Wednesday 20 April 2011

पुलिस पर नियंत्रण


सुप्रीम कोर्ट ने उ. प्र. राज्य बनाम राम सागर यादव (1985 ए. आई. आर. सु. को. 416) में कहा है कि हम सरकार से कानून में इस प्रकार संषोधन करने पर बल देना चाहते हैं कि जो पुलिस वाले अभिरक्षा में लोगों पर अत्याचार करते है वे मात्र साक्ष्य की अनुपस्थिति या अभाव के कारण बच नहीं जावें। अभिरक्षा में व्यक्ति किसी प्रकार चोटग्रस्त हुए उन परिस्थितियों के विशय में मात्र पुलिस अधिकारी ही साक्ष्य दे सकते हैं अन्य और कोई नहीं साक्ष्य दे सकते हैं ।ऐसी स्थिति में वे एक प्रकार के भाईचारे के बन्धन में बन्धे चुप रहना पसन्द करते है और जब वे बोलते भी हैं तो वे तथ्यों पर अपनी चमक की परत चढाकर सत्य को ढक देते हैं। परिणामतः जिन लोगों पर पुलिस थाने में अत्याचार होते हैं वे अपराधियों के विरूद्ध साक्ष्य से वंचित हो जाते हैं। कानून और व्यवस्था के नौकरों द्वारा अपराध की स्थिति में सबूत के भार की विधायिका द्वारा पुनः जांच की जानी चाहिए ताकि नागरिक जिनसे संरक्षण अपेक्षा करते हैं उनके द्वारा अधिकार और परिस्थितियों का उपयोग उत्पीड़न के लिए नहीं किया जा सके।
पष्चिम बंगाल राज्य बनाम संपतलाल (1985) एस.सी.सी. 317 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जब विधि की आवष्यकताएं पुलिस द्वारा पूरी नहीं की जा रही है और जिस षीघ्रता और तत्परता से अनुसंधान होना चाहिए यदि नहीं हो रहा है तो न्यायालय को उचित दिषा निर्देष देने की अवषिश्ट षक्ति है।
अभिनन्दन झा बनाम दिनेष मिश्रा (1967) 3 एस.सी.आर. 668 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जहां अपराध दर्ज करने के बाद बिना स्पश्ट कारण के यदि पुलिस जल्दी जांच नहीं कर रही है तो संतोशजनक आधार पर मजिस्ट्रेट या उच्च न्यायालय तर्कसंगत समय सीमा में अनुसंधान पूर्ण करने का दिषा निर्देष दे सकते हैं।

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