Sunday 17 April 2011

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार


न्यायपालिका का स्थान सर्वोच्च एवं परमादरणीय माना गया है। संविधान के अनुसार महाभियोग को छोड़कर, विधायिका में भी न्यायाधीशों के आचरण के विषय में चर्चा करना मना है। अतः जन अपेक्षा यह है कि न्याय सदन भ्रष्टाचार से मुक्त हो तथा उनमें भ्रष्टाचार के प्रति शून्य सहिष्णुता  स्तर (Zero Tolerance Level) बनाये रखा जावे। वास्तविकता तो जनता जानती है किन्तु यक्ष प्रश्न  यह है कि आखिर न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार क्यों पनपता रहता है। इसके प्रमुख कारण निम्नानुसार है।
प्रथमतः तो न्यायपालिका में न्यायिक स्टाफ से लेन देन पेशेवर दलाल वकीलों के माध्यम से होता है। अतः सामान्यतः रंगे हाथों पकड़े जाने की संभावनाए  नगण्य है। दूसरा सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य न्यायाधीश की अनुमति के बिना किसी भी न्यायाधीश  के विरूद्ध मामला दर्ज करने पर रोक लगा रखी है। अतः पुलिस या अन्य जांच एजेन्सी इन मामलों में हाथ डालने से कतराती है। तृतीय किन्तु महत्वपूर्ण यह है कि न्यायाधीशों के विरूद्ध आने वाली शिकायतों पर सामान्यतः न्याय प्रशासन कोई कार्यवाही नहीं करके उन्हें फाईल कर देता है तथा इस बात का इन्तजार करता है कि कब कोई गंभीर शिकायत आये और तब भी दोषी न्यायिक अधिकारी से त्याग पत्र मांगकर अथवा बिना किसी दण्ड के अनिवार्य सेवानिवृति देकर प्रकरण का पटाक्षेप कर दिया जाता है। स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने लखनऊ विकास प्राधिकरण बनाम एम.के. गुप्ता (ए.आई.आर. 1994 सु.को. 787) में कहा है कि लोगों द्वारा विरोध के अभाव में समाज में अपराध तथा भ्रष्टाचार पनपते एवं फलते फूलते हैं। लाचारी की भावना से अधिक घातक और कुछ नहीं है। कार्यालयों की अवांछनीय कार्यशैली के दबाव का मुकाबला कर शिकायत तथा संघर्ष के स्थान पर एक सामान्य नागरिक घुटने टेक देता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन मामलों में तुरन्त ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है, लटकते रहते हैं और आम आदमी को बिना किसी परिणाम के इधर-उधर दौड़ाया जाता है।
हाल ही में स्वतन्त्र भारत के इतिहास में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश  निर्मल यादव के प्रथम प्रकरण में भी ऐसे ही लक्षण दिखाई देते हैं। दरोगा सिंह बनाम बिहार राज्य के निर्णय दिनांक 13.04.04 में स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि ऐसा नहीं है कि उसके उच्चाधिकारियों को  अभियुक्तों के चरित्र का पूर्व में ज्ञान नहीं था और उन्हें ऐसी जानकारी रखनी चाहिए। ठीक यही बात न्यायाधीश  निर्मल यादव के विषय में समान रूप से लागू होती है। प्रश्न  यह है कि क्या निर्मल यादव के दुराचरण का यह पहला ही प्रकरण था। क्या निर्मल यादव के आचरण के विषय में पहले कोई शिकायत प्राप्त नहीं हुई थी ? यदि हां तो उन पर क्या कार्यवाही हुई ? पारदर्शी  लोकतन्त्र में निष्पक्ष  न्याय प्रशासन से जनता इन प्रश्नों  के उत्तर की अपेक्षा करती है। फिर भी यह विश्वास नहीं होता कि एक महिला ने प्रथम बार में ही इतना बड़ा दुस्साहस कर लिया हो। अब समय आ गया है कि यदि न्यायपालिका को अपनी छवि बेदाग रखनी हो तो जनता से प्राप्त प्रत्येक शिकायत पर पारदर्शी  ढंग से कार्यवाही करनी होगी अन्यथा न्यायपालिका के दामन पर इतने दाग लग जायेंगे कि स्वयं न्यायपालिका दिखाई ही नहीं देगी। ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण अवसर नहीं आये इसके लिए न्यायपालिका को भी सार्वजनिक जांच के लिए तैयार रहना चाहिए। यदि न्यायपालिका निष्ठावान है तो उसे लेशमात्र भी संकोच नहीं होना चाहिए। आधारहीन आरोपों के विरूद्ध जो उपचार आम नागरिकों को उपलब्ध है समान रूप से न्यायपालिका भी उनसे वंचित नहीं है। चालू दशक में न्यायिक अधिकारियों के उभरते दुराचरण के मामले इस मांग को बलवती बना रहे है।


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