Thursday 28 April 2011

न्यायिक आचरण -4


सामान्यतया दोशी न्यायिक अधिकारियों को स्वल्प दण्ड दिया जाता है। रमेष चन्द्र बनाम इलाहाबाद उच्च न्यायालय प्रकरण में निर्णय दिनांक 25.11.05 में दोशी को दिए गए दण्ड को अपर्याप्त समझते हुए दोशी की अपील में दण्ड में वृद्धि की गयी तथा कहा गया कि यदि दिया गया दण्ड न्यायालय की अन्तरात्मा को हिला दे तो न्यायालय इस पर पुनर्विचार कर आपवादिक मामलों में सकारण उपयुक्त दण्ड लगा सकता है। लगातार पाया गया है कि याची एक वकीलों के एक खास समूह को संरक्षण दे रहा था और फिर भी वार्शिक गोपनीय प्रतिवेदन यथावत रही। एक न्यायिक अधिकारी अत्यधिक विष्वास वाला पद धारित करता है। जिस तरह से याची ने व्यवहार किया उससे जन विष्वास छिन्न-भिन्न हो जाता है। विधि के षासन को बनाये रखने के लिए हमारे पूर्वजों ने जो संवैधानिक अवधारणायें व्यक्त की हैं याची का आचरण उनकी जड़ो पर प्रहार करता है। याची का आचरण कोई सामान्य चूक नहीं है अपितु गंभीर दुराचरण है। इस कमी को कम करके नहीं आंका जा सकता कि याची को मात्र दो वेतनवृद्धि रोककर मुक्त छोड़ दिया गया। याची को दण्ड देने में अत्यधिक उदारता दिखायी गयी। एक न्यायिक अधिकारी हमारे लोकतन्त्र के संतरी मात्र नहीं है अपितु सामाजिक अन्याय के हमलों के विरूद्ध विष्वास स्तम्भ है। ऐसे अधिकारियों द्वारा अधिकतम समर्पण युक्त कर्त्तव्य पालन में विफलता कड़ी जांच के अधीन होनी चाहिए। ऐसे प्रकरणों से व्यवहार करते समय न केवल दोशी अधिकारी बल्कि सम्पूर्ण जनता को यह संदेष जाना चाहिए कि जहां न्यायालय की अन्तरात्मा को गंभीर आघात लगे वहां यह न्यायालय समझौता नहीं करेगा।
यह एक दुर्लभ मामला है जहां दिया गया दण्ड अत्यन्त उदार है और दुराचरण की गंभीरता तो देखते हुए अर्थहीन है। रिकॉर्ड पर स्थापित आरोपों की गंभीरता को देखते हुए दण्ड किसी भी प्रकार से आनुपातिक नहीं है। हम जांचकर्ता न्यायाधीष की रिपोर्ट से सहमत हैं तथा मामला पुनर्विचारार्थ भेजने से अनावष्यक विलम्ब होगा। याची द्वारा उठाये गये समस्त मुद्दों को हमने सुन लिया है और प्रत्येक तर्क पर विचारण किया है व इस न्यायालय के लिए उपयुक्त होगा कि दण्ड को बढ़ाने के लिए षक्ति प्रयोग करे। आखिरकार यह न्यायालय अधिनस्थ न्यायपालिका सहित स्वयं के कार्य करने से चिन्तित है और मुकदमेंबाजी का अन्त करना आवष्यक है। तदनुसार याची को ठीक निचले स्तर अर्थात् सिविल न्यायाधीष (वरिश्ठ खण्ड) के पद पर पदावनत किया जाकर दण्ड संषोधित किया जाता और प्रत्यर्थी को तुरन्त प्रभाव से आदेष की पालना के निर्देष दिये जाते है।
कलकता उच्च न्यायालय ने मोहनलाल बनाम मोहिनी मोहन (ए.आई.आर. 1948 कल 194) में धारित किया है कि जब सुनवाई की तिथि को अभियुक्त अनुपथित है तो न्यायालय स्थगन के लिए बाध्य है और चूंकि संहिता में अभियुक्त से खर्चे दिलवाने का कोई प्रावधान नहीं है। अतः उससे खर्चे नहीं दिलवाये जा सकते यद्यपि धारा 334 में अभियुक्त को खर्चे दिलवाने का प्रावधान है।
सुप्रीम कोर्ट ने सत्यपाल सिंह बनाम भारत संघ के मामले के निर्णय दिनांक 23.11.09 में कहा है कि विधिक सेवा प्राधिकरण को खर्चे तभी दिलाये जाने चाहिए जहां दूसरा पक्षकार प्रतिनिधित हो या  उस पर तामिल हो गयी हो और याची की चूक, भूल या विलम्ब -उदाहरणार्थ जहां याची दोश दूर नहीं करता, कार्यालय आक्षेप दूर नहीं करता या पुनः फाईल करने में विलम्ब करता है। एक बार जब सामने वाला पक्षकार उपस्थित हो जाता है तो पक्षकार द्वारा विलम्ब की कुचेश्टा से होने वाली हानि की पूर्ति के लिए खर्चे लगाये जाते हैं। मात्र जहां दोनों पक्षकार चूककर्ता हों वही खर्चे विधिक सेवा प्राधिकरण में जमा कराये जाने चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने बलदेवदास षिविलाल बनाम फिल्मीस्तान डिस्ट्रीब्यूटर्स ( 1970 ए.आई.आर. 406) में कहा है कि न्यायालय को जहां तक संभव हो सभी मुद्दे साथ-साथ विनिष्चित करने चाहिए ताकि मुकदमेबाजी लम्बी ना खिंचे। यह पाया गया कि वे मुद्दे कानूनी नहीं  अपितु मामले के मूल से सम्बन्धित थे अतः साक्ष्य रिकॉर्ड किये बिना निर्धारण योग्य नहीं थे।

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