Wednesday 14 March 2012

पूर्ण न्याय देने में संकोच कैसा

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प्रतिष्ठा में,
माननीय श्री ऐ एस ओका
न्यायाधिपति,
व माननीय श्री ऐ वी पोतदार,
न्यायाधिपति,
बम्बई उच्च न्यायालय,
फोर्ट, मुंबई 400032

मान्यवर,
विषय : दाण्डिक रिट याचिका  संख्या  1666-10 -सुश्री वीणा सिप्पी बनाम नारायण दुम्ब्रे आदि

पुलिस द्वारा अवैध हिरासत एवं गिरफ्तारी के उक्त प्रकरण में आपके निर्णय दिनांक 05.03.2012  के लिए मैं आप द्वय को धन्यवाद देता हूँ| महिला याचिकाकर्त्री सुश्री वीणा सिप्पी भी इस साहसिक कार्य के लिए धन्यवाद की पात्र है जिसने महाराष्ट्र पुलिस जैसे संगठन से मुकाबला किया है| मीडिया व महिला जगत में आपके उक्त निर्णय की बड़ी सराहना हो रही है किन्तु इस प्रसंग में मेरा विचार किंचित भिन्न है|

माननीय न्यायालय के उक्त निर्णय का सम्मान करते हुए मेरे विचार इस प्रकार हैं:
1.                 माननीय न्यायालय ने प्रासंगिक प्रकरण में निर्णय प्रसारित करते हुए अन्य बातों  के साथ साथ कहा है कि मामले की परिस्थितियों को देखते हुए याचिकाकर्त्री को 250000रुपये क्षतिपूर्ति जिस दिन उसे अवैध रूप से गिरफ्तार किया गया अर्थात दिनांक 05.04.2008 से 8% वार्षिक ब्याज सहित आंकना उचित समझते हैं| राज्य सरकार इस क्षतिपूर्ति का भुगतान करेगी| याचिकाकर्त्री इस न्यायालय में कम से कम 22 बार उपस्थित हुई जिसके लिए हम 25000रुपये खर्चे के दिलाना उपयुक्त समझते हैं| राज्य सरकार इस क्षतिपूर्ति और खर्चे की, दोषी अधिकारियों का दायित्व निर्धारित करने के पश्चात, उनसे वसूली करने को स्वतंत्र है|
2.                 माननीय सुप्रीम कोर्ट ने रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा (AIR 2002 SC 1771)   के मामले में कहा है कि कानून को समाज का अनुसरण करना चाहिए न कि उसका त्याग| अतः न्यायालय का यह भी कर्तव्य है कि वह समाज के वास्तविक धरातल को ध्यान रखे| मेरा निवेदन है कि स्वतंत्र भारत में मुद्रा स्फीति की औसत वार्षिक चक्रवृद्धि दर 8% से अधिक आती है और इतना ब्याज तो वास्तव में शून्य हो जाता है| गत वर्षों की मुद्रा स्फीति की दर तो 10% से अधिक चल रही है अतः 8% ब्याज देने से तो लाभार्थी को ऋणात्मक ब्याज मिलेगा और उसे हानि ही होगी| अतः माननीय न्यायालय को किसी भी मामले में ब्याज देते समय इस तथ्य को ध्यान रखना चाहिए कि पीड़ित पक्ष को हुई हानि की ब्याज से पूर्ति अवश्य हो|
3.                 प्रकरण के विचारण के दौरान माननीय न्यायालय ने यह भी पाया है कि याचिकाकर्त्री को पुलिस ने अवैध रूप से गिरफ्तार कर पुलिस लोक अप में डाल दिया और उस पर बम्बई पुलिस अधिनयम, 1959 की  धारा 117 सहपठित 112 के आरोप मिथ्या रूप से गढ़ दिए गए| यही नहीं याचिकाकर्त्री की गिरफ्तारी का कोई पंचनामा तक तैयार नहीं किया गया और न ही उसकी 90 वर्षीय वृद्ध और बीमार माता को कोई सूचना दी गयी किन्तु इन सभी अभियोगों से बचाव के लिए पुलिस ने फिर कुछ फर्जी दस्तावेज गढे हैं और महत्वपूर्ण तथ्यों को छुपाया भी है|
4.                 यह है कि माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय ने अवैध गिरफ्तारी के समान प्रकरण संजीव कुमार सिंह बनाम दिल्ली राज्य के निर्णय दिनांक 25.02.2008 में सम्पूर्ण घटनाक्रम की सी बी आई जांच करवाने और दोषी अधिकारियों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही के अतिरिक्त आदेश दिए थे| माननीय न्यायालय का भी यह पुनीत कर्तव्य है कि वह पूर्ण न्याय के लिए दोषियों के प्रति कोई उदारता और नरमी नहीं बरते|
5.                 याचिकाकर्त्री ने यह भी कहा है कि उसने मजिस्ट्रेट को निवेदन कर दिया था कि उसे झूठा फंसाया गया है और उसे 700रुपये के निजी मुचलके पर रिहा किया गया| उसने यह भी स्पष्ट आरोप लगाया है कि उसे माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा डी के बासु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के मामले में दिए गए निर्देशों के सरासर उल्लंघन में गिरफ्तार किया गया| उसके अनुसार संविधान के अनुच्छेद 2122 द्वारा प्रदत उसके अधिकारों का उल्लंघन हुआ है और उसे अवैध रूप से हिरासत में रखा गया| उक्त के परिणाम स्वरुप उसे शारीरिक, मानसिक और आर्थिक पीड़ा हुई है| याचिकाकर्त्री महिला को 40व्यक्तियों के साथ  एक पुलिस लोक अप में अमानवीय दशा में एक रात बितानी पड़ी | याचिकाकर्त्री का यह भी कहना है कि लोक अप में ताज़ा हवा का अभाव था अतः उसका दम घुटता रहा| इस आरोप का प्रत्यर्थी गण ने भी कोई विरोध नहीं किया|
6.                 माननीय सुप्रीम कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ओन रिकोर्ड एसोसिएसन (AIR 1994 SC 268)  के मामले में कहा है कि ऊपरी स्तर के न्यायालयों के लिए, अन्तर्निहित सीमाओं के अध्यधीन, आकाश के नीचे कोई भी प्रकरण न्यायिक समीक्षा के लिए खुला है| माननीय न्यायालय को यह भी स्मरण में रहना चाहिए कि संवैधानिक न्यायालय के लिए पूर्ण और वास्तविक न्याय देने हेतु संविधान ही सीमा है, यदि न्याय देने में  विधायिका का कोई अन्य कानून अपूर्ण हो अथवा किसी सुसंगत कानून का अभाव हो तो भी संवैधानिक न्यायालय पूर्ण न्याय दे सकते हैं| कानून और न्याय प्रदानगी निकाय का उद्देश्य यह है कि पीड़ित पक्षकार को समुचित राहत मिले और पीडक पक्षकार को उचित दंड मिले ताकि अन्य लोग भविष्य में वैसा दंडनीय कृत्य करने से दूर रहें|
7.                 माननीय सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो बनाम अनुपम कुलकर्णी (1992 AIR 1768) के मामले में कहा है कि कानून पुलिस हिरासत के पक्ष में नहीं है| राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने भी अपनी तीसरी रिपोर्ट में कहा है कि देश में 60% गिरफ्तारियाँ अनावश्यक होती हैं जिन पर जेलों में अनावश्यक 43.2% खर्चा होता है| माननीय न्यायालय ने जोगिन्दर कुमार बनाम उत्तरप्रदेश राज्य(AIR 1994 SC 1349) के मामले में भी स्पष्ट शब्दों में कहा है कि जघन्य अपराध के अतिरिक्त गिरफ्तारी को टाला जाना चाहिए| भारत के विधि आयोग की  एक सौ बहत्तरवीं रिपोर्ट दिनांक 14 दिसम्बर 2001 में कहा गया है, गिरफ्तार करने की शक्ति पुलिस द्वारा उद्दापन और भ्रष्टाचार का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है .... जहाँ तक बहुसंख्य अपराधियों का प्रश्न है (हत्या , डकैती , लूटपाट , और राज्य के विरुद्ध अपराध आदि को छोड़ते  हुए) वे गायब होने वाले नहीं हैं| उपरोक्त से स्पष्ट है कि जघन्य अपराध, जिनकी अन्वीक्षा सत्र न्यायाधीश द्वारा की जाती है, के अतिरिक्त सामान्यतया गिरफ्तारी नहीं की जानी  चाहिए| संविधान के अनुछेद 141 के आलोक में सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित उक्त निर्णय कानून का प्रभाव रखता है| माननीय न्यायालय ने जोगिन्दर कुमार बनाम उत्तरप्रदेश राज्य के मामले के निर्णय के पैरा 27 में  स्पष्ट शब्दों में कहा है कि जिस मजिस्ट्रेट के सामने गिरफ्तार व्यक्ति को पेश किया जाए उसका यह कर्तव्य होगा कि इन अनुदेशों की पालना से वह संतुष्ट हो|
8.                 यह है कि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक व्यक्ति के जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण अधिकार है और इसे ध्यान में रखते हुए इन्दर मोहन गोस्वामी बनाम उत्तरांचल राज्य के मामले के निर्णय दिनांक 09.10.2007 में कहा है कि मजिस्ट्रेटों को गिरफतारी वारंट जारी करने का विकल्प अंतिम उपचार के रूप में ही प्रयोग किया जाना चाहिए| गिरफ्तार करने का उद्देश्य अभियुक्त का न्यायिक प्रक्रिया से बचना रोकना है और जब व्यक्ति स्वयम पुलिस थाने में उपस्थित हो तो ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती| अतः दी गयी परिस्थितियों में याचिकाकर्त्री की गिरफ्तारी प्रथम दृष्टया ही अवैध है|
9.                 यह है कि जो गिरफ्तारी अनावश्यक, व सुप्रीम कोर्ट के अनुदेशों के उल्लंघन में हो कानून उसका समर्थन नहीं करता और ऐसा कृत्य स्पष्टतया  भारतीय दंड संहिता की धारा 342 (सदोष परिरोध) की परिधि में अपराध है| जहां तक  पुलिस अधिकारियों ने  याचिकाकर्त्री पर दुर्व्यवहार और गाली गलोज के आरोप लगाये हैं तो यदि यह सत्य हो तो भी पुलिस के कर्तव्यहीन आचरण ने ही उसे इस सीमा तक उतेजित किया है और  पुलिस संवर्ग अपने वरिष्ठ अधिकारियों और प्रभावी राजनेताओं से ऐसा व्यवहार अक्सर पाता है किन्तु एक भी मामलें में वे उनके विरुद्ध कोई अपराध दर्ज नहीं करते| आखिर क्यों..?
10.             यह है कि भारत संयुक्त राष्ट्र संघ (संक्षेप में संघ) का सदस्य है और मानवाधिकार संरक्षण के विषय में संघ द्वारा बनाये गए कानून भी संविधान के अनुच्छेद 2122 के अलोक में विधि का बल रखते हैं| जिस प्रकार किसी विधिक प्रावधान के अभाव में भी माननीय न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 21 22 की जनतांत्रिक व्याख्या कर क्षतिपूर्ति का आदेश दिया है ठीक उसी प्रकार मानवाधिकारों की रक्षा के लिए माननीय न्यायालय पुलिस को भी मानवाधिकार संरक्षण के लिए समुचित आदेश प्रदान कर सकता है|
11.             यह है कि मूल अधिकार मात्र नागरिकों को ही उपलब्ध हैं जबकि मानवाधिकार मनुष्य के रूप में जन्म लेने मात्र से उपलब्ध हैं और उनका स्थान मूल अधिकारों से ऊपर है| मानवाधिकार अंतर्राष्ट्रीय संधियों से प्राप्त हैं और उनकी मांग करने के लिए विधायिका के किसी औपचारिक कानून की अनिवार्यता नहीं है बल्कि वे संविधान के अंतर्गत स्वतः ही उपलब्ध हैं|
12.             यह है कि संघ ने हिरासती व्यक्तियों के उपचार हेतु न्यूनतम मानक नियम बना रखे हैं| उक्त का नियम 9 (1) यह प्रावधान करता है कि एक कमरे या सेल में एक से अधिक व्यक्ति नहीं रखे जायेंगे| नियम 10 यह प्रावधान करता है कि शयन व्यवस्था इस प्रकार होगी कि वह स्वास्थ्य, मौसम, घन फीट हवा तत्व, न्यूनतम स्थान, रोशनी, (सर्दी के मौसम में) ताप और रोशनदान आदि का पूर्ण ध्यान रखे| जहाँ हिरासती व्यक्ति रहते अथवा कार्य करते हों वहाँ खिडकियां इतनी बड़ी व इस प्रकार से होंगी कि हिरासती व्यक्ति प्राकृतिक रोशनी में पढ़ सकें और चाहे कृत्रिम रोशनदान हों अथवा नहीं किन्तु ताज़ा हवा आ सके| कृत्रिम रोशनी इतनी पर्याप्त दी जायेगी कि हिरासती व्यक्ति आँखों को बिना किसी प्रकार की क्षति के आराम से पढ़ अथवा कार्य कर सके| नियम 12 के अनुसार सफाई व्यवस्था पर्याप्त होगी, नियम 13 के अनुसार  मौसम के अनुकूल स्नान की व्यवस्था होगी तथा नियम 14 के अनुसार हिरासती व्यक्तियों के प्रयोग में आने वाले संस्था के सभी भाग सफाई से रखे जायेंगे| आगे के नियमों के अनुसार उन्हें धोने के लिए साबुन और जल उपलब्ध करवाया जायेगा तथा हिरासती व्यक्ति अपना स्वाभिमान बनाये रखें इसलिए उन्हें बालों और दाढ़ी की उचित देखभाल करने के लिए सुविधाएं दी जाएँगी व पुरुषों को नियमित दाढ़ी बनाने की सुविधा दी जायेगी| प्रत्येक हिरासती व्यक्ति को साफ़ सुथरे कपडे और बिस्तर दिया जायेगा| नियम 20 के अनुसार प्रत्येक हिरासती व्यक्ति को स्वास्थ्य वर्धक और अच्छी तरह बनाया हुआ भोजन, व आवश्यकतानुसार जल उपलब्ध करवाया जायेगा|
13.             यह है कि भारत में अंग्रेजी शासन काल में जेल अधिनियम, 1894 व उसके सुसंगत नियम और मनुअल बनाये गए थे जिनका उद्देश्य अंग्रेजी  शासन द्वारा भारतियों का दमन कर उनके शोषण से ब्रिटिश खजाने को भरना था किन्तु आज कल्याणकारी राज्य में ये सभी प्रासंगिक  नहीं रह गए हैं| जबकि स्वयं ब्रिटिश शासन ने इंग्लॅण्ड में लागू जेल अधिनियम को 1952 में ही बदल दिया है| इसी स्थिति से चिंतित होकर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने राम मूर्ति बनाम कर्नाटक राज्य के मामले (1996) में केंद्र और राज्य सरकारों को  एक नई आदर्श जेल मनुअल बनाने का निर्देश दिया था| इन्हीं निर्देशों की अनुपालना में गृह मंत्रालय भारत सरकार ने वर्ष 2003 में आदर्श जेल मनुअल तैयार कर ली है किन्तु अधिकांश राज्य सरकारों ने अभी तक इसे लागू नहीं किया है और हिरासती व्यक्तियों के मानवाधिकारों का खुला हनन जारी है|
14.             यह है कि माननीय न्यायालय का यह पुनीत कर्तव्य है कि वह मानव गरिमा की रक्षा के लिए राज्य सरकार को निर्देश दे कि वह आदर्श जेल मनुअल तथा संयक्त राष्ट्र संघ के हिरासती व्यक्तियों के उपचार हेतु न्यूनतम मानक नियमों को अविलम्ब लागू करे ताकि अभिरक्षा के दौरान नागरिकों को मानवोचित व्यवहार मिले |
15.             यह है कि माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने न्यायपालिका के कर्तव्यों को रेखांकित करते हुए शेलेस्वर नाथ सिंह के मामले के निर्णय दिनांक 11.08.1999  में कहा भी है कि प्रत्येक को समझ लेना चाहिए कि न्यायपालिका जनता की सेवा के लिए बनाई  गयी है न कि वकीलों और न्यायाधीशों की सेवा के लिए| कानून के अच्छे शासन के लिए आवश्यक है कि न केवल उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट उक्त नियमों का लागू किया जाना सुनिश्चित करें बल्कि निचले स्तर के न्यायालय भी इस प्रक्रिया में निर्भय होकर समान रूप से भागीदार बनें| प्रकरण से स्पष्ट है कि सम्बंधित मजिस्ट्रेट ने भी सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अनुपालना सुनिश्चित नहीं की है| माननीय न्यायालय ने  याचिकाकर्त्री की गिरफ्तारी को अवैध पाया है| जिन अभियोगों के लिए अधिकतम दंड मात्र 1200रुपये अर्थदंड ही हो और कारावास का कोई प्रावधान ही न हो उन अभियोगों में तो गिरफ्तार करना सरासर अनुचित और अवैध है| जब गिरफ्तारी मूल रूप से अवैध हो तो गिरफ्तार व्यक्ति से जमानत की अपेक्षा ही क्यों की जाय अर्थात मजिस्ट्रेट को उसे दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 59 के अंतर्गत बिना शर्त रिहा करना चाहिए था| किन्तु माननीय न्यायालय ने न तो मजिस्ट्रेट के आचरण पर कोई टिपण्णी की है और न ही विधि के उल्लंघन के लिए मजिस्ट्रेट के विरुद्ध  किसी प्रकार की कार्यवाही प्रारम्भ की है|
16.             यह है कि माननीय न्यायालय के निर्णयों से जनता को यह सन्देश नहीं जाना चाहिए कि राज्य में अच्छे कानून के शासन का अभाव है अथवा लोकतंत्र के तीनों स्तंभ एक ही जैसे व एकजुट हैं और जरुरत पडने पर आपस में एकदूसरे का बचाव करते हैं| न्याय के पूजनीय मंदिर पीडितों को यह सन्देश न दें कि भारतीय गणतंत्र के संवैधानिक न्यायालयों में भी न्याय एक अपवाद मात्र ही है|
17.             यह है कि उक्त घटनाक्रम से पुलिस द्वारा न्यायिक अवमान के साथ-साथ कानून का उल्लंघनकर क्षति पहुँचाने,  मिथ्या  दस्तवेज तैयार करने व  काम में लेने, तथ्यों को छुपाने और सदोष परिरोध के आरोप प्रथम दृष्टया स्थापित होते हैं किन्तु माननीय न्यायालय ने इन अपराधों का कोई प्रसंज्ञान नहीं लिया है और न ही कोई निर्देश दिए हैं| जहां तक पीड़ित व्यक्ति को राजकोष से क्षतिपूर्ति देने का प्रश्न है, यह परिपाटी लंबे समय से चली आरही है किन्तु इससे पुलिस की मनोवृति में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ है| न्यायालय के निर्णय से पुलिस प्रशासन को इस प्रकार सन्देश जाना चाहिए कि इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृति न हो| यदि सरकार इस रकम की पुलिस अधिकारियों से व्यक्तिगत वसूली करे तो भी पुलिस के अनैतिक व भ्रष्ट आचरण और उससे संभावित आय को देखते हुए यह रकम तो पुलिस अधिकारियों के लिए तुच्छ्मात्र है|
18.             यह है कि राज्य सरकारें पुलिस से अनुचित कार्य लेती हैं फलतः वे पुलिस से डरती हैं| माननीय सुप्रीम कोर्ट ने देल्ही जुडीशियल सर्विस एसोसिएसन (1991 AIR 2176) के मामले में कहा भी है, पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध प्रभावी कार्यवाही करने में सरकारी उदासीनता से यह सन्देश मिलता है कि गुजरात राज्य में प्रशासन पर पुलिस भारी पड़ती है अतः प्रशासन दोषी पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध कार्यवाही करने में संकोच कर रहा है| यदि यही प्रवृति और परिपाटी बढ़ने दी गयी तो यह राज्य में विधि के शासन का नाश कर देगी| ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से गुजरात और महाराष्ट्र राज्य समानपृष्ठ भूमि वाले ही हैं| अतः माननीय न्यायालय के कड़े निर्देशों के अभाव में महाराष्ट्र राज्य सरकार पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध मुश्किल से ही कोई कार्यवाही करेगी|

मैं यहाँ पर यह भी निवेदन करना प्रासंगिक समझता हूँ कि प्रत्येक विवेकी शक्ति के प्रयोग का आधार जनहित प्रोन्नति होना चाहिए विशेषतः जब यह अहम प्रश्न संविधान के संरक्षक उच्च न्यायालय के सामने हो| माननीय न्यायालय के उक्त निर्णय के विरुद्ध अपील भी दायर की जा सकती है किन्तु वह भी एक अंतहीन, खर्चीली और जटिल व थकाने वाली प्रक्रिया होगी| यद्यपि माननीय न्यायालय स्वप्रेरणा से इस प्रकरण में पुनरीक्षा कर पूर्ण और वास्तविक न्याय देने के लिए सशक्त है| भारतीय गणतंत्र को मज़बूत बनाने की ईश्वर आप द्वय को सदैव सद्प्रेरणा देते रहें| इसी आशा और विश्वास के साथ ,

आपका शुभेच्छु

मनीराम शर्मा
(राष्ट्रीय अध्यक्ष के राज्य सलाहकार )                   दिनांक :13.03.2012
ईमेल :maniramsharma@gmail.com  


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