Monday 8 August 2011

प्रसंज्ञान अपराध का लिया जाता है न कि अपराधी का

आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने पेमासनी वेकटाचलापति राव बनाम गोविन्दारामूलू (एआईआर 1960 आन्ध्र 300) में कहा है कि धारा 190 (1) (सी) के प्रथम भाग का प्राकृतिक अर्थ यह है कि सूचितकर्ता का आशय स्वयं मजिस्ट्रेट तक कार्यवाही हेतु सूचना, चाहे प्रत्यक्ष या परोक्ष हो, पहुंचने का होना चाहिये। संहिता की यह नीति है जिसे ध्यान देना है कि कोई भी व्यक्ति जिसे अपराध घटित होने का ज्ञान हो, स्पष्ट कानूनी अपवादों के अध्यधीन जैसे कि धारा 195 से 199 तक , वह आपराधिक कानून को गतिमान कर सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने बोर्ड ऑफ कंट्रोल फॉर क्रिकेट इन इंडिया बनाम नेताजी क्रिकेट क्लब (2005 (4) एससीसी 741) में कहा है कि यह कहना गलत है कि न्यायालय पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार प्रयोग करते समय उतरवर्ती घटनाओं पर विचारण नहीं कर सकता। इस प्रकृति के मामले में न्यायालय अपनी गलती स्वीकारता है।
सुप्रीम कोर्ट ने पोपुलर मुथैया बनाम राज्य (2006 (7) एस सी सी 296) में स्पष्ट किया है कि यह सुनिश्चितत कानून है कि न्यायालय अपराध का प्रसंज्ञान लेता है न कि अपराधी का।

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