Saturday 30 April 2011

न्यायिक आचरण -6


पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय ने बलवन्त राय बनाम छांगीराम (ए.आई.आर. 1963 पंजाब 124) में कहा है कि एक आदेष जो मामले का अंतिम निष्चय करता है अपने आप में समाहित होना चाहिए और बिल्कुल बोलता आदेष होना चाहिए। इसमें संक्षेप में मामले के तथ्य दिये जाने चाहिए और इसमें निर्णय तक पहंुचने के लिए सम्यक् कारण दिये जाने चाहिए। निर्णय इस बात के आरोप के लिए खुला होना चाहिए कि न्यायिक अधिकारी ने तथ्यों पर दिमाग नहीं लगाया या उसका आदेष मनमाना या स्वैच्छाचारी है ताकि उच्चतर न्यायालय में आदेष की षुद्धता या वैधता की समालोचना की जा सके तथा मात्र यही एक तरीका है जिससे सुनिष्चित किया जा सकता है कि आदेष सही एवं कानून के अनुसार है क्योंकि उसमें कारण/तर्क दिये गये है। कारणों के बिना उच्चतर न्यायालय के पास कुछ भी ऐसा ठोस नहीं होगा और वह मात्र अनुमान ही लगा सकेगा कि आदेष के क्या कारण रहे हैं एक ऐसा रास्ता जो कि वांछनीय नहीं है। कारण जो कि एक न्यायालय को निर्णय तक पहंुचने में मदद करते हैं, एक न्यायिक आदेष का आवष्यक अंग है और जिस आदेष में कारण नहीं दिये गये हो उसे आवष्यकीय आवष्यकताओं से विहीन समझा जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने कष्मीरी देवी बनाम दिल्ली प्रषासन (ए.आई.आर. 1988 सु.को. 1323) में कहा है कि अन्वीक्षण न्यायालय जिसके समक्ष दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 (8) के अन्तर्गत आरोप पत्र दाखिल किया गया है केन्द्रीय अन्वेशण ब्यूरो की मामले को उचित एवं सम्पूर्ण अनुसंधान करने के निर्देष देवे।
सुप्रीम कोर्ट ने इन्द्रजीत सिंह कहलो बनाम पंजाब राज्य के निर्णय दिनांक 03.05.06 में स्पश्ट किया है कि न्यायिक प्रषासन की षुद्धता की रक्षा करना न्यायपालिका की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए निर्विवादित रूप से मात्र उच्च न्यायालय का कार्य है। हम यह समझने में असमर्थ है कि जो न्यायिक अधिकारी कथित रिपोर्ट को देखने के पात्र है उच्च न्यायालय के विचार में उन्हें उनकी प्रतियां क्यों नहीं दी गयी अथवा उन्हें उनका उचित समय पर निरीक्षण क्यों नहीं करने दिया गया ताकि वे अपना पक्ष रख पाते। संभव है उच्च स्तरीय न्यायपालिका न्यायिक अधिकारियों के साथ वांछित गंभीरता से व्यवहार करती हो किन्तु ऐसा कठोर दण्ड तभी दिया जा सकता है जब पर्याप्त सामग्री रिकॉर्ड पर हो जिससे कि संतुश्ट हो सके कि उचित प्रक्रिया अपनायी गयी थी। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि उच्च न्यायालय ने न्यायिक अधिकारियों के साथ अनुचित बर्ताव किया। यदि प्रार्थना पत्र दिया जाता है उतर पुस्तिका सहित पक्षकारों को किसी भी प्रलेख के निरीक्षण का अवसर दिया जावेगा। राज्य का कर्त्तव्य है कि वह घोटाले को उजागर करे तथा किसी भी अधिकारी चाहे वह कितना ही उच्च क्यों न हो उसे बख्षा नहीं जावे।
लेखकीय टिप्पणी:-
विभागीय दण्डादेषों में पूर्ण अवसर दिये बिना अथवा अत्यधिक भारी दण्ड देना भी दोशी अधिकारी का पक्षपोशण नीति का रूप है। किसी अधिकारी को बिना अवसर दिये अथवा दुराचार से अधिक दण्ड देकर प्रकरण को कूटनीतिक तरीके से पूर्व नियोजित अपील में या न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप के लिए खुला छोड़ दिया जाता है ताकि दोशी अधिकारी उक्त कमियों के कारण दण्डादेष को चुनौति देकर निरस्त करवा सके।

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