Monday 2 May 2011

न्यायिक आचरण -8


सुप्रीम कोर्ट ने गुडीकांति नरसिंहला बनाम लोक अभियोजक (ए.आई.आर. 1978 सुको 429) में कहा है कि यद्यपि न्यायाधीष मुक्त है। उसे अपनी प्रसन्नता के लिए नये-नये कार्य नहीं करने होते हैं। वह कोई साहसी नहीं है जो अपनी सुन्दरता या अच्छाई की तलाष में भटकता हो। उसे अपनी प्रेरणा पवित्र सिद्धान्तों से लेनी है। उसे अनियमित परम्पराओं या व्यर्थ बातों का अनुसरण नहीं करना  अन्यथा नकारात्मक क्षेत्र से पक्षपात की रोषनी निकलती है। कानून की सुधारात्मक प्रवृति उन्हें सुरक्षात्मक एवं सुधारात्मक बन्धनों में बांधकर मुक्त करने की भूमिका अदा करती है। गरीब व्यक्ति से भारी जमानत मांगना स्पश्टतया गलत है। गरीबी सामाजिक बुराई है और सहानुभूति न कि सख्ती न्यायिक जवाब है।
न्यायाधीषों के स्थानान्तरण के प्रकरण भारत संघ बनाम सांकलचन्द हिमतलाल सेठ (1977 ए.आई.आर. 2378) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने विचार व्यक्त किया कि उसे एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायाल में भेजना असंदिग्ध रूप से जनहित में होगा। इससे उसके संपूर्ण कुकृत्यों को विराम नहीं लगेगा लेकिन उन्हें कम किया जा सकेगा। चूंकि वह मुख्य न्यायाधीष या अन्य साथी न्यायाधीषों के साथ ठीक ढंग से नहीं चल रहा है ऐसा स्थानान्तरण दण्डात्मक स्वरूप में होगा। मैं यहां स्पश्ट करना चाहता हूं कि ऐसी स्थिति में स्थानान्तरण प्राकृतिक न्याय में होगा। षक्ति तथा सीमाओं पर न्यायाधीष अध्यक्ष होता है। न्यायिक स्वतन्त्रता हमारा संवैधानिक धर्म है और यदि सरकारी अधिकारी इस मौलिक सिद्धान्त को गंभीर क्षति पहुंचाने के लिए अनुच्छेद 222 का प्रयोग करते हैं तो न्यायालय को ‘करना या मरना’ चाहिए। विधि का षासन मौजूद है क्योंकि यदि न्यायाधीषों का आचरण कार्यवाही करने योग्य है तो न्यायाधीषों और साक्षियों के विरूद्ध कार्यवाही की जायेगी।
सुप्रीम कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड संघ बनाम भारत संघ (ए.आई.आर. 1994 सु.को. 268) के मामले में कहा है कि चूंकि न्यायपालिका न्यायाधीषों के चयन के मामले में सर्वोतम परामर्षी है इसलिए न्यायाधीषों की नियुक्तियों में उनकी मुख्य भूमिका होनी चाहिए । जब राज्य की न्यायिक सेवाओं के लिए योग्य और सक्षम लोग ,जिनकी उच्च स्तरीय ईमानदारी एवं निश्ठा हो, का ही चयन हो क्योंकि हमारे पास यदि अच्छे सक्षम और ईमानदार न्यायाधीष होंगे तो राज्य की लोकतांत्रिक षासन प्रणाली दांव पर होगी। यह ध्यान देने योग्य है कि गैर-मनमानापन जो कि विधि के षासन का आवष्यक लक्षण है संविधान का मूल विचार है और ऐसी सम्पूर्ण षक्ति का एक व्यक्ति विषेश में अभाव होना संविधान की किसी भी गतिविधि का पूरक भाग है। विधि का षासन कहता है कि यद्यपि विवेकाधिकार का सीमित प्रयोग व्यावहारिक आवष्यकता है किन्तु विवेकाधिकार न्यूनतम हो और गैर मनमानेपन के लिए सुपरिचित सिद्धान्तों या दिषा-निर्देषों का पालन हो । लोक अधिकारी में निहित प्रत्येक षक्ति सार्वजनिक उद्देष्यों की पूर्ति के लिए प्रयुक्त की जानी चाहिए और आवष्यक रूप से समाज हित में आगे बढ़ाने के लिए प्रयोग की जानी चाहिए। नियुक्ति की प्रक्रिया यथा समय पूर्व प्रारम्भ की जानी चाहिए ताकि यह सुनिष्चित हो सके कि पद रिक्त होने की संभावित तिथि से एक माह पूर्व प्रक्रिया पूर्ण हो जावे और उसके तुरन्त बाद नियुक्ति की घोशणा हो जावे ताकि किसी प्रकार की अनिष्चितता न रहे। उच्च न्यायालय में न्यायाधीषों की संख्या का निर्धारण वाद योग्य है और यदि यह प्रकट होता है कि न्यायाधीषों की संख्या सर्वोत्तम दक्षता के बावजूद अनुच्छेद 21 के अनुसार त्वरित न्याय के लिए अपर्याप्त है तो अनुभव की गई आवष्यकतानुसार राज्य के दायित्व की पूर्ति के लिए न्यायाधीषों की संख्या निर्धारण हेतु दिषा निर्देष दिये जा सकते हैं। ठीक इसी समय यह नहीं भूलना चाहिए कि इस संस्थागत कार्य में न्यायालय किसी अज्ञात नये अधिकार का सृजन नहीं कर रहा है अपितु नई परिस्थितियों में बेहतर समझ के दृश्टिकोण से छिपे हुए विद्यमान अधिकारों की खोज और घोशणा मात्र कर रहा है। यह अटल सत्य है कि कानून स्थिर और अपरिवर्तनीय नहीं है अपितु आगे बढ़ता हुआ गतिषील है व समय व्यतीत होने के साथ-साथ प्रगतिषील है। न्यायालय का कर्त्तव्य है कि वह अपने निर्णयों तथा आदेषों को संषोधित करे, सुधार करे या वापिस ले जब इसके ध्यान में लाया जावे कि वे आदेष कुछ गलत तथ्यों की धारणाओं पर पारित किये गये थे और उन्हें लागू करने के गंभीर परिणाम होंगे। सरकार का लक्ष्य न्याय है। यह सभ्य समाज का लक्ष्य है। हमारी संवैधानिक योजना में न्यायपालिका को लोगों को सामाजिक, आर्थिक न्याय का कार्य हाथ में लेना है। न्याय का प्रषासन न्यायालयों के माध्यम से सम्पन्न करना है और ऐसा प्रषासन जैसा कि संविधान की उद्देषिका में कहा गया है सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक पहलुओं पर होगा और चूंकि संविधान के इस आदेष की पूर्ति करने के लिए न्यायपालिका सर्वाधिक प्रमुख अंग है अतः संवैधानिक कार्यकारियों द्वारा संविधान के अतिक्रमण में किये जाने वाले कार्यों पर नियंत्रण करना और सतर्कतापूर्वक निगरानी रखना न्यायपालिका का कार्य है। न्यायपालिका को ऐसे लोगों से दूर रखने की आवष्यकता है जो हावी होकर संघर्श उत्पन्न करते हों, जो अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए सिद्धान्तों के साथ समझौते करते हों, ऐसे व्यक्ति जो न तो ऐतिहासिक हों और न ही भविश्य के पैगम्बर हों अपितु अल्पकालीन अस्तित्व में विष्वास रखते हो। उच्च न्यायपालिका के लिए आकाष के नीचे कोई भी प्रकरण, अंतर्निहित सीमा के अधीन, पुनरीक्षण हेतु खुला है। हम न्यायिक पुनरीक्षण में मात्र कार्यकारी, प्रषासनिक या अर्द्धन्यायिक आदेषों को ही निरस्त नहीं करते अपितु नये दिषा निर्देषों एवं सकारात्मक कार्य भी करते हैं। प्रायः माना जाता है कि अर्थान्वयन के माध्यम से न्यायालय नीति निर्माता है। इसका दृश्टिकोण सरकार द्वारा नीति निर्माण में महत्वपूर्ण है। इंग्लैण्ड के लॉर्ड चांसलर ने कहा है न्यायपालिका में भले व्यक्तियों की आवष्यकता है और कानून का कुछ ज्ञान तो एक लाभ मात्र है।

No comments:

Post a Comment