Sunday 17 April 2011

सूचना आयोगों में पारदर्शिता और स्वछता



सूचना का अधिकार अधिनियम लागू करते समय यह आशय रखा गया था कि आवेदक को 30 दिन में सूचना मिल जावेगी। किन्तु खेद की बात यह है कि प्रायः न तो 30 दिन में आवेदक को सूचना दी जाती है और न ही आगे प्रथम या द्वितीय अपील में कोई राहत मिलती है। इस प्रकार सूचना का अधिकार अधिनियम भी अन्य कानूनों की तरह ही अकाल मृत्यु की भेंट चढ़ गया है। अधिनियम के लगभग सभी प्रावधान कागजी साबित हुए हैं। अधिनियम की धारा 19(5) में स्पष्ट प्रावधान है कि अधिनियम की अवहेलना का औचित्य स्थापित करने का भार प्रत्यर्थी पर है अन्यथा उस पर अर्थदण्ड लगाया जायेगा किन्तु अर्थदण्ड लगाना तो दूर सूचना आयोगों में बड़ा भ्रष्टाचार और अनियमितताएं है व कोई वास्तविक फैसले नहीं कर रहे हैं। जहां आवेदक व्यक्तिगत पहुंच से आयोग के कार्मिकों को खुश कर लेते हैं। वहां अपीलें तुरन्त दर्ज होकर सुपरसोनिक जेट की गति से प्रगति करती हैं। केन्द्रीय सूचना आयोग में अपील सं0 सीआईसी/एसजी/ए/2009/ 002597 दिनांक 14.10.09 को प्रस्तुत हुई। दिनांक 29.10.09 को नोटिस जारी हुआ और दिनांक 10.12.09 को किन्हीं अपवित्र कारणों से निर्णय भी हो गया है किन्तु दिनांक 29.07.10 को एक प्रार्थी   भेजी गयी 4 अपीलों में से 3 अपीलें दिनांक 12.10.10 को दर्ज हुई तथा शेष  का कोई अता पता नहीं है। भरसक प्रयास करने पर भी इन अपीलों की नियति ज्ञात नहीं हो सकी है। यह विधि के समक्ष समानता के अधिकार -संविधान के अनुच्छेद 14- का स्पष्ट उल्लंधन है।
जहां सूचना नहीं दी गयी और प्रथम अपील अधिकारी ने कोई निर्णय भी नहीं दिया आयोग उन मामलों में भी कोई स्पष्ट आदेश करने और दण्ड लगाने के स्थान पर मामले औसतन 8 माह बाद पुनः रिमाण्ड किये जा रहे हैं और आवेदक को यह कहा जाता है कि यदि वह इससे संतुष्ट न हो तो पुनः प्रथम अपील व क्रमषः द्वितीय अपील दायर करे। इस प्रकार आयोग अपने दण्डादेश की शक्तियों के प्रयोग में कंजूसी बरत रहा है अपितु विधि विरूद्ध कार्य कर रहे हैं। अधिनियम में विवेकाधिकार शब्द का कहीं पर भी प्रयोग नहीं हुआ है। अतः दोषी  पर अर्थदण्ड नहीं लगाने का आयोग को कोई विवेकाधिकार नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने सोमप्रकाश (ए.आई.आर.1974 सु.को. 989) के मामले में कहा भी है कि प्रत्येक विवेकाधिकार अनुचित मांग को जन्म देता है। आयोग के आयुक्तगण अपनी बिरादरी लोक सेवक- सूचना अधिकारियों- का साथ देना नहीं छोड़ सकते हैं यह पूर्णतः स्पष्ट है। लोक सूचना अधिकारियों के मन में अधिनियम की अवहेलना करने पर जरा भी भय शेष नहीं है तथा बार-बार रिमाण्ड के माध्यम से आयोग मामलों को रक्तबीज की तरह बढाने में अच्छे मददगार साबित हो रहे हैं। इस प्रकार आयोगों में प्राप्त होने वाली अपीलों/शिकायतों  में से कुछ का बिना निपटान दिये अंत कर दिया जाता है तथा कुछ को 3-4 माह बाद दर्ज किया जाता है व इस प्रकार निपटान में लगने वाला औसत समय 1 वर्ष से अधिक है। आयोग में प्राप्त एवं निपटान किये गये प्रकरणों के आंकड़े भी मिथ्या एवं असत्य है क्योंकि इन आंकड़ों में ये प्राप्त किन्तु 3-4 माह से न दर्ज किये गये प्रकरण शामिल नहीं है। केन्द्रीय सूचना आयोग में फरवरी 2011 के अन्त में दर्ज 16392 प्रकरण बकाया है। एक माह में औसतन 2400 प्रकरण बनते हैं जिसमें यदि गत 4 माह से दर्ज हेतु बकाया प्रकरण जोड़ दिये जायें तो 26000 प्रकरण बनते हैं। आयोग में एक माह में औसतन 2000 प्रकरणों का निपटान होने की दर से आयोग में दर्ज प्रकरणों का निपटान होने में औसत 13 माह लगेंगे।
यदि आप सूचना का अधिकार अधिनियम को लागू करने के लिए भी इसी अधिनियम का सहारा लें तो परिणाम अलग निकल सकते हैं। दिनांक 19.03.11 को प्रेषित 3 अपीलों के विषय में दिनांक 30.03.11 को अधिनियम के अन्तर्गत आवेदन कर इन अपीलों की प्रगति की रिपोर्ट मांगी गई तो इन अपीलों को दिनंाक 11.04.11 को ही दर्ज कर लिया गया।
राजस्थान सूचना आयोग की स्थिति तो इससे भी बदतर है। यहां लगभग छः माह पूर्व भेजी गई अपीलों को दर्ज नहीं किया गया है और स्वयं आयोग की वेबसाईट से पता चलता है कि नए वर्ष 2011 में तो दर्ज करने का आज तक खाता भी नहीं खोला गया है। धन्य है राजस्थान सूचना आयोग और राज्य सरकार जो जनता के धैर्य की परीक्षा ले रहे हैं। हां यहां से कुछ अपीलों की प्रगति जानने के लिए अधिनियम के अन्तर्गत आवेदन किया गया है। संभव है अपीलें थोड़ी प्रगति कर लें। क्या यही गांधी के सपनों के प्रजातान्त्रिक भारत की बानगी है।

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