Sunday 24 April 2011

न्यायिक आचरण के प्रतिमान -1


सुप्रीम कोर्ट ने बम्बई उच्च न्यायालय बनाम षिरिष कुमार रंगराव पाटिल (एआईआर 1997 सु.को. 2631) के प्रमुख प्रकरण में धारित किया है कि यदि न्यायाधीषों को जनता ने अत्यधिक सम्मान देना है तो न्यायाधीषों को अपना आचरण इसके अनुरूप बनाना चाहिए। उन्हें षब्दों अथवा कृत्यों से जनता को ऐसा अवसर नहीं देना चाहिए जिससे कि जिस स्थान की वे पात्रता रखते हैं उसी स्थान के योग्य होना चाहिए।
भ्रश्टाचार की जड़ भाई-भतीजावाद तथा भ्रश्ट अधिकारियों को निश्क्रिय संरक्षण देने में है। निर्णय को सही होने की स्वीकार्यता स्पश्ट चरित्र, आचरणपूर्ण सत्यनिश्ठा और पक्षपात रहित होने की निषानी के स्रोत में समाहित है। आम व्यक्ति के जीवन में नैतिकता एवं ईमानदारी के स्तर में आती गिरावट ठीक प्रकार से न्यायपालिका की ओर रास्ता बना लेती है। चूंकि प्रत्यर्थी प्रोबेषन पर था अतः न्यायिक कार्य करने, निशेधाज्ञा देना या न देने के बदले रिष्वत मांगने के लिए ज्यादा संभावना थी। भ्रश्ट गतिविधि की प्रवृति अधिक गंभीर और हानिकारक है बजाय अवैध पारितोशिक मांगने और स्वीकार करते हुए न्यायिक अधिकारी वास्तव में पकड़ा जावे। यदि विभागीय कार्यवाही में प्राप्त साक्ष्य न्यायिक अधिकारी के भ्रश्ट आचरण के दुर्व्यसन को प्रमाणित करती है और उसके आचरण की जांच उचित एवं मौलिक है, तो दुराचरण की मात्रा के अनुपात में दण्ड दिया जाना चाहिए।

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