Thursday 21 April 2011

पुलिसिया राज


श्रीमती षकिला अब्दुल गफार खान बनाम वसंत रघुनाथ धोबले के निर्णय दिनांक 08.09.03 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि न्यायालय का कर्त्तव्य है कि वह अनाज में से फूस को अलग करे। प्रभावित व्यक्तियों के प्रति न्याय करने के लिए ही न्यायालयों का अस्तित्व है। परीक्षण या प्रथम अपीलीय न्यायालय तकनीकी आधारों पर सफाई नहीं दे सकते और जिन तथ्यों पर ध्यान दिया जाकर सकारात्मक जांच की जानी चाहिए उन पर वे आंखे नहीं मूंद सकते। न्यायालय एक गवाही को रिकॉर्ड करने वाले टेप रिकॉर्डर की भांति अन्वीक्षण के उद्देष्य को अनदेखा नहीं कर सकता अर्थात् सत्य प्राप्त करना और ऐसी सक्रिय भूमिका अदा करना जिसके लिए संहिता में पर्याप्त षक्तियों दी गई है। न्यायालयों के महती कर्त्तव्य एवं जिम्मेदारियां अर्थात् जहां अभियोजन एजेन्सी स्वयं की भूमिका पर प्रष्नचिन्ह हो न्याय देना है। कानून को षांत व निश्क्रय बैठे नहीं देखा जाना चाहिए जहां जो उसका उल्लंघन करता है बच जाय और जो इससे संरक्षण की आषा करता है निराष हो जाये। न्यायालयों को यह सुनिष्चित करना पड़ता है कि दोशी दण्डित हो तथा यदि अनुसंधान या अभियोजन में कोई कमी है तो उसके साथ कानूनी ढंाचे के भीतर उचित व्यवहार किया जाना चाहिए। सत्य के अतिरिक्त न्याय को कुछ भी प्रिय नहीं है। जब एक आम नागरिक षक्ति सम्पन्न प्रषासन के विरूद्ध षिकायत करता है तो न्यायालय की संवेदनहीनता या अकर्मण्यता से विष्वास और अन्ततः देष की न्याय प्रदानगी प्रणाली ही नश्ट हो जावेगी। यदि आगे जांच में तथा संग्रहित विशय वस्तु से यह लगता है कि अभियुक्त की कोई भूमिका रही है तो प्राधिकारियों के लिए ऐसे कृत्य के लिए कार्यवाही करने का मार्ग खुला है और ऐसी कार्यवाही उच्च न्यायालय या हमारे द्वारा विमुक्ति के आदेष के बावजूद भी की जा सकती है। ऐसा इसलिए है कि जो रिकॉर्ड पर विशय वस्तु है उसके आधार पर विमुक्ति आदेष पारित किया गया है। उन अधिकारियों के विरूद्ध भी कार्यवाही की जावेगी जिन्होंने एफ आई आर लिखने से मना किया और जिन्होंने मामले में अभी तक जांच नहीं की। प्रथमतः एफ आई आर नहीं लिखने का कोई स्पश्टीकरण नहीं दिया गया। इस बात पर कोई जोर देने की आवष्यकता नहीं है कि जब पुलिस के ध्यान में लाया गया कि मृतक को किसी ने पीटा है एफ.आई.आर. लिखी जानी चाहिए थी। जांचकर्ता पुलिस अधिकारी ने ऐसे ढंग से कार्य किया मानों कि उसे अभियुक्त का दोश या अन्यथा निष्चित करना हो। पुलिस के लिए मात्र इतना ही अनुमत है कि वह संज्ञेय अपराध के अस्तित्व का पता लगावे और उससे आगेे कुछ नहीं।
अभियुक्त सरताज पर आरोप था कि वह एक नाबालिग लड़की को भगाकर ले गया। प्रकरण में आगे इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय दिनांक 14.07.2010 सरताज बनाम उ0प्र0 राज्य (मनु/उ.प्र./0400/2010) में कहा है कि मध्य प्रदेष उच्च न्यायालय ने रामधनी पाण्डे के मामले में कहा है कि किसी व्यक्ति के विचरण पर उसकी इच्छा के विरूद्ध पुलिस धारा केाई भी रोक लगाना उसकी गिरफ्तारी या अवैध निरूद्ध करना है। महेन्द्र जैन (पाटनी) के मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने कहा है कि यदि एक व्यक्ति को पूछताछ के बहाने यदि लम्बे समय तक रोका जाता है तो ऐसे व्यक्ति को अभियुक्त के समान मानते हुए ऐसा करना हिरासती हिंसा होगी तथा संविधान के अनुच्छेद 21 का अतिक्रमण है। ए.नलासिवन के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने 90 औरतों और 28 बच्चों को वन विभाग के कार्यालय में रातभर रखना अवैध माना तथा सी.बी.आई.जांच के आदेष दिये थे। याची को किसी भी हालत में चाहे स्वेच्छा से या अस्वेच्छा से मेडिकल रिपोर्ट के इन्तजार में पुलिस थाने में नहीं रोका जाना चाहिए था। स्वैच्छिक कार्य के आवरण में ऐसा प्रतिबन्ध कानूनी प्रक्रिया का दुरूपयोग है और पुलिस द्वारा दादागिरी है। लतासिंह बनाम उत्तर प्रदेष राज्य (क्रि.ला.ज. 2006 3309) के निर्णयानुसार में जब उसने स्वैच्छा से साथ जाने विवाह करने और वयस्कता का कथन किया है। तब पुलिस द्वारा उसकी स्वतन्त्रता को यहां तक कि अस्थायी तौर पर भी प्रतिबन्धित करने का कोई अधिकार नहीं है। उचित कारण सहित नोटिस दिये बिना किसी भी व्यक्ति को उठाकर नहीं ले जाया जावेगा। सामान्य डायरी (रोजनामचा आम) में ऐसे व्यक्तियों के पहुंचने एवं जाने के समय व बुलाने के कारण सहित प्रविश्टियां की जायेगी।
कानून में यह तय है कि यदि कोई प्राधिकारी कुछ करना चाहता है तो वह अधिनियम या सांविधिक प्रावधान के अनुसार ही करना चाहिए और अन्यथा बिल्कुल नहीं। जिस उद्देष्य के लिए थाना भवन निर्मित है प्राधिकारी पुलिस को उसके अतिरिक्त किसी अन्य उपयोग में नहीं ले सकते। यदि उन्हें ऐसा करने की अनुमति दे दी जावे तो हमारी प्रणाली में गिरती नैतिकता के मद्देनजर थाना भवन विधि की प्रक्रिया के दूरूपयोग की गैलरी बन जायेगा। प्रकरण में निम्नानुसार आज्ञापक निर्देष जारी किये गए:-
1.       किसी भी व्यक्ति को चाहे स्त्री हो या पुरूश गवाह के तौर पर पुलिस थाने में किसी भी कारण से 24 घण्टे से अधिक रहने की न तो अनुमति दी जायेगी और न ही रोका जावेगा। मेडिकल जांच के लिए ऐसे व्यक्ति को अधिकतम 3 दिन के लिए अस्पताल में रखा जा सकता है।
2.      सरकार यह सुनिष्चित करे कि किसी भी व्यक्ति को मेडिकल जांच के लिए अस्पताल में 24 घण्टे से अधिक नहीं रोका जावे।
3.      मुख्य सचिव उत्तर प्रदेष सरकार को निर्देष दिये जाते है कि मेडिकल रिपोर्ट को पुलिस को भेजे जाने के विशय में दिषा निर्देष तय करने हेतु एक विषेशज्ञ समिति की नियुक्ति करे। प्रकरण में पुलिस थाना भवन में 2 सप्ताह तक रखी गई याचि को बिना न्यायोचित कारणों के रखने को अनुच्छेद 21 का उल्लंघन मानते हुए मानसिक दुःख व संताप के लिए खर्चे/क्षतिपूर्ति का अधिकारी घोशित किया गया।

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