Tuesday 16 August 2011

उच्च न्यायालय को परिवाद के आरोपों की सत्यता परीक्षण का अधिकार नहीं है

राजस्थान उच्च न्यायालय ने उमाकान्त बनाम राजस्थान राज्य (1992 क्रि.ला.रि. राज. 492) में स्पष्ट किया है कि कोई भी व्यक्ति अपने स्वयं के प्रकरण में न्यायाधीश नहीं हो सकता। यह एक पवित्र कहावत है और एक विवादित विषय वस्तु में एक हितबद्ध को न्यायाधीश होने से रोकता है। एक न्यायिक कार्यवाही में न्याय मात्र होना ही नहीं चाहिए अपितु दिखाई भी देना चाहिए और विवाद्यक के मानस में पक्षपात की कोई तर्कसंगत आशंका नहीं रहनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने सतविन्दर कौर बनाम राज्य (1999 (8) एससीसी 728) में कहा है कि उच्च न्यायालय को परिवाद में लगाये गये आरोपों या संलग्न दस्तावेजों के आधारों पर कार्यवाही करनी होती है। उसे आरोपों की सत्यता या अन्यथा परीक्षण का कोई क्षेत्राधिकार नहीं है। रिकॉर्ड पर उपलब्ध विषय वस्तु का मूल्यांकन करे कि क्या परिवादी द्वारा लगाये आरोपों से कोई अपराध बनता है यदि उन्हें हूबहू स्वीकार कर लिया जाये। इसलिए न्यायालयों को अभिव्यक्त कानूनी प्रावधानों से अलग अन्तनिर्हित शक्तियां उचित जो कि कार्यों और कर्त्तव्यों, विधि द्वारा अधिरोपित के उचित निर्वहन के लिए आवश्यक है।

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