Thursday 4 August 2011

परिवाद डाक से भी भेजा जा सकता है

सुप्रीम कोर्ट ने पी.के. प्रधान बनाम सिक्किम राज्य के निर्णय दिनांक 24.07.01 में स्पष्ट किया है कि धारा 197 के अन्तर्गत स्वीकृति का प्रश्न  प्रसंज्ञान के बाद कभी भी उठाया जा सकता है यह प्रसंज्ञान के बाद, आरोप विरचित करते समय और अन्वीक्षण के निष्कर्ष  या दोष सिद्धि के बाद भी। इस निष्कर्ष  पर पहुंचने के लिए कि क्या अभियुक्त द्वारा दावा किया गया कार्य उसके कर्त्तव्यों के निष्पादन में था, तर्कसंगत था किन्तु बनावटी नहीं, बहानेबाजी मात्र नहीं, अन्वीक्षण के दौरान बचाव पक्ष को अवसर देकर परीक्षा की जा सकती है। ऐसी स्थिति में स्वीकृति का प्रश्न  मुख्य निर्णय के निर्धारण हेतु खुला छोड़ा जा सकता है जो कि अन्वीक्षा के पूर्ण होने पर दिया जावे।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने राज्य बनाम एस.डी. गुप्ता (1973 क्रि.ला.ज. 999) में यह कहा है कि उपधारा (1) में परिवाद प्राप्त होने पर शब्द प्रयुक्त किये गए हैं। प्राप्त करना शब्द में डाक द्वारा प्राप्त करना शामिल है। इस प्रकार यह लगता है कि धारा 190 में कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि एक परिवादी द्वारा स्वयं या पैरोकार के माध्यम से मजिस्ट्रेट को प्रस्तुत किया जाय। चूंकि परिवाद प्राप्त होते ही तुरन्त परिवादी की परीक्षा करना आवश्यक नहीं है। यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि धारा 200 स्वगर्भित रूप में यह दायित्व डालती है कि परिवाद न्यायालय में परिवादी द्वारा व्यक्तिगत रूप से प्रस्तुत होना चाहिए। यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जब-जब विद्यायिका ने किसी प्रार्थना पत्र को व्यक्तिशः  प्रस्तुत करने का आशय  रखा है तब-तब ऐसा अभिव्यक्त रूपेण किया गया है। चूंकि द प्र सं में अभिव्यक्त या गर्भित ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि परिवादी को मजिस्ट्रेट के समक्ष परिवाद व्यक्तिशः  प्रस्तुत करना पड़ेगा यह धारित नहीं किया जा सकता कि डाक द्वारा परिवाद वैध नहीं है और उस पर प्रसंज्ञान नहीं लिया जा सकता। चूंकि फैक्ट्री इंसपेक्टर ने पूर्व में ही कथन किया कि वह कोई बहस नहीं करेगा और बाद की तिथि पर उसकी उपस्थिति स्पष्टतया आवश्यक नहीं है। यह अवधारणा है कि इस आधार पर मजिस्ट्रेट को परिवाद निरस्त नहीं करना चाहिए था।

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