिया। गाँव में स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा व्यवस्था की बदहाली से लेकर विकास परियोजनाओं के कारण होने वाले विस्थापन के संकटों में शहरी समाज साथ खडे होने तो तैयार नहीं दीखता। इन सब स्थितियों में जनसंघर्ष की संभावनाएं कमजोर हुई। यदि हम जन वकालत और जनसंघर्ष के बीच के महीन अंतर हो देखें तो हमें पता चलता है कि आन्दोलन का मतलब मुद्दों को उभार कर राज्य के तंत्रों के सामने लाना है, जिसमें जनवकालत तथ्यात्मक समझ बनाने के साथ परिस्थिति का विश्लेषण करने और आन्दोलन की ताकत को मजबूत करने की भूमिका निभाती है। ये दोनों ही समस्या को हल करने का काम नहीं करते, बल्कि समाज और राज्य को उसके हल के लिए प्रेरित करने का काम करते हैं।
वकालत किसी एक मुद्दे यह एक दूसरे से जुडे हुए मुद्दों के सन्दर्भ में बदलाव लाने के नजरिए से चलाई जाने वाली प्रक्रिया है। जब हम एक उदाहरण या एक प्रकरण या एक घटना पर काम करते हैं तब हमारे तीन मकसद होते हैं -
1.         जो व्यक्ति, लोग, समुदाय प्रभावित हैं, उन्हें न्याय के साथ हक मिलें,
2.         जो अन्याय के लिए जिम्मेदार हैं उन्हे सजा मिले और जवाबदेहिता तय हो, ताकि भविष्य में हकों के हनन ना करें,
3.         इसके आधार पर व्यवस्था में जो कमजोरी है उसे दूर किया जाए ताकि अन्याय उस व्यवस्था का चरित्र न बने,
अंत में - हमें खुद इस मामले में स्पष्ट होना होगा कि न्याय के बिना अधिकार की व्याख्या संभव नहीं है। न्याय केवल अदालत तक सीमित नहीं हो सकता है, इसे समाज, सरकार और व्यवस्था के हर हिस्से में होना चाहिए। महज कानून और नीतियां बन जाने से व्यवस्था और परिस्थितियों में बदलाव नहीं आता है, इसके लिए प्रशासनिक, आर्थिक, अधौसंरचनात्मक ढांचा (यानी इमारतें, मशीनें, सड़कें, नल और शौचालय आदि), जवाबदेय शिकायत निवारण तंत्र, जो समयबद्ध तरीके से काम करे, दंड, सजा, प्रोत्साहन और पुरूस्कार ले प्रावधान होना जरूरी है।  कुल मिला कर हमें ढाँचे और तंत्र के मूल्य और मानक तय करने होंगे और सरकार तो सुनिश्चित करना होगा कि वह उनका पालन करे।

2 comments:

  1. simply put -the politicians do not want any such thing that will obstruct and stop their corrupt practices and arbitrary acts. since such is allowed to politicians , the judiciary also has usurped such arbitrary power. the law makers can not say any thing because they them selves have done that. Constitution of India no where provides arbitray powers even to SC judges but we see every day their arbitrary judgements despite avaiable specific law for that case.

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  2. सटीक लिखा है.धन्यवाद

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