Monday 7 March 2011

लोक सेवकों का दायित्व


सुप्रीम कोर्ट ने अपील के निर्णय  लखनऊ विकास प्राधिकरण बनाम एम.के. गुप्ता ए.आई.आर. 1994 स.न्या. 787 में कहा है हमारे संविधान के अन्तर्गत सम्प्रभुता लोगों में निहित है। संवैधानिक तन्त्र के प्रत्येक अंग का दायित्व लोगोन्मुखी होता है। कोई भी कार्यकारी अपनी संविधिक षक्तियों के प्रयोजन में   कानून द्वारा संरक्षित सीमा के अतिरिक्त संरक्षण का दावा नहीं कर सकता। संवैधानिक या सांविधिक प्रावधानों के उल्लंघन में अन्यायपूर्ण कार्य करन वालेे लोक प्राधिकारी  आयोग या न्यायालय के समक्ष अपने व्यवहार के लिए जवाबदेह हैं।
क्षतिपूर्ति षब्द अत्यधिक विस्तृत अर्थवाला है। इसे अधिनियम में परिभाशित नहीं किया गया है। षब्दकोश के अनुसार इसका अर्थ है, क्षतिपूर्ति करना या क्षतिपूरित होना, पूर्ति मंे वस्तु देना। विधिक अर्थ में यह वास्तविक हानि या संभावित हानि और षारीरिक, मानसिक या भावनात्मक पीड़ा, अपमान या क्षति या हानि की पूर्ति तक विस्तारित हो सकती है। एक उदाहरणात्मक क्षतिपूर्ति प्रदानगी प्रतिषोधात्मक विधिक षक्ति के उद्देष्य की परिपूर्ति में उपयुक्त हो सकती है। एक सामान्य या आम नागरिक के पास राज्य या इसके अभिकरणों की षक्ति के बराबरी के उपकरण मुष्किल से ही होते हैं। सरकारी सेवक जनता के भी सेवक हैं। यदि एक लोक कार्यकारी दमनात्मक या दुर्भावनात्मक कार्य करता है और ऐसी षक्ति का प्रयोजन  संताप एवं उत्पीड़न में परिणित होता है तो यह षक्ति का प्रयोजन नहीं अपितु दुरूपयोग है। कोई भी कानून इसके विरूद्ध संरक्षण नहीं देता है। जो कोई भी इसके लिए दायी है, उसे इसे भुगतना चाहिए। यहां तक कि जब अधिकारी ने अपने कर्त्तव्यों का उन्मोचन ईमानदारी तथा सद्भाव से किया तो भी क्षतिपूर्ति या प्रतिपूर्ति जैसा कि पूर्व में स्पश्ट किया गया है उद्भूत हो सकती है। किन्तु जब इसका उद्भव स्वैच्छाचार या अनुचित व्यवहार से होता है तब इसका व्यक्तिगत चरित्र समाप्त हो जाता है और यह सामाजिक महत्व ग्रहण कर लेता है। एक आम व्यक्ति का लोक अधिकारियांे द्वारा उत्पीड़न सामाजिक रूप से निन्दनीय तथा कानूनन गैर अनुमत है। इससे व्यक्तिगत क्षति ही नहीं किन्तु समाज को होने वाली क्षति अधिक गम्भीर है। लोगों द्वारा विरोध के अभाव में समाज मंे अपराध तथा भ्रश्टाचार पनपते एवं फलते फूलते हैं । लाचारी की भावना से अधिक घातक और कुछ नहीं है। कार्यालयों की अवांछनीय कार्यषैली के दबाव का सामना करने ,परिवाद करने और लड़ने केे स्थान पर एक सामान्य नागरिक घुटने टेक देता है । अतएव लोक प्राधिकारियों द्वारा कारित उत्पीड़न के लिए क्षतिपूर्ति प्रदानगी मात्र व्यक्ति विषेश को परिपूर्ति - व्यक्तिगत संतोश नहीं देती है अपितु सामाजिक बुराई का इलाज करने में मदद करती है। यह कार्य संस्कृति में सुधार करने में परिणित हो सकती है तथा दृश्टिकोण परिवर्तित करने में सहायता करती है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन मामलों में तुरन्त ध्यान दिये जाने की आवष्यकता है, लटकते रहते हैं और गली के आदमी को बिना किसी परिणाम के इस छोर से उस छोर दौड़ाया जाता है। जब न्यायालय क्षतिपूर्ति या परिपूर्ति के भुगतान हेतु राज्य को निर्देष देते हैं तो अंतिम भुक्तभोगी आम आदमी है। यह कर-दाताओं का धन है जिसे उन लोगों की अकर्मण्यता के लिए चुकाया गया जिन्हें अधिनियम के अन्तर्गत कानून के अनुसार कर्त्तव्य  करना सौंपा गया था।

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