Friday 12 August 2011

अन्तर्निहित शक्तियाँ आपवादिक तौर पर ही प्रयोज्य

सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र स्टेट इलेक्ट्रिसिटी डिस्ट्रीब्यूसन बनाम दातार स्वीच गियर (मनु/सुको/0815/2010) में कहा है कि उच्च न्यायालय को अन्तर्निहित शक्तियों का प्रयोग यदाकदा तथा न्यायालय की प्रक्रिया के दुरूपयोग को रोकने के लिए ही और इस बात का ध्यान रखते हुए कि न्याय के लक्ष्य सुरक्षित रहे । जहां कहीं भी कानूनी मान्यता के सिद्धान्त से प्रतिनिधिक तौर पर दायित्व बनता है और एक व्यक्ति जो कि अन्यथा अपराध कारित करने में दायी नहीं है ऐसा सम्बन्धित कानून में विशिष्टतया प्रावधान होना चाहिए। भा.द.सं. की धारा 192 या 199 में ऐसा कोई प्रतिनिधिक सिद्धान्त नहीं है अतः परिवादी को अपने परिवाद में प्रत्येक अभियुक्त के विषय में ऐसा विशिष्टिक कथन करना चाहिए था। अभियुक्त सं. 1 के विरूद्ध प्रथम दृष्टया मामला बनता है अतः उसके पक्ष में धारा 482 की शक्तियां प्रयोग नहीं की जा सकती।   
( व्यावहारिक स्थिति यह है कि प्रत्येक सक्षम अभियुक्त इन शक्तियों के प्रयोग हेतु उच्च न्यायलय अवश्य जाता है |  फिर भी दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा ४८३ में प्रकरणों के शीघ्र निपटान के लिए यह प्रावधान भी है कि प्रत्येक उच्च न्यायालय अपने अधीनस्थ न्यायिक मजिस्ट्रेटों के न्यायालयों पर अपने अधीक्षण का प्रयोग इस प्रकार करेगा जिससे यह सुनिश्चित हो जाये कि ऐसे मजिस्ट्रेटों द्वारा मामलों का निपटारा शीघ्र और उचित रूप से किया जाता है| किन्तु व्यावहारिक स्थिति लगभग ठीक विपरीत है| मामलों में धारा ४८२ के अंतर्गत निषेधाज्ञा जारी कर उन्हें वर्षों तक लटकने के लिए छोड़ दिया जाता है जब तक महत्वपूर्ण साक्ष्य नष्ट हो जायं और इतिहास के पन्नों से पुष्टि होती है कि धारा ४८३ की शक्तियाँ प्रयोग करने के उदाहरण दुर्लभ हैं| इस प्रकार दिखावटी न्याय द्वारा आपवादिक शक्तियों प्रयोग रोजमर्रा तौर पर और शीघ्र न्याय के पक्ष में शक्तियों का प्रयोग दुर्लभ ही किया जाता है| न्यायजगत से जुड़े लोगों का यह कथन निराधार लगत है कि समुचित कानून के अभाव में अपराधियों को दण्ड नहीं दिया जा सकता है| यक्ष प्रश्न यह है कि जो अछे प्रावधान कानूनों में पहले से ही हैं उनका कितना सदुपयोग किया जा रहा है| शायद इसका सम्यक जवाब नहीं है )
दिल्ली उच्च न्यायालय ने अजय जैन बनाम कम्पनी रजिस्ट्रार (मनु/दिल्ली/2450/2010) में कहा है कि याची कम्पनी ने भावी निवेशकों के लिए प्रविवरण जारी करते समय यह पूर्वानुमान दिया कि वह मात्र पट्टे का कार्य करेगी और असत्य व भ्रामक कथन निवेशकों को जारी किया। मिथ्या कथन का आशय निवेशकों को धोखा देना या गुमराह करना था। यह स्पष्ट है कि कथन जानबूझकर पूर्णतया जानते हुए कि धन जिस उद्देश्य के लिए संग्रहित किया जा रहा है नहीं लगाया जावेगा जारी किया गया। याची का तर्क कि मामला धारा 406 का बनता है चलने योग्य नहीं है। यह जानबूझकर गलत विवरण देने का मामला है और मियाद की अवधि तुलन पत्र फाईल करने की तिथि से गणना की जावेगी न कि प्रविवरण जारी करने से।

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