Thursday 27 October 2011

समाजवाद से भटकता लोकतंत्र

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 में कहा गया है कि राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे, भरसक प्रभावी रूप में स्थापना  और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृद्धि का प्रयास करेगा| राज्य, विशिष्टतया, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यष्टियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा|   

संविधान की इसी भावना के अनुसरण में पिछड़े, कमजोर व वंचित वर्गों, समूहों और क्षेत्रों को विभिन्न  प्रकार के संरक्षण, रियायतें, अनुदान तथा सहायताएँ आदि दी जाती हैं| आयकर की अवरोही दरें, अर्थात अधिक आय पर बढ़ते क्रम में आयकर लगाना इसी योजना का हिस्सा है| यह दर ढांचा आय की असमानता को दूर करने की दिशा में ही एक प्रयास कहा जा सकता है| आयकर की प्रारम्भिक दर 10% है जो ऊपरी आय वर्ग के लिए 30% तक है| न्याय का भी यही सार्वभौम सिद्धांत है कि जिसे जीवन में कम मिला हो उसे कानून में अधिक दिया जाना चाहिए|

किन्तु खेद का विषय है कि अन्य योजनाओं एवं कानूनों में इस सिद्धांत की भावनात्मक अनुपालना नहीं हो रही है| उक्त विवेचन से स्वस्पष्ट है कि कर , शुल्क आदि की वसूली दाता की हैसियत के अनुकूल होनी चाहिए और  राजकोष आदि से नागरिकों को भुगतान इसके विपरीत क्रम में होना चाहिए| हमारे यहाँ स्टाम्प एवं रजिस्ट्री कानून में इस समाजवादी सिद्धांत का ध्यान नहीं रखा गया है और इसमें दरों का ढांचा आयकर से विपरीत है अर्थात कम राशि की रजिस्ट्री कराने वाले (कम साधनों वाले व्यक्ति) की तुलना में अधिक राशि की रजिस्ट्री कराने वाले को प्रतिशत के तौर पर कम शुल्क चुकाना पडता है| एक निश्चित सीमा राशि के बाद रजिस्ट्री शुल्क तो स्थिर है और उससे अधिक रजिस्ट्री करवाने पर कोई अतिरिक्त रजिस्ट्री शुल्क ही नहीं लगता है| इस प्रकार स्टाम्प एवं रजिस्ट्री कानून संविधान के विपरीत किन्तु समाजवादी व्यवस्था के स्थान पर पूंजीवादी व्यवस्था का समर्थन करता है| 

न्याय देना राज्य का कर्त्तव्य है और उसके लिए कोई शुल्क न होकर न्याय निशुल्क होना चाहिए| फिर भी न्याय के लिए यदि राज्य कोई शुल्क लेना चाहे तो यह पोस्टकार्ड की कीमत के समान नाममात्र का होना चाहिए| भारत में कई राज्यों की तो स्थिति यह है कि वहाँ पर सिविल दावों पर प्राप्त न्यायशुल्क में से न्यायालयों का समस्त व्यय घटाने पर भी शुद्ध बचत हो रही है| यद्यपि राज्यों में न्यायशुल्क हेतु अलग अलग कानून हैं फिर भी मूल रूप में व्यवस्था समान ही है| इस प्रकार न्यायप्रदानगी निकाय एक राजकीय सम्प्रभू कृत्य न होकर एक लाभकारी व्यवसाय साबित हो रहा है| न्यायालयों में सिविल मामलों के लिए निर्धारित न्यायशुल्क का ढांचा भी स्टाम्प शुल्क की भांति अवरोही यानी घटते हुए क्रम में है| एक बड़ा दावा करने वाले (संपन्न) पक्षकार को तुलनात्मक रूप से कम प्रतिशत न्यायशुल्क देना पडता है| अर्थात एक कम संसाधनों वाले व्यक्ति को स्वाभाविक रूप से छोटी राशि  के लिए  किये जाने वाले दावे पर तुलनात्मक  अधिक राशि खर्च करनी पड़ेगी और इसके विपरीत बड़े दावे में कम न्याय शुल्क का भुगतान करना पड़ेगा| पूंजीपतियों को मिलने वाले न्याय में विलम्ब से व्यथित होकर अब तो सरकार ने 5 करोड से अधिक के वसूली दावों के लिए उच्च न्यायलयों में विशेष न्यायाधीश लगाने की जनविरोधी योजना भी  बना ली है| सरकार के इन कृत्यों से उसका असली चेहरा अब बेनकाब होता जा रहा है तथा यह और अधिक  स्पष्ट हो गया है कि सरकार जन हितैषी व समाजवादी न होकर पूंजीवादी व्यवस्था की समर्थक बन गयी है|

इतना ही नहीं व्यवहार में हमारे न्यायालय भी जिसे जीवन में कम मिला हो उसे कानून में अधिक दिया जाना चाहिए सिद्धांत की बहुत कम अनुपालना कर रहे हैं| एक सड़क दुर्घटना में एक अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश व वाहन चालक दोनों की मृत्यु हो गयी| चालक निजी टैक्सी से न्यायाधीश महोदय को लेकर आ रहा था| मामला दुर्घटना अधिकरण के विचारार्थ प्रस्तुत हुआ| न्यायाधीश महोदय को चालक की तुलना में पहले  ही 10 गुणा वेतन मिल रहा था और उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी थीं|  दुर्घटना में मृत्यु के पश्चात न्यायाधीश के परिवार को पेंशन, ग्राचुटी, भविष्य निधि, कर्मचारी बीमा आदि के लाभों के अतिरिक्त आश्रित के लिए नौकरी भी सुरक्षित थी और चालक के आश्रितों के लिए इनमें से एक भी आश्रय नहीं था| किन्तु अधिकरण ने न्यायाधीश महोदय के आश्रितों को 30 लाख रुपये और चालक के आश्रितों को मात्र 3 लाख रुपये स्वीकृत कर न्याय के इस सुस्थापित सिद्धांत और संविधान के प्रावधान का मुक्त उपहास किया| अतः अब समय आ गया है कि हमें गहन चिंतन करना है कि संविधान के इन प्रावधानों  की भावनात्मक पालना करें और इन्हें एक थोथी औपचारिकता मात्र नहीं समझें|

2 comments:

  1. Approach does not appears to be right.

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  2. श्री शर्मा जी आपने बेहतरीन आलेख लिखा है| इसके उपरान्त भी आपको देश की सत्ता एवं संसाधनों पर काबिज मुट्ठीभर लोगों का समर्थन मिलना सम्भव नहीं है| यदि आप इनके समर्थन की अपेक्षा करेंगे तो आपको निराशा ही हाथ मिलेगी, लेकिन आपको इससे निराश होने की जरूरत नहीं है| यह तो सदा से होता रहा है| इस देश के लोगों के हजारों वर्षों से दमित, या शोषित या शोषक या उत्पीड़क अवचेतन मन पर अभी भी मनुस्मृति जैसे भेदभाव करने वाले ग्रंथों की अमिट छाप है, जिसमें निम्नतम विपन्न तबके या वर्ग के लोगों को संसाधनों से वंचित करके भी अधिकतम दण्ड, किन्तु सम्पन्न और उच्च वर्ग को सभी संसाधनों पर जन्मजात कब्जा तथा अपराध करने पर कोई दण्ड नहीं या न्यूनतम दण्ड देने के प्रावधान किये गये थे| ऐसे ग्रंथों के समर्थक लोग ही भारत के संविधान में सामाजिक न्याय की अवधारणा को राष्ट्र विरोधी करार देते रहे हैं| आपने तो केवल समाजवाद की बात लिखी है, कभी सामाजिक न्याय की बात लिखकर देखना लोगों के कैसे विचार प्रकट होते हैं!

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