Saturday 13 August 2011

सिविल उपचार आपरधिक कार्यवाही में अवरोध नहीं है

सुप्रीम कोर्ट ने चर्चित प्रकरण हरियाणा राज्य बनाम भजनलाल (1992 सपली (1) एससीसी 335) में कहा है कि यदि पुलिस अनुसंधान न करे तो मजिस्ट्रेट हस्तक्षेप कर सकता है। अभिव्यक्ति-2 का अभिप्राय प्रत्येक मामले के तथ्यों व परिस्थितियों से अधिशासित हो और उस चरण पर एफआईआर में लगाये गये आरोपों के समर्थन में पर्याप्त प्रमाण का प्रश्न  नहीं उठता।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने नेमाचन्द मिश्रीलाल बनाम राजस्थान राज्य (1996 क्रि.ला.रि.(राज.) 330) में कहा है कि विलम्ब मुख्यतः याची की अपेक्षा पर कारित हुई है और विलम्ब के लिए बैंक या अभियोजन दोषी नहीं है। इसलिए यह उपयुक्त मामला नहीं है जिसमें कि अन्तनिर्हित शक्तियों का प्रयोग करते हुए कार्यवाही को निरस्त किया जावे। विद्वान मजिस्ट्रेट द्वारा याचीगण के विरूद्ध भा.द.सं. की धारा 420 तथा 120 बी के अपराध का प्रसंज्ञान पहले ही ले लिया गया है। प्रतिभा रानी बनाम सूरज कुमार (1985) 2 एसीसी सी 370 में यह पहले की धारित किया जा चुका है कि सिविल उपचार का विकल्प आपराधिक क्षेत्राधिकार के लिए कोई अवरोध नहीं है।

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