Monday 27 February 2012

पुलिस अभिरक्षा में मृत्यु, कानून द्वारा शासित सभ्य समाज में एक कलंक है

दाण्डिक अपील संख्या ८५७/ १९९६  शकीला अब्दुल गफार खान बनाम वसंत रघुनाथ ढोबले में निर्णय सुनते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि  सरकार सर्वशक्तिमान और सर्वत्र व्याप्त अध्यापक की तरह लोगों के सामने उदाहरण प्रस्तुत करती है, यदि सरकार ही कानून तोडने वाली हो जाये तो यह कानून के अपमान को जन्म देती है| जमीनी हकीकत को नजरंदाज कर, ऐसे समय में जब स्वयं अभियोजन एजेंसी की भूमिका दांव पर हो तो मामले को प्रत्येक संभावित संदेह से परे साबित करने की अपेक्षा करना, प्रकरण विशेष की परिस्थितियों में जैसा कि वर्तमान मामले में ,न्यायिक स्खलन में परिणित होता है व न्यायप्रणाली को संदेहास्पद बनाता है| अंतिम परिणाम में समाज पीड़ित होता है और अपराधी प्रोत्साहित होता है| पुलिस अभिरक्षा में यातनाओं में हाल ही में हुई वृद्धि से न्यायालयों की  इस अवास्तविक विचारधारा  से प्रोत्साहित होती है इससे लोगों के दिमाग में यह विश्वास मजबूत होता है कि यदि एक व्यक्ति की लोकप में मृत्यु हो जाती है तो भी उनका कुछ भी नहीं बिगडेगा कारण कि उसे यातना के प्रकरण में प्रत्यक्ष रूप से लपेटने के लिए अभियोजन के पास मुश्किल से ही कोई साक्ष्य उपलब्ध  होगा| न्यायालय को इस तथ्य को नजरंदाज नहीं करना चाहिए कि पुलिस अभिरक्षा में मृत्यु, कानून द्वारा शासित सभ्य समाज में एक कलंक है और यह व्यवस्थित सभ्य समाज के लिए गंभीर खतरा है| अभिरक्षा में यातनाएं भारतीय संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों का हनन हैं और यह मानवीय गरिमा से टकराव हैं|



बंदी के साथ पुलिस ज्यादतियां और दुर्व्यवहार किसी भी सभ्य राष्ट्र की छवि को कलंकित करते हैं और खाकी वर्दी वालों को अपने आपको कानून से ऊपर  व कई बार तो स्वयं को ही कानून समझने को प्रोत्साहित करते हैं| यदि स्वयं बाड़ द्वारा खेत को खाने की दूषित मनोवृति को कड़े उपाय कर रोकने का यत्न नहीं किया गया तो  आपराधिक न्याय प्रदनागी निकाय की नींव ही हिल जायेगी और सभ्यता का अव्यवस्था की ओर बढकर विनाश होने व जंगली युग में परिणित होने का गंभीर खतरा उत्पन्न हो जायेगा| इसलिए न्यायालयों को चाहिए कि वे ऐसे मामलों में वास्तविक ढंग से और वांछित संवेदना के साथ कार्यवाही करें अन्यथा आम आदमी का न्यायिक निकाय की विश्वसनीयता में से धीरे धीरे विश्वास उठ जायेगा, यदि ऐसा हुआ तो यह बहुत ही दुखद दिन होगा| यदि मात्र तर्क के लिए ही यह मान लिया जाया कि अभियुक्त को दोष सिद्ध करने के लिए पर्याप्त सामग्री नहीं है तो भी सरकार का यह कर्तव्य है कि वह स्पष्ट करे कि व्यक्ति को किन परिस्थितयों में चोटें आयीं व उपयुक्त मामले में इसके कार्यकारियों यह निर्देश दिए जा सकते हैं कि राज्य सरकार द्वारा मामलें में अग्रिम कार्यवाही हेतु ध्यान में लाया जाय| न्यायालय का कर्तव्य है कि वह अनाज में से फूस को अलग करे| किसी साक्ष्य या सामग्री विशेष का मिथ्या होने से मामला प्रारम्भ से अंत तक समाप्त नहीं हो जाता है| भारत में यह सिद्धांत बहुत जोखिमपूर्ण है कि यदि एक साक्षी झूठ कहा रहा है तो उस सम्पूर्ण साक्ष्य को ही नकार दिया जाय किन्तु यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि न्याय प्रशासन प्रभावित लोगों को न्याय देने के लिए ही  अस्तित्व में है| 
विचारण/प्रथम अपील न्यायालय मात्र तकनीकि बारीकियों से प्रभावित नहीं हो सकते और उन तथ्यों को अनदेखा नहीं कर सकते जिनकी सकारात्मक जांच करने और ध्यान देने की आवश्यकता है| न्यायालय विचारण के उद्देश्य अर्थात सत्य प्राप्त करने और उस भूमिका से असावधान रहने जिसके लिए संहिता में पर्याप्त शक्तियाँ हैं, को नजरंदाज कर मात्र एक साक्ष्य दर्ज  करने वाले टेप रिकोर्डेर  की भांति कार्य करने के लिए ही नहीं है| इस पर भारी कर्तव्य और दायित्व अर्थात न्याय देना है, विशेष कर ऐसे मामले में जहां स्वयं अभियोजन एजेंसी की भूमिका ही विवादित हो|  कानून को प्राणहीन रूप से बैठे नहीं देखा जाना चाहिए जिससे कि जो इसकी अवज्ञा करे बच निकले और जो इसका संरक्षण मांगे वह निराश हो बैठे | न्यायालयों को यह सुनिश्चित करना है कि दोषियों को दण्डित किया जाय और यदि अनुसन्धान या अभियोजन में कोई कमी दिखाई देती है या पर्दा उठा कर समझी जा सकती है तो उसके साथ कानूनी ढांचे के भीतर उचित ढंग से व्यवहार किया किया जाय| जैसा कि लोकप्रिय है यद्यपि कानून को अंधा दिखाया जाता है किन्तु यह मात्र एक पर्दा है जो पक्षकारों को नहीं देखने के लिए है और यह अन्याय  को रोकने के लिए अपने कर्तव्य  की उपेक्षा कर न्यायालय के सामने आये तथ्यों को नजरंदाज करने या हेतुक से मुंह मोडने के लिए नहीं है| This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it.
जब एक सामान्य नागरिक शक्तिशाली प्रशासन, असहानुभूती, अकर्मण्यता ,या आलस्य के विरुद्ध शिकायत करता है तो न्यायालय स्तर पर कोई भी अकर्मण्यता या सुस्ती से विकलांगता की प्रवृति बढ़ेगी और अंततोगत्वा चरणबद्ध रूप में विश्वास में गिरावट आकर ,देश का न्याय प्रदनागी निकाय ही नष्ट हो जायेगा| न्याय करना अत्यधिक महत्वपूर्ण कार्य है और इस कर्तव्य में लालफीताशाही की अनुमति नहीं दी जा सकती| 


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