Tuesday 2 August 2011

आशय परिस्थितियों से ही प्रमाणित हो सकता है

सुप्रीम कोर्ट ने{छेड़छाड़ के चर्चित प्रकरण}  रूपन देवल बजाज बनाम कंवरपाल सिंह गिल (1996 एआईआर 309) में कहा है कि यदि आशय या ज्ञान किसी अपराध के घटकों में से हो तो एक व्यक्ति की दोष सिद्धि के लिए अन्य घटकों की तरह साबित करना पड़ेगा। लेकिन समान रूप से यह भी सत्य है  कि ये घटक मानसिक स्थिति के हैं अतः इन्हें प्रत्यक्ष साक्ष्य से साबित नहीं किया जा सकता और मामले में की दी गई परिस्थितियों से ही अर्थ लगाया जा सकता है। अभिव्यक्ति हानि जो कि इस धारा में समाहित है कि व्याख्या में इस न्यायालय ने कहा है कि यह पर्याप्त विस्तृत है जिसमें शारीरिक क्षति के साथ-साथ क्षतिकारक मानसिक प्रतिक्रिया भी शामिल है। विधि द्वारा निर्धारित स्थिति कि एक एफआईआर या परिवाद को निरस्त करते समय उच्च न्यायालय द्वारा घटना की संभाव्यता, लगाये गये आरोपों की शुद्धता या विश्सनीयता की जांच करना न्यायोचित नहीं है। कारण स्पष्टता जोड़ते हैं और मनमानेमपन के आरोपों को न्यूनतम करते हैं। मजिस्ट्रेट पुलिस के निष्कर्षों से बाध्य नहीं है यहां तक कि वह परिवादी के परिवाद के निष्कर्षों से भी बाध्य नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने मध्यप्रदेश राज्य बनाम एस.बी. जोहरी (2000 एससीसी क्रि. 311) में कहा है कि उच्च न्यायालय ने प्रथम दृष्टया मामले पर विचार करने के स्थान पर रिकॉर्ड पर उपलब्ध सामग्री का इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए मूल्यांकन और वजन किया कि प्रत्यर्थी के विरूद्ध आरोप नहीं बनाये जाने चाहिए थे। यह सुनिश्चित नियम है कि आरोप बनाने के चरण पर न्यायालय को मात्र प्रथम दृष्टया यह देखना होता है कि क्या अभियुक्त के विरूद्ध कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार हैं। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने धारित किया कि उच्च न्यायालय के लिए अन्वीक्षण न्यायालय द्वारा बनाये गये आरोपों को निरस्त करने का कोई न्यायोचित कारण नहीं था।

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