Friday 29 April 2011

न्यायिक आचरण -5


सामाजिक न्याय को रेखांकित करते हुए न्यायाधिपति कृश्णा अयर ने आजाद रिक्षा चालक संघ बनाम पंजाब राज्य (1981 ए.आई.आर. 14) में कहा है कि हमारे संवैधानिक निकाय के अन्तर्गत न्यायालय परिश्रमियों, पसीना बहाने वालों के लिए षरण स्थल है न कि षोशकों के लिए क्योंकि सामाजिक न्याय के दावेदार न कि षक्तिसम्पन्न मौलिक अधिकारों की रिट द्वारा यथा स्थिति की याचना करते हैं। इस न्यायालय का कर्त्तव्य या दायित्व प्रत्येक की रक्षा करना है। ‘षक्ति के बिना न्याय अदक्ष है, न्याय के बिना षक्ति परेषानी कारक है, अतः न्याय और षक्ति को साथ लाया जाना चाहिए ताकि जो कुछ हो वह न्यायोचित हो। भला वह है जिसका अन्त भला हो और न्यायिक सक्रियता का उच्चतम बोनस तब प्राप्त होगा जब वह कुछ आंखों से आंसू पोंछ सके।
सुप्रीम कोर्ट ने रामदयाल मरकढा बनाम म.प्र. राज्य (ए.आई.आर. 1978 सु.को.922) में आगे कहा है कि न्याय का रास्ता फूलों से ढका नहीं है और न्याय कोई सुगम गुण भी नहीं है, इसे जांच, यहां तक कि आम व्यक्ति के स्वतन्त्र भाशण, का सामना करने देना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने आर.सी. षर्मा बनाम भारत संघ (1976 (3) एस.सी.सी. 574) के प्रकरण में कहा है कि यदि लिखित बहस भी दी गई हो तो बिना आपवादिक या स्पश्ट कारणों के बहस तथा न्यायदान में अतर्कसंगत विलम्ब अत्यधिक अवांछनीय है। यह संभव है कि कुछ बिन्दु जिन्हें पक्षकार विचारण करना आवष्यक समझते हों ध्यान देने से वंचित हो जायें। लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि वादकरण के परिणाम पर पक्षकारों का पूर्ण विष्वास हो। निर्णय प्रदानगी तथा बहस की सुनवाई में यदि अत्यधिक विलम्ब हो तो विष्वास उठ जाता है।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने अर्जुनराम बनाम राजस्थान राज्य (आर.एल. डब्ल्यू. 2007 (3) राज 2081) में कहा है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 483 प्रत्येक उच्च न्यायालय पर यह दायित्व डालती है कि वह अपना न्यायिक मजिस्ट्रेट न्यायालयों पर लगातार अधीक्षण इस प्रकार सुनिष्चित करे कि मामलों का मजिस्ट्रेटों द्वारा त्वरित और उचित निपटान हो। अतः उच्च न्यायालय द्वारा सतत पर्यवेक्षण कर सुनिष्चित करना अत्यधिक महत्वपूर्ण है कि वह अधिनस्थ न्यायालयों के निर्णयों, आदेषों या दण्डादेषों की षुद्धता या वैधता की जांच करें।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने राजेन्द्र कुमार जैन बनाम राजस्थान राज्य (2002 क्रि.ला.ज. 4243) में कहा है कि यह देखा गया है कि उच्च न्यायालय को धारा 401 के अन्तर्गत स्वप्रेरणा से एवं धारा 483 के अन्तर्गत लगातार पर्यवेक्षण का क्षेत्राधिकार है। इसलिए जब रिकॉर्ड की जांच करने पर उच्च न्यायालय यह पाता है कि न्याय का गंभीर स्खलन या न्यायिक प्रक्रिया का दुरूपयोग अथवा का कानूनी प्रक्रिया की अनुपालना में खामी से न्यायिक विफलता या आदेष या दण्डादेष में मजिस्ट्रेट द्वारा कमी रही है जिसे सुधारने की आवष्यकता है ऐसी स्थिति में उच्च न्यायालय का कर्त्तव्य है कि वह इसे प्रारम्भ ही सुधार दे ताकि न्यायिक स्खलन न हो। याची के परीक्षण का अर्थ आवष्यक रूप से परेषान करना नहीं है और यदि ऐसी स्थिति में अभियोजन चालू रखना अनुमत किया जाता है, तो भी नकली न्याय या अनावष्यक पूर्वाग्रह नहीं होगा क्योकि यदि आरोप सिद्ध नहीं होता है, और विमुक्त कर दिया जाता तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि यह स्पश्ट अन्याय या न्यायालय की प्रक्रिया का दुरूपयोग नहीं होगा यदि दं.प्र.सं. की धारा 482 के अधीन प्रदत षक्तियों का प्रयोग नहीं किया जाता है।
निरंजन नोडल बनाम राज्य (1978 क्रि.ला.ज. 636) में कहा गया है कि यह निर्णय ऐसे निर्णय का उदाहरण है जो कि नहीं दिया जाना चाहिए था। यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है कि विद्वान मजिस्ट्रेट ने निर्णय देते समय प्रारम्भिक सिद्धान्तों का पालन नहीं किया। दं.प्र.सं.  की धारा 354 बाध्यकारी बनाती है कि निर्णय में विनिष्चय के बिन्दु होंगे और उन पर निर्णय  व निर्णय के लिए कारण दिये जायेंगे।   

1 comment:

  1. दोस्तों, क्या सबसे बकवास पोस्ट पर टिप्पणी करोंगे. मत करना,वरना.........
    भारत देश के किसी थाने में आपके खिलाफ फर्जी देशद्रोह या किसी अन्य धारा के तहत केस दर्ज हो जायेगा. क्या कहा आपको डर नहीं लगता? फिर दिखाओ सब अपनी-अपनी हिम्मत का नमूना और यह रहा उसका लिंक प्यार करने वाले जीते हैं शान से, मरते हैं शान से (http://sach-ka-saamana.blogspot.com/2011/04/blog-post_29.html )

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