Monday 22 August 2011

न्यायिक अवमानना

सुप्रीम कोर्ट ने सेबास्टेन एम. हंगरी बनाम भारत संघ (क्रि.ला.रि. १९८४ सुको 237) में कहा है कि ऐसे तथ्य जो रिकॉर्ड पर हों उन्हें तोड़मोड़कर न्यायालय में प्रस्तुत कर न्यायालय को गुमराह करके बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका की जानबूझकर स्वैच्छा से अवज्ञा की गयी है। इस प्रकार स्थापित है कि प्रतिपक्षी सं0 12 और 4 ने रिट की स्वेच्छा से अवज्ञा कर सिविल अवमान किया है। इस प्रकार के मामलों में जैसा कि अनुमत है उदाहरणात्मक क्षतिपूर्ति स्वरूप प्रतिपक्षी सं0 12 उपरोक्त दोनों औरतों प्रत्येक को 1 लाख रूपये आज से 4 सप्ताह के भीतर देंगे।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने कर्णसिंह बनाम राज्य (1986 क्रि.ला.रि. राज0 31) में कहा है कि मुझे यह प्रतीत होता है कि धारा 344 द.प्र.सं.) वे जो कि झूठा साक्ष्य गढकर झूठी गवाही देते हैं के आरोपियों को दण्ड देने तथा अन्वीक्षा के लिए एक अतिरिक्त विधि प्रदान करती है। यह  प्रावधान विवेकाधीन है और जहां न्यायालय का विचार है कि कोई जटिल प्रश्न उपस्थित हो सकते हैं, या कृत्य के लिए अन्यथा गंभीर दण्ड दिया जाना चाहिए या जहां कार्यवाही समीचीन समझी जाती है कि अन्वीक्षण के अंतिम आदेश के निर्णय के चरण तक पहुँचने से पहले संहिता के सामान्य प्रावधानों के तहत कार्यवाही के लिए न्यायालय निर्देश दे सकता है। मजिस्ट्रेट ने धारा 218 भा.द.सं. के अन्तर्गत स्वयं ने प्रसंज्ञान नहीं लिया है और दं.प्र.सं. की धारा 344 का प्रश्न नहीं उठता है। मजिस्ट्रेट परिवाद फाईल करने का निर्देश देने के लिए कानूनतः सक्षम है और कथित आदेश किसी क्षेत्राधिकार या कानूनन सक्षमता की चूक से ग्रसित नहीं है।

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