Saturday 18 February 2012

आपराधिक न्याय प्रशासन का मखौल उडाता लोक अभियोजन



न्यायालय के साथसाथ, पुलिस और लोक अभियोजक आपराधिक न्याय प्रशासन के आधार स्तंभ हैं| पुलिस किसी मामले में तथ्यान्वेषण करती है और लोक अभियोजक उसे प्रस्तुत कर अभियुक्त को दण्डित करवाने हेतु पैरवी करते हैं| सामान्य अपराधों का परीक्षण मजिस्ट्रेट न्यायालयों द्वारा होता है और गंभीर (जिन्हें जघन्य अपराध कहा जाता है) अपराधों का परीक्षण सामान्यतया सत्र न्यायलयों द्वारा किया जाता है| वैसे अपराधों के इस वर्गीकरण में राज्यवार थोडा बहुत अंतर भी पाया जाता है किन्तु समग्र रूप में भारत  में लगभग स्थिति एक जैसी ही है|

विडम्बना यह है कि निचले स्तर के मजिस्ट्रेट न्यायालयों में तो पैरवी हेतु अभियोजन सञ्चालन के लिए पूर्णकालिक स्थायी सहायक लोक अभियोजक नियुक्त होते हैं किन्तु ऊपरी न्यायालयों सत्र न्यायालय, उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट में अभियोजन के सञ्चालन के लिए मात्र अंशकालिक और अस्थायी लोक अभियोजक नियुक्त किये जाते हैं| इन लोक अभियोजकों को नाम मात्र का पारिश्रमिक देकर उन्हें अपनी आजीविका के लिए अन्य साधनों से गुजारा करने के लिए खुला छोड़ दिया जाता है| वर्तमान में लोक अभियोजकों को लगभग सात हजार रुपये मासिक पारिश्रमिक दिया जा रहा है जबकि सहायक लोक अभियोजकों को  पूर्ण वेतन लगभग तीस हजार रुपये दिया जा रहा है| यह भी एक विरोधाभाषी तथ्य है कि सामान्य अपराधों के लिए निचले न्यायालयों में स्थायी सहायक लोक अभियोजक नियुक्त हैं जबकि ऊपरी न्यायलयों में संगीन अपराधों के परीक्षण और अपील की पैरवी को अल्पवेतनभोगी अस्थायी लोक अभियोजकों के भरोसे छोड़ दिया गया है| यह स्थिति आपराधिक न्याय प्रशासन का उपहास करती है और अपराधों के रोकथाम व अपराधियों को दण्डित करने के प्रति सरकारों  की संजीदगी का एक नमूना पेश करती है |

लोक अभियोजकों की नियुक्तियां सत्तासीन राजनैतिक दल द्वारा अपनी लाभ हानि का समीकरण देखकर की जाती हैं और लोक अभियोजक भी अपने नियोक्ता के प्रसाद ( प्रसन्नता) का पूरा ध्यान रखते हैं अन्यथा उन्हें सरकारी कोपन भाजन का किसी भी समय शिकार होने पर पद गंवाना पड़ सकता है| कहने का तात्पर्य यह है कि संगीन जुर्मों के अपराधियों को यदि सरकारी संरक्षण प्राप्त हो तो उस प्रकरण में लोक अभियोजक के माध्यम से पैरवी में ढील देकर दण्डित होने से बचा जा सकता है| भारत में राजनीति के अपराधीकरण के लिए यह भी एक प्रमुख करक है| सरकार जिसे दण्डित नहीं करवाना चाहे उसके विरुद्ध पैरवी में ढील के निर्देश दे सकती है|

न्यायप्रशासन की स्वतंत्रता के लिए प्रायः देश के न्यायविद और उनके समर्थक तर्क देते हैं कि न्याय प्रशासन की पवित्रता के लिए न्यायपालिका की स्वतन्त्रता एवं न्यायाधीशों का निर्भय, एवं उनकी नौकरी का स्थायित्व  होना आवश्यक है| यक्ष प्रश्न यह है कि जब न्यायप्रशासन के अहम स्तंभ लोक अभियोजक की सेवा की अनिश्चितता जनित न्यायप्रशासन पर संभावित प्रतिकूल प्रभाव को देश वहन कर सकता है तो  न्यायाधीशों की सेवा की अनिश्चितता से देश वास्तव में किस प्रकार कुप्रभावित होगा| अर्थात न्यायाधीशों की सेवा को भी स्थायी रखने की कोई आवश्यकता नहीं है|
वैसे भी लोक अभियोजक इतने अल्प पारिश्रमिक के लिए पैरवी में न तो कोई रूचि लेते हैं और न ही न्यायालयों द्वारा सामान्यतया अभियुक्तों को दण्डित किया जाता है| राजस्थान के एक जिले के आंकड़ों के अनुसार वर्ष में दोषसिद्धि का मामले दर्ज होने से मात्र 1.5% का अनुपात है| यह तथ्य भी उक्त स्थिति की पुष्टि करता है| लोक अभियोजक भी अपनी आजीविका के लिए अनैतिक साधनों पर आश्रित रहते हैं| यह तो सपष्ट है ही कि भारतीय न्यायालयों से दण्डित होने की बहुत कम संभावनाएं हैं  किन्तु अभियोजन पूर्व की यातनाओं से मुक्ति पाना एक बड़ा कार्य है जिसके लिए न्यायालयों की स्थापना अपना आंशिक औचित्य साबित करती है| भारत के राष्ट्रीय पुलिस आयोग का कहना भी है कि देश में 60% गिरफ्तारियां अनावश्यक होती है जिन पर जेलों का 43.2% खर्चा होता है| माननीय सुप्रीम कोर्ट भी जोगिन्दर कुमार के मामले में कह चुका है कि जघन्य अपराध के अतिरिक्त गिरफ्तारी को टाला जाना चाहिए और मजिस्ट्रेटों पर यह दायित्व डाला गया है कि वे इन निर्देशों की अनुपालना सुनिश्चित करें| किन्तु मजिस्ट्रेटों के निष्क्रिय सहयोग से स्वार्थवश पुलिस अनावश्यक  गिरफ्तारियां करती रहती है और वकील न तो इनका विरोध करते और न ही मजिस्ट्रेट से इन अनुचित गिरफ्तारियों में दंड प्रक्रिया संहिता की  धारा 59 के अंतर्गत बिना जमानत रिहाई की मांग करते हैं| उलटे इन अनावश्यक गिरफ्तारियों में भी जमानत से इन्कार कर गिरफ्तार व्यक्ति को मजिस्ट्रेटों और न्यायाधीशों द्वारा जेल भेज दिया जाता है|

चूँकि न्यायालयों द्वारा दोषियों के दण्डित होने की संभावनाएं अत्यंत क्षीण हैं अतः लोक अभियोजकों की भूमिका अग्रिम एवं पश्चातवर्ती जमानत तक ही प्रमुखत: सीमित हो जाती है| प्रचलित परम्परानुसार एक गिरफ्तार व्यक्ति की जमानत (चाहे उसकी गिरफ्तारी अनावश्यक या  अवैध ही क्यों न हो) के लिए भी लोक अभोयोजक के निष्क्रिय सहयोग की आवश्यकता है अर्थात जमानत आसानी से हो जाये इसके लिए आवश्यक है कि लोक अभियोजक की ओर से जमानत का विरोध नहीं हो| वकील समुदाय में आम चर्चा  होती रहती है कि वकील को बोलने के लिए जनता से फीस मिलती है जबकि सरकारी वकील को चुप रहने के लिए जनता फीस (नजराना) देती है| ऐसा नहीं है कि यह तथ्य सरकार की जानकारी में नहीं हो| क्योंकि सरकार को भी स्पष्ट ज्ञान है कि जिस प्रकार राशन डीलर, स्टम्प विक्रेता आदि सरकार से मिलने वाले नाममात्र के कमीशन पर जीवन यापन नहीं कर सकते और वे अपने जीवन यापन के लिए अन्य अवैध कार्य भी करते हैं ठीक उसी प्रकार अधिकांश लोक अभियोजक और सरकारी वकील भी अनैतिक कार्य करते हैं यह तथ्य बड़ा स्पष्ट है|  



4 comments:

  1. सहायक लोक अभियोजको का बतोर लोक अभियोजक पदोनती में मुख्य दुविधा ये रहती है की उन्हें सत्र न्यायलय द्वारा विचारणीय मामलो का अनुभव नहीं होता .. और वर्तमान व्यवस्था पे आपने वस्तु स्थिति पे सुन्दर परकाश डाला है ... मेरे मत में सहायक लोक अभियोजक की परीक्षा का सञ्चालन यदि ७ वर्ष के अनुभव के आधार पे आरपीएससी पे माध्यम से हो तो ये उचित माध्यम मार्ग होगा ...

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    1. एक मजिस्ट्रेट, बिना उच्च पद के अनुभव के, क्रमश: जिला न्यायाधीश, उच्च न्यायालय न्यायाधीश और उच्चतम न्यायालय न्यायाधीश तक बन जाता है|स्मरण रहे इंग्लॅण्ड में सुप्रीम कोर्ट का प्रशासनिक मुखिया लोर्ड चांसलर एक सांसद , विश्वविद्यालय में विधि का प्रोफ़ेसर भी हो सकता है तो ऐसे में मात्र जिला न्यायालय अनुभव के अभाव में सहायक लोक अभियोजक को लोक अभियोजक नहीं बनाना भ्रान्ति मात्र है| चूँकि भारत भूमि पर ऐसी ही भ्रांत धारणाएं हैं जिनके कारण न्यायिक सुधारों में गतिमानता नहीं आ पाति है|जहां तक अनुभव का प्रश्न है यहाँ अनुभाव ही प्रमुख है , ज्ञान या शोध को महत्त्व नहीं दिया जाता है|भारत में मात्र आदिकाल से चली आरही परम्पराओं का ही अनुसरण हो रहा है कानून का नहीं |दुर्भाग्य से मुश्किल से ही देश का कोई न्यायालय कानून के अनुसार संचालित हो रहा है अथवा देश के किसी न्यायाधीश या वकील को वास्तविक न्याय देने वाले कानून का ज्ञान है| आज विभन्न राजस्व व् अन्य तथाकथित न्यायालय के पीठासीन अधिकारी कानूनी ज्ञान नहीं रखते किन्तु वहाँ प्रेक्टिस करने वालों के लिए सनद आवश्यक होने के विसंगति पूर्ण प्रावधान हैं|उच्चतम न्यायालय के न्यायाधेश के लिए कोई परीक्षा उत्तीर्ण होना आवश्यक नहीं है किन्तु वहाँ वकील के लिए एडवोकेट ऑन रिकोर्ड परीक्षा उत्तीर्ण होना आवश्यक है| ये तो मात्र कुछ उदाहरण ही हैं|गहराई में जाएँ तो भारतीय न्याय व्यवस्था एक धोखे से अधिक कुछ भी नहीं है|

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    2. sir
      i would like your kindself to enlighten us on the issue of recent appointments of court managers in various high courts and district courts across the country. Do you think such appointments will bring any changes for the better in the current administrative set up of the courts. Do you think a court manager will prove to be a game changer? Does such appointments are a part and parcel to Judicial Reforms?
      Thank you
      Abhishek Singh

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  2. Indian Litigation Industry (Judiciary), while comparing with their foreign counterparts, requires complete overhauling. It has rotten from top to bottom, and turned hopeless for the poor and common man. Any small change will not serve the dreams of public. Theses small and piecemeal changes are being effected in a pure diplomatic and appeasing manner to mislead the mass that there is a government functioning for them.

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