Wednesday 27 April 2011

न्यायिक आचरण -3


राजस्थान उच्च न्यायालय ने डी.के. परिहार बनाम भारत संघ (ए.आई.आर. 2005 राज. 171) में कहा है कि यह है कि एक मौलिक आवष्यकता है कि एक न्यायाधीष का षासकीय व व्यक्तिगत आचरण अनौचित्य से मुक्त हो, यह औचित्य एवं जांच के उच्चतम मानकों के समान होना चाहिए। न्यायाधीष के आचरण का स्तर एक आम आदमी और एक वकील के स्तर से ऊँचा होने की अपेक्षा की जाती है। यहां तक कि उसका व्यक्तिगत जीवन अन्य लोगों के लिए स्वीकार्य स्तर से उच्च होना चाहिए। इसलिए एक न्यायाधीष समाज के गिरते स्तर से षरण नहीं मांग सकता। न्यायाधीष मात्र मिट्टी के माधों नहीं होने चाहिए जिनमें मानवीय असफलताएंे एवं कमजोर चरित्र हो। वे ऐसे संघर्शी व्यक्तित्व के धनी होने चाहिए जो आर्थिक, राजनैतिक अथवा अन्य किसी प्रकार के दबाव से अप्रभावित रहें। न्यायपालिका की वास्तविक एवं दिखाई देने वाले स्वतन्त्रता पारदर्षिता तभी होगी जब पदाधिकारीगण एक अभेद्य किले की तरह कार्य करेंगे कि कोई भी अनुचित प्रयास न्यायपालिका की स्वतन्त्रता में विष्वास न डगमगा सके।
इसी बात को सुप्रीम कोर्ट ने कृश्णा स्वामी बनाम भारत संघ (ए.आई.आर. 1993 सु.को. 1407) में कहा और पुनरावृति की है कि अधिनियम में प्रयुक्त अनुसंधान या जांच षब्द समानार्थी एवं आपस में रद्दोबदल योग्य है। किसी भी सांविधिक प्राधिकारी या लोक प्राधिकारी का कोई कार्य, निर्णय या आदेष जिसमें तर्क का अभाव है मनमाना, अनुचित एवं अन्यायपूर्ण होने के कारण संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है या अनुच्छेद 21 के अतिक्रमण में अनुचित प्रक्रिया का अनुसरण करते हुए लिया गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने गोविन्द षरण अग्रवाल बनाम पंडित हरदेव षर्मा त्रिवेदी (1983 क्रि.ला.रि. सु.को. 558) में यह रेखांकित किया है कि हमारे सम्मुख यह आया है कि इसी न्यायाधीष ने रूपये 5000/- एक सिविल वाद में तथा अंतरिम आदेष में रूपये 1500/- जब खर्चा दिलाया। यदि अपीलार्थी को इस कारण अंदेषा हो तो यह नहीं कहा जा सकता कि अंदेषा निराधार है।
न्यायाधीष के दुराचरण के प्रकरण षिवकान्त त्रिपाठी बनाम उत्तर प्रदेष राज्य में निर्णय दिनांक 22.01.08 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा है कि अनिवार्य सेवानिवृति का उद्देष्य सूखी लकड़ी को उखाड़ना है ताकि न्यायिक सेवाएं अप्रदूशित बनी रहकर दक्षता एवं ईमानदारी के उच्च मानक बनाये रख सके। यह प्राधिकारी को इस बात के लिए सषक्त करती है कि संदिग्ध निश्ठा वाले अधिकारियों के विशय में अर्जित प्रभाव के आधार पर उन्हें सेवा निवृति दी जा सके। क्योंकि एक अधिकारी विषेश बेईमान है ऐसा सकारात्मक साक्ष्य से साबित करना असंभव है। यह कटु सत्य है कि भ्रश्टाचार कैंसर की भांति राजनीतिक षरीर की षिराओं को खा रहा है। लोक सेवाओं में दक्ष और ईमानदार अधिकारियों का मनोबल गिरा रहा है। लोक सेवाओं में दक्षता केवल तभी बढे़गी जब लोक सेवक अपना निश्ठायुक्त ध्यान देंगे और कर्त्तव्यों का निर्वहन बुद्धिमतापूर्वक, सत्यनिश्ठापूर्वक, ईमानदारी से करते हैं तथा अपने पद से जुड़े कर्त्तव्यों के निर्वहन में लगनपूर्वक समर्पित होते हैं। भ्रश्ट की प्रतिश्ठा दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जायेगी तथा धूंए से भी तेज गति से प्रसारित होगी। कई बार रिकॉर्ड का हिस्सा बनाने के लिए कोई ठोस या सषक्त प्रमाण नहीं होते। अतः पुलिस अधीक्षक की भांति रिपोर्ट करने वाले अधिकारी के लिए गोपनीय रिपोर्ट लिखते समय कोई विषेश उदाहरण प्रमाण सहित देना अव्यावहारिक हो जाता है। प्रायः भ्रश्ट अधिकारी इस प्रकार तोड़ मरोड़ करते हैं और विषिश्ठ दृश्टान्त के रूप में उल्लेख के लिए पाये जाने योग्य कोई प्रमाण नहीं छोड़ते हैं।
न्यायाधीषगण प्रायः मुकदमों को सुनवाई हेतु स्थगित करते रहते हैं तथा गवाहों के बार-बार उपस्थित होने की परेषानी का आकलन नहीं करते। ऐसे ही प्रकरण उत्तर प्रदेष राज्य बनाम षम्भूनाथ सिंह (ए.आई.आर. 2001 सु.को.1403) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यदि एक गवाह मौजूद हो तो उसकी गवाही उसी दिन ली जानी चाहिए। न्यायालय को यह जानना चाहिए कि अधिकांष गवाह भारी खर्चे पर अपने व्यवसाय से वंचित रहकर न्यायालय पहुंचते है। सामान्यतः गवाह को दिया जाना वाला लगभग नगण्य भत्ता उसे हुए आर्थिक नुकसान की नाम मात्र की पूर्ति करने की सांत्वना देता है। यह दुखद है कि जिन गवाहों को बुलाया जाता है वे प्रातः से लेकर संध्या तक न्यायालय के द्वार पर खड़े रहते हैं और दिन के अंत में उन्हें अन्य दिन के लिए स्थगन सूचित किया जाता है। इस आदिकालीन प्रथा में पीठासीन अधिकारियों द्वारा सुधार किया जाना चाहिए और इसमें प्रत्येक सुधार कर सकता है बषर्ते कि सम्बन्धित पीठासीन अधिकारी की अपने कर्त्तव्यों के प्रति प्रतिबद्धता हो। इस प्रकार अनावष्यक स्थगन देकर गवाहों को आहूत कर पीठासीन अधिकारियों को अपनी न्यायिक षक्तियों के आयामों के कारण कतारबद्ध खड़े देखने में दुखद प्रसन्नता महसूस नहीं करनी चाहिए।

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