Thursday 1 September 2011

अभियोजन द्वारा विलम्ब और न्यायालय द्वारा दोष मुक्ति

सुप्रीम कोर्ट ने मोहम्मद सफी बनाम बंगाल राज्य (1966 एआईआर 69) में कहा है कि जब एक व्यक्ति ने कुछ ऐसा किया है जो कानून द्वारा दण्डनीय है वह अन्वीक्षण का सामना करने के लिए दायी है और दायित्व महज इसलिए समाप्त नहीं हो जाता कि न्यायालय के समक्ष अन्वीक्षण हेतु प्रस्तुत किया गया उसका विचार है कि उसे आरोपित अपराधी के लिए अन्वीक्षण करने या अपराध का प्रसंज्ञान लेने के लिए कोई क्षेत्राधिकार नहीं है। इसलिए जहां एक न्यायालय चाहे एक गलती से कहे, कि उसे अपराध से दोषमुक्त करने का कोई अधिकार नहीं है। वास्तव में दोष मुक्ति का आदेश शून्य है।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने रामजीलाल बेसीवाल बनाम राजस्थान राज्य ( 1996 क्रि.ला.री. 371) में कहा है कि मैं इस बात पर गंभीर चिन्ता प्रकट करना चाहूंगा कि जिस प्रकार से अधिनस्थ न्यायालयों द्वारा यहां तक कि गंभीर आरोपों के मामले में भी आपराधिक अन्वीक्षा को लिया जा रहा है प्रायः देखा गया है कि अभियोजन एजेन्सी त्वरित अन्वीक्षण के लिए गंभीर नहीं है तथा अभियोजन द्वारा उन साक्ष्यों को परीक्षण एवं प्रस्तुत करने हेतु उचित प्रयास नहीं किये जाते हैं तथा अधिकांश विलम्ब इनकी ओर से ही होता है। यदि अभियोजन एजेन्सी सतर्कता रखे और बिना विलम्ब के अभियोजन साक्ष्यों की परीक्षा करे या अनावश्यक स्थगन नहीं मांगे जाये तो अन्वीक्षण में देरी के लिए मुश्किल से ही कोई आधार होगा। यह भी देखा गया है कि अन्वीक्षण न्यायालय कहने मात्र से स्थगन देने में अत्यधिक उदार हैं और उनके द्वारा साक्ष्यों की उपस्थिति प्राप्त करने के लिए सख्त और सकारात्मक कदम नहीं उठाये जाते हैं। मामलों में बिना गंभीर आरोपों पर ध्यान दिये दयनीय रूप से स्थगन दिये जाते हैं। यदि हम समाज के प्रति न्याय करना चाहते है तो ऐसी परम्परा को जितना जल्दी रोक दिया जाये अच्छा है।

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