Tuesday 20 December 2011

अधिकांश सूचनाएं लोक प्राधिकारी द्वारा स्वप्रेरणा से धारा 4 के अन्तर्गत देनी है

उतराखण्ड उच्च न्यायालय ने राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष  आयोग बनाम उतराखण्ड राज्य सूचना आयोग के निर्णय दिनांक 27/03/10 में कहा है कि सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 का मौलिक सिद्धान्त है कि सूचना जैसा कि अधिनियम में परिभाषित है  नागरिकों को सूचना बिना बाधा या नौकरशाही के व्यवधान के दी जानी चाहिए। अधिनियम इसके उद्देश्य तथा कारणों में कहता है कि यह नागरिकों को सूचना के अधिकार के व्यावहारिक शासन देने के लिए अधिनियमित किया गया है। यहां तक कि आज भी यह भ्रान्त धारणा है कि सूचना नागरिकों द्वारा मांगने पर ही दी जाती है। मामला यह नहीं है अधिकांश  सूचनाएं लोक प्राधिकारी द्वारा स्वप्रेरणा से धारा 4 के अन्तर्गत देनी है तथा इन्टरनेट सहित विभिन्न साधनों से अद्यतन करनी है ताकि सूचना प्राप्ति हेतु इस अधिनियम का प्रयोग न्यूनतम करना पड़े। दूसरे शब्दों में लोक प्राधिकारी को इस प्रकार प्रयास करने चाहिये कि नागरिकों को सूचना उपलब्ध संचार संसाधनों इन्टरनेट सहित से तैयार मिले ताकि उन्हें धारा 6 के अन्तर्गत आवेदन ही न करना पड़े। एक सूचना नागरिक को ऐसी भाशा में दी जानी चाहिए जिसे वह समझता हो। यह विधायी आदेश  है कि क्षेत्र की स्थानीय भाषा को देखते हुए सूचना प्रसारित की जानी चाहिए। ऐसा ही आदेश  संविधान के अनुच्छेद 350 सहपठित अनुच्छेद 345 में दिया गया है। चूंकि लोक प्राधिकारी द्वारा पारित आदेश  एक प्रलेख है तथा धारा 2 (आई) एवं 2 (एफ) में सूचना है। इस बात में कोई विवाद नहीं है कि राज्य उपभोक्ता आयोग राज्य का उपकरण है। उन्हें राज्य के समेकित कोष  से वेतन दिया जाता है तथा राज्य सरकार द्वारा उनकी सेवा शर्तें नियत की जाती है। एक लोक प्राधिकारी को नागरिकों को सुगम तरीके से नागरिकों को  सूचनाएं देने में सुविधा देनी चाहिए।

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