Thursday 29 March 2012

जिम्मेदारी का अभाव और सत्ता पर मज़बूत पकड़


जिम्मेदारी का अभाव और सत्ता पर मज़बूत पकड़
      ----सचिन कुमार जैन , मध्यप्रदेश

मध्यप्रदेश, वह राज्य जिसके 60 लाख बच्चे कुपोषण से लड़ाई लड़ रहे हैं। बच्चे कुपोषण से यह लड़ाई जीत नहीं पा रहे हैं क्योंकि राज्य इस लड़ाई में पूरी तरह से उनके साथ नहीं खड़ा है। यह लड़ाई सबसे पहले राज्य की  लड़ाई है, क्योंकि वह हमारी और हर  बच्चे की संवैधानिक पालक है।  हमारे यहाँ इस समस्या के निपटने के लिए सन 1975 में  एकीकृत बाल विकास परियोजना कार्यक्रम (आईसीडीएस) बनाया और लागू किया गया। 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों, जो की कुपोषण के सबसे ज्यादा शिकार होते हैं, के लिए एक समग्र कार्यक्रम है। परन्तु यह कुपोषण को मिटा न पाया! 37 साल बाद भी कुपोषण का राक्षस वहीँ का वहीँ खड़ा हुआ है और लील रहा है बचपन को। सवाल यह है की आखिर क्यों इतना महत्वाकांक्षी कार्यक्रम कुपोषण की स्थिति में उल्लेखनीय बदलाव नहीं ला पाया? इस कार्यक्रम के तहत एक आंगनवाडी केंद्र चलाया जाता है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश हैं कि  गाँव और हर बसाहट में इस तरह के केंद्र होना चाहिए और कोई भी बच्चा इसकी सेवाओं से बाहर नहीं होना चाहिए। इस कार्यक्रम के तहत 6 सेवाएँ, बहुत ही संवेदनशील सेवाएँ प्रदान किये जाने की व्यवस्था हैं, कम से कम कागज पर। इन सेवाओं के तहत बच्चों के विकास और वृद्धि की निगरानी करना, उन्हें पोषण आहार देना, गर्भवती, धात्री महिलाओं और किशोरी बालिकाओं को स्वास्थ्य और पोषण शिक्षा देना, टीकाकरण करवाना, बच्चों को स्कूल पूर्व शिक्षा देना, गंभीर बीमारी की स्थिति में बच्चों-महिलाओं को अस्पताल भेजने की व्यवस्था करवाने जैसे काम शामिल हैं। इस आंगनवाडी केंद्र में 6 वर्ष से कम उम्र के औसतन 40 बच्चे आते हैं, जिनकी देखभाल की जिम्मेदारी एक आँगनवाड़ी कार्यकर्ता और एक आँगनवाड़ी सहायिका पर है, जिन्हें गाँव के समुदाय से ही चुना जाता है। उन्हें 6 रजिस्टरों में जानकारियाँ भी दर्ज करना होती है।  अब जरा इस सन्दर्भ में अपने मन में सोचिये कि क्या ये दो कार्यकर्ता इन जिम्मेदारियों को निभा सकती हैं? अदालत ने कह दिया कि इस कार्यक्रम का गुणवत्तापूर्ण लोकव्यापीकरण करो, सरकार में और बच्चों को केंद्र में भर्ती करना शुरू कर दिया पर एक आँगनवाड़ी पर कार्यकर्ताओं की संख्या तो बढ़ाई ही नहीं! 
भारत में वर्ष 1991 में यह तय हुआ था कि आईसीडीएस के तहत एक बच्चे के पोषण आहार के लिए एक रूपए प्रतिदिन  के बजट का प्रावधान किया जायेगा, परन्तु वास्तव में 47 पैसे का ही प्रावधान किया गया, या दूसरे नजरिए से  देखें तो 47 प्रतिशत बच्चों को ही इस कार्यक्रम में शामिल किया गया। गाँव में जब साल में छह माह पोषण आहार नहीं मिलता है और समुदाय शिकायत करता है तो हमारी नौकरशाही यह नहीं बताती कि आवंटन ही कम होता है इसलिए आधे साल बच्चे भूखे रहते हैं, बल्कि वह आंगनवाडी कार्यकर्ता के खिलाफ ही कार्यवाही कर देती है, ताकि राज्य की सत्ता बनी रहे। वह आंगनवाडी कार्यकर्ता अपने न्याय और हक की लड़ाई कहाँ लड़े उसके लिए कोई तंत्र नहीं है।  बात यह भी है कि 1991 में हुए बजट प्रावधान को अगले 15 सालों तक बदला ही नहीं गया। यह एक रूपए ही रहा। वर्ष 2005 में इसे बढ़ा कर दो रूपए किया गया। एक तरफ तो सरकार इसे राष्ट्रीय शर्म कहती है वहीँ दूसरी और इस संकट को खत्म करने के लिए इतना कम बजट, जिससे बाजार में एक चाय भी नहीं खरीदी जा सकती है, रखा जाता है। आज वर्ष 2012 में एक बच्चे के पोषण आहार के लिए 4 रूपए प्रतिदिन का प्रावधान है, आज भी यह वास्तविक जरूरत का आधा ही है। सबसे तेजी से बढती अर्थव्यवस्था कहे जाने वाले भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे निवास करते हैं और उनके लिए पूरे बजट का एक फीसदी से कम का हिस्सा दिया जाता है। यह 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की संख्या भारत की आबादी का 14 प्रतिशत है। यह कार्यक्रम अपने पूरे जीवनकाल में भ्रष्टाचार के जाल में फंसा रहा। इस पूरे तंत्र में कहीं पर भी शिकायत दर्ज करने, निष्पक्ष जांच करने, उस पर तत्काल कार्यवाही  करने, जिम्मेदार को दंड देने और बच्चों-महिलाओं के हकों को सुरक्षित रखने के लिए कोई ढांचा ही नहीं तैयार किया गया है। जब भी कोई शिकायत आती है तो राज्य सरकार उन्ही कलेक्टर और जिला कार्यक्रम अधिकारी से शिकायत की जांच करवाती है, जो कि वास्तव में कार्यक्रम के क्रियान्वयन की एजेंसियां हैं और एक तरह से लापरवाही और भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार हैं। क्या आरोपी से ही अपराध की जाँच करवाना एक सही व्यवस्था है? हमारे यहाँ राज्य और केंद्र सरकार के स्तर पर बाल अधिकार संरक्षण आयोग बने हुए हैं। पहले पहल तो वे भी सक्रीय नहीं होते हैं। और यदि उनमे से कोई अपनी जिम्मेदारी निभाना शुरू करते हैं, तो पता चलता है कि उन्हें तो केवल अनुशंसा करने का ही अधिकार है, यह जरूरी नहीं कि क्रियान्वयन एजेंसी उनकी अनुशंसाओं को माने या उन्हें लागू करे ही। हमारे यहाँ राज्य के क्रियान्वयन वाले हिस्से बहुत ताकतवर हैं। उनकी शक्तियां असीमित और निरंकुश हैं। सरकार भी इसे ज्यों का त्यों बनाए रखना चाहती है, शायद इसीलिए वह कभी भी यह नहीं कहती कि गैर-जवाबदेहिता, लापरवाही और भ्रष्टाचार अक्षम्य अपराध हैं और उन पर निष्पक्ष-समयबद्ध और न्याय परक कार्यवाही की जा सके, इसके लिए ढांचागत व्यवस्था बनायी जायेगी। हमारा राज्य न्याय और हकों के संरक्षण के लिए अभी भी प्रतिबद्ध नजर नहीं आताय ऐसे में बच्चे भी तो भूखे ही रहेंगे।  बच्चों की भुखमरी भोजन की कमी का परिमाण नहीं है, यह व्यवस्था और राज्य के गैर-जवाबदेय, भ्रष्ट, लापरवाह और क्षमताहीन होने का परिणाम है।

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