Wednesday 10 August 2011

कानून से बहुत ऊपर

भारतीय न्यायालयों के इतिहास का यह दुखद पहलू रहा है कि अंतिम बहस सुनने के पश्चात भी लंबे समय तक निर्णय नहीं सुनाये जाते हैं| ऐसे उदाहरणों का अभाव नहीं है जिनमें अनावश्यक रूप से लंबे समय तक मामलों को आंशिक सुना रखा जाता है या बहस के बाद कई महीनों तक ही नहीं अपितु वर्षों तक भी निर्णय नहीं सुनाये गए हैं| दूसरी ओर इनमें निर्णय सुनाने के लिए प्रतीक्षाकर दोनों पक्षों से मोलभाव कर न्याय को अनुकूलतम कीमत पर नीलाम करने की सम्भावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है| ऐसे मामलों के बारे में किसी सूचना को स्वेच्छा से उजागर भी नहीं किया जाता है| यहाँ तक कि मांगने पर भी न्यायालयों द्वारा सूचनाएँ देने में संकोच किया जाता है और जनता को अँधेरे में रखा जाता है| आखिर न्यायपालिका अपने आप को कानून से ऊपर जो समझती है| मुकदमेबाजी एक सामाजिक बीमारी है जिसे भारत में छुपाकर रखा जाता है परिणामतः इसका इलाज नहीं हो पाता है| इंग्लैंड में न्यायालय का समस्त रिकार्ड जनता और प्रेस के लिए खुला है और वहाँ निर्णय के अतिरिक्त सुप्रीम कोर्ट प्रेस के लिए सार और जारी करता है| वहाँ निजी व्यक्तियों और संगठनों द्वारा किये गए सर्वेक्षणों को भी वहाँ न्याय विभाग अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित करता है| अमेरिका में समस्त न्यायिक रिकोर्ड वेबसाईट पर ही उपलब्ध है और न्यायालयों  में होने वाली कार्यवाही भी साथ साथ रिकोर्ड कर वेबसाईट पर जारी कर दी जाती है |  

हाल ही में उजागर होते न्यायिक दुराचरण के मामलों को देखते हुए न्यायपालिका में पारदर्शिता की आवश्यकता है| यद्यपि न्यायिक दुराचरण भारत के लिए नया नहीं है और न ही इसमें यह वृद्धि हाल ही में हुई है किन्तु तकनिकी विकास एवं सूचना के अधिकार के कारण यह सार्वजनिक तौर पर प्रकट होना अभी प्रारम्भ हुआ है| हमारे तथाकथित समाज सेवी भी देश की न्यायपालिका का अनावश्यक  महिमामन्डन गुणगान कर उसका वास्तविकता से अधिक मूल्यांकन करते हैं और न्यायपालिका में व्याप्त दोषों को उजागर नहीं करते| इसकी परिणति यह होती है कि न्याय व्यवस्था में कोई सुधार नहीं हो पाता है और महिमा मन्डन करने वाले लोग वास्तविक अर्थों में न्याय का बड़ा अहित कर रहे हैं| मेरे विचार से देश की न्यायपालिका ने लोकतंत्र को मजबूत बनाने में जितना योगदान दिया है शायद उससे कहीं अधिक उसे कमजोर बनाने में योगदान दिया है जिसका शुद्ध परिणाम जनता के सामने है| यहाँ तक कि एकांत में वकीलों के श्रीमुख से भारतीय न्यायपालिका की निरंकुशता की तुलना पाकिस्तानी सेना से करते हुए भी सुना जा सकता है|       

उदाहरण के लिए जनहित याचिकाओं को हमारे न्यायलयों का नया अविष्कार बताया जाता है और विधि की शिक्षा में भी यही भ्रामक बात बताई जाती है | किन्तु वास्तविकता यह है की सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा ९१ व ९२ में लोकहित के मामलों में सिविल न्यायलय में कार्यवाही का अधिकार ०१.०१.१९०९ से पहले से ही प्रभावी है और यह स्पष्ट है कि जो अधिकार एक  निचले स्तर के न्यायालय को है वह ऊपरी न्यायालय भी प्रयोग कर सकता है| इसी प्रकार न्यायलयों द्वारा निषेधाज्ञा जारी करने में प्रमुखता इस बात को दी जानी चाहिए कि यदि निषेधाज्ञा जारी नहीं की गयी तो अपूरणीय क्षति हो जायेगी किन्तु बड़ी दुखद बात है कि जनता को सूचना प्रदान करने के आदेशों के विरुद्ध भी हमारे माननीय न्यायालयों द्वारा निषेधाज्ञाएं जारी  कर दी जाती हैं| यद्यपि दिल्ली उच्च न्यायालय ने पुलिस कमिश्नर की रिट याचिका सं0 8396/2009 के निर्णय में कहा है कि कथित सूचना सूचना का अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत चाही गयी है और सूचना देय है या नहीं इसका निर्णय सूचना का अधिकार अधिनियम के प्रावधान लागू करके ही जांच की जा सकती है। लोक सूचना अधिकारी या अपील प्राधिकारी सूचना देने के लिए नये कारण या आधार नहीं जोड़ सकते। किन्तु जब यही प्रश्न न्यायिक रिकोर्ड के बारे में उठा तो आर एस मिश्रा के मामले में केन्द्रीय सूचना आयोग के सूचना देने के फैसले पर दिल्ली उच्च न्यायलय ने ही रोक लगा दी| इससे यह विश्वास सुदृढ़ होता है कि न्यायपालिका कानून से भी ऊपर है  क्योंकि उसके ऊपर लागू किये जाने वाले कानून के मानक भिन्न हैं| क्या इसे कानून का (अच्छा) शासन कहा जा सकता है? इस प्रकार हमारी न्यायपालिका का दोहरा चरित्र समय समय पर उजागर होता रहता है| संभवतया हमारी न्यायपालिका न्याय के नाम पर कुछ ऐसा कर रही है जिसे सार्वजानिक करना उसके स्वयं के हित में नहीं समझती है |
       सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश ३९ नियम ३ क में एकतरफा निषेधाज्ञा के लिए अधिकतम अवधि ३० दिन निर्धारित है और उच्च न्यायालयों द्वारा अंतरिम निषेधाज्ञा के लिए संविधान के अनुच्छेद २२६(३) के अंतर्गत भी २ सप्ताह का समय नियत है किन्तु इनकी होने वाली अनुपालना सर्व विदित है |
हल ही दिनांक ०३.०८.११ को लोकेश बत्रा के मामले में केन्द्रीय सूचना आयोग द्वारा  कहा गया है कि बहस के बाद निर्णय सुनाने के लिए बकाया मामलों के बारे में जिन आंकड़ों को अपीलार्थी जानना चाहता है सुप्रीम कोर्ट के पास नहीं रखे जाते हैं| यद्यपि सुप्रीम कोर्ट के प्रतिनिधियों ने (जिसमें राजकीय व्यय पर एक वकील भी शामिल था) कहा कि सामान्यतया निर्णय सुरक्षित रखने के बाद २ से ४ सप्ताह के भीतर  उदघोषित कर दिया  जाता है, मात्र कुछ मामलों में ही लंबे समय के बाद निर्णय पारित किये जाते हैं जिनके बारे में आंकडे नहीं रखे जाते हैं |

     सुप्रीम कोर्ट के प्रतिनिधियों का कहना था कि इन आंकड़ों को तैयार करने के लिए प्रत्येक फाइल की संवीक्षा करनी होगी और यह लगभग असम्भव कार्य होगा| अपीलार्थियों  की  ओर से तर्क दिया गया कि यदि सुप्रीम कोर्ट अभी तक यह सूचना नहीं रख रहा है तो अब समय आ गया है कि बकाया मामलों की नागरिकों को जानकारी देने के लिए उसे ऐसा करना चाहिए| अब चूंकि कम्प्यूटरीकरण का लाभ उपलब्ध है अतः ऐसे आंकड़ों को लोगों के सामने रखना कठिन कार्य नहीं होगा| अतः सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि अब वह ऐसा करे ताकि लोग बकाया मामले जान सकें| केन्द्रीय जन सूचना अधिकारी को निर्देश दिए गए कि  इस निर्णय के १५ दिन के भीतर सूचना अधिकारी को निर्देश दिए गए कि  इस निर्णय के १५ दिन के भीतर , यदि उपलब्ध हो तो,  सूचना उपलब्ध कराये और यदि नहीं हो तो सक्षम अधिकारी के इसे ध्यान में लाया जाकर भविष्य में  संकलन तथा प्रकटन हेतु आवश्यक व्यवस्था की जावे| यद्यपि केन्द्रीय सूचना आयोग ने यह लोकतान्त्रिक निर्णय दे दिया है किन्तु हमारी न्यायपालिका के चरित्र और इतिहास को देखते  हुए  तो इसकी नियति तो अभी भी भविष्य के गर्भ में है |

1 comment:

  1. some time back a SLP was dismissed by J. Mukundakam sharma while J Bhandari sat quitely, without giving a minute to the petitioner present in the court to argue his case. Rather petitioner was told by J sharma to keep quite and then asked him to leave the court. the regulation contended by the petitioner for which notice was issued by J, Bedi earlier was not allowed to be discussed at all and order of dismissal passed on half line/half true statement of the govt. counsel. by accepting the half true statement the judges thereby amended the existing law and created a new Law. RP was dismissed by the same judges without answering a single substantial question of law raised therein. Now the govt. quotes that judgement as final where no regulations were not allowed to be argued. THE JUDGES ARE ABOVE THE LAW AND ARE CREATING NEW LAWS AS THEY WISH and enforcing it BECAUSE THEY THINK THEY ARE ABOVE THE LAW AND WHAT EVER THEY SAY CAN NOT BE RULED OVER. had they heard the petitioner argument the arbitrary use/misuse of the army pension regulations continuing since 1961 would have been stopped, which unfgortunately will continue. Shocking is that order states that ASG made a categorical statement which became the basis of the order, BUT how and where he made the statement when ASG was not even present in the courtroom ? Jai hind.

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