Wednesday 31 August 2011

निश्चित तरीके से भिन्न ढंग से कार्य मना है

सुप्रीम कोर्ट ने चर्चित प्रकरण ए.आर. अन्तुले बनाम रामदास श्री निवास नायक (1984 एआईआर 718) में कहा है कि यह एक जग जाहिर सिद्धान्त है जिस पर कि अपराध नीति लागू की गई है अर्थात् कानून द्वारा तत्समय दण्डनीय बनाया गया कृत्य या अकृत्य मात्र जो व्यक्ति हानि सहन करता है के संदर्भ में ही अपराध नहीं है बल्कि समूचे समाज के विरूद्ध अपराध है। हमारे विचार में ये कोई जबाब नहीं है कि न्यायालय के ध्यान में ऐसा कोई मामला नहीं आया जिसमें गत बतीस वर्षों में 1947 के (भ्रष्टाचार निवारण )   अधिनियम के अधीन विशेष न्यायाधीश ने अपराध पर प्रसंज्ञान लिया हो। यदि भूतकाल में घटित न होना ही मात्र एक दिग्दर्शिका हो और भविष्य के लिए मनाही हो तो कानून स्थिर हो जायेगा और धीरे-धीरे दूर भाग जायेगा। दं.प्र.सं. की योजना स्पष्ट प्रकट करती है कि जो कोई अपराध की सूचना देना चाहता  वह मजिस्ट्रेट या थाना प्रभारी तक जा सकता है। यदि न्यायालय प्रक्रिया पूर्व सावधानी बरतते हुए परिवादी के समस्त गवाहों की परीक्षा पर बल देगा तो यह परिणाम विपरीत होगा जिससे त्वरित अन्वीक्षण का उद्देश्य विफल होगा। इसी प्रकार जब तक आदेशिका जारी नहीं की जाती है तब तक अपराधी तस्वीर में ही नहीं आता। वह भौतिकतः उपस्थित हो सकता है किन्तु कार्यवाही में भाग नहीं ले सकता। यह कहा गया है कि गंभीर अपराध मात्र सत्र न्यायालय द्वारा अन्वीक्षणीय है। जहां कानून एक कार्य करने के लिए निश्चित तरीके से करने की अपेक्षा करता है वह उसी प्रकार किया जाना चाहिये अन्यथा बिल्कुल नहीं। निष्पादन के अन्य तरीके आवश्यक रूप से निषिद्ध हैं।

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