Sunday 21 August 2011

राजनैतिक हथियारों का सृजन


 जब दिल्ली पूर्णतया संघ शासित प्रदेश था तब दिल्ली पुलिस अधिनियम के अंतर्गत दिल्ली प्रदेश में कानून व्यवस्था की देखभाल के लिए दिल्ली पुलिस का गठन किया गया था| इसी अधिनियम के अंतर्गत विशेष पुलिस संगठन के तौर पर केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो की स्थापना की गयी| हमारी केन्द्रीय सरकार के सामने जब जब किसी राज्य में कानून व्यवस्था की बिगडती स्थित का प्रश्न उठाया जाता है तो वह सामान्यतया यह कहकर दायित्वमुक्त होना चाहती है कि कानून व्यवस्था राज्य सरकार का विषय है| इससे स्वयं  केंद्र सरकार के अधीन कार्यरत केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो की संवैधानिकता एवं वैधता पर प्रश्न चिन्ह लगता है| राज्य सरकार के अनुरोध पर केंद्र सरकार केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो से जांच का निर्देश दे सकती है | किन्तु राजनैतिक शिकार के लिए केन्द्र सरकार केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो का भरपूर उपयोग करती है और राज्य सरकारों के इस अधिकार क्षेत्र में  अतिक्रमण करती रहती है| अभी हाल ही में योगी बालकृष्ण द्वारा फर्जी दस्तावेजों के आधार पर पासपोर्ट लेने के मामले में केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो द्वारा जांच ऐसा ही एक उदहारण है| निश्चित रूप से इस मामले में कोई  बड़ा  राष्ट्रीय हित संलिप्त नहीं है जिसके लिए ऐसी विशेषज्ञ एजेंसी की सेवाएँ लेकर सार्वजनिक धन, समय और सीमित संसाधनों एवं ऊर्जा का अपव्यय किया जाये| इसे राज्य पुलिस भी देख सकती है| दूसरी ओर करोड़ों रुपये के जनता द्वारा सूचित किये गए विभिन्न घोटालों को केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो या तो स्वयं राज्य पुलिस को भेज देता है अथवा विभागीय जांच हेतु स्वयं चोर को ही कोतवाली सौंपकर अपने दायित्व की इतिश्री कर लेता है| केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो केंद्र में सतासीन राजनेतिक पार्टी के हाथों की कठपुतली और जनता के लिए एक अनियंत्रित घोड़े के समान है| लोकत्तंत्र में सभी निकाय जनता के लिए बनाये जाते हैं किन्तु केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो किसी संवैधानिक न्यायलय या केंद्र सरकार के आदेश पर ही मामला दर्ज करता है| केंद्र सरकार अपने राजनेतिक समीकरणों के आधार पर ही जांच का आदेश देते है|

जहाँ राज्य पुलिस द्वारा दर्ज मामलों में दोषसिद्धियाँ मात्र १.५% आती हैं वहीँ केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो का यह प्रतिशत ७० के लगभग है| विचारणीय प्रश्न यह है कि जब इन्हीं कानूनों के अंतर्गत केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो द्वारा ७०% दोष सिद्धियाँ करवाई जा सकती हैं तो फिर राज्य पुलिस इतने कम परिणामों में ही संतोष क्यों कर लेती है| एक अन्य दुखद पहलू यह भी है कि केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो द्वारा दर्ज कुल ८१५ मामलों में से मात्र १८६ ही सरकारी आदेशों से दर्ज हुए हैं शेष ६२९ (७७%) संवैधानिक न्यायलयों के आदेशों पर ही दर्ज हुए हैं | निष्कर्ष यह है कि केंदीय अन्वेषण ब्यूरो एक जन निकाय की तरह कार्य नहीं कर रहा है बल्कि उसे गतिमान करने के लिए तथाकथित सक्षम न्यायालय या सरकार का आदेश चाहिए जोकि आम नागरिक सामान्यतया  प्राप्त  नहीं कर पाता है| हमारे देश में शक्तिसंपन्न लोगों  द्वारा कानून का मनमाना और अपने लिए अनुकूल  अर्थ  लगाया जाता है| दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा २ (ज) में कहा गया है कि अन्वेषण के अंतर्गत वे सब कार्यवाहियां हैं जो इस संहिता के अधीन पुलिस अधिकारी द्वारा या (मजिस्ट्रेट से भिन्न) किसी भी ऐसे व्यक्ति द्वारा जो मजिस्ट्रेट द्वारा इस निमित अधिकृत किया गया है, साक्ष्य एकत्र करने के लिए की जाए| अर्थात मजिस्ट्रेट किसी भी व्यक्ति को अन्वेषण के लिए आदिष्ट कर  सकता है तो फिर केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो इसका अपवाद कैसे हो सकता है| इस धारा के अनुसार हमारी विधायिका का यह अभिप्राय रहा  है कि मजिस्ट्रेट द्वारा भी विशेषज्ञ एजेंसी (केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो) को उपयुक्त मामले में अन्वेषण के लिए आदेश दिया जा सकता है| किन्तु व्यवहार में स्थिति भिन्न है और हमारे संवैधानिक न्यायलय इसे मात्र अपने लिए सुरक्षित एकाधिकार समझते हैं| रुपये ३००० प्रतिमाह कमाने वाले आम नागरिक के लिए उच्च न्यायलय या उच्चतम न्यायालय पहुँचना संभव नहीं है क्योंकि उसके लिए भारी धन की आवश्यकता है और व्यक्तिशः उपस्थित होने वाले याचिगणों को न्यायालयों द्वारा कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है और उन्हें अप्रसन्नता की दृष्टि से देखा जाता है| आम नागरिक यदि न्यायालय के सामने किसी कानून की व्याख्या प्रस्तुत करे तो उसे सहर्ष ग्रहण करने स्थान पर न्यायाधीश उसे अपनी विद्वता को चुनौती समझाते हैं| उच्चतम न्यायालय की वेबसाइट पर उपलब्ध सूचना के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि (अपराधियों को छोड़कर) व्यक्तिशः प्रस्तुत होने वाली याचिकाओं को लगभग प्राथमिक स्तर पर ही ख़ारिज कर औपचारिक निपटान कर दिया जाता है| न्यायधीशों के ऐसे कृत्यों का विरोध करने वाले अधर्मियों को भयभीत किया जाता है और उन पर खर्चे लगाने का भय दिखाकर याचिका ही वापस करवा दी जाती है| उच्चतम न्यायालय में वैसे भी प्रभावी लोगों और घोटालों से सम्बंधित मामलों का बाहुल्य है जिसके चलते आम नागरिक या जनहित के मामलों की सुनवाई के लिए जल्दी बारी ही नहीं आती है| स्पष्ट है कि केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो एक सार्वजानिक एजेंसी कम है और  राजनैतिक हथियार के तौर पर अच्छा कार्य कर रही है |


संक्षेप में यह कटु सत्य है कि द्रौपदी रूपी लोकतंत्र का चीर हरण में लोकतंत्र का कोई भी स्तंभ पीछे नहीं है और सभी शक्ति संपन्न  निरीह जनता का रक्तपान करने को आतुर हैं| इस स्थिति से छुटकारा पाने के लिए आमूलचूल परिवर्तन आवश्यक हैं मात्र कुछ तुष्टिकारक सुधारों से कोई अभिप्राय सिद्ध नहीं होगा | वर्तमान में तो  सरकार द्वारा सृजित होने वाला प्रत्येक नया पद भी मात्र भ्रष्टाचार और जन यातना का एक नया केंद्र साबित हो रहा है |

No comments:

Post a Comment