Friday 3 June 2011

पक्षपात का प्रमाण देना मुश्किल


सुप्रीम कोर्ट ने कैलाष बनाम ननकू के निर्णय दिनांक 06.04.05 में कहा है कि हम धारित करते है कि आदेष 8 का नियम (1) ;सि.प्र.सं.द्ध यद्यपि आदेषात्मक रूप में परिभाशित है फिर भी प्रक्रियागत कानून में होने से निर्देषात्मक रूप में है। जैसा कि आदेषार्थ नियम (1) सिविल प्रक्रिया संहिता प्रक्रियात्मक कानून का भाग और इसलिए निर्देषात्मक है। सिविल मामलों की त्वरित सुनाई के लिए संसद को इस प्रावधान के बनाने के लिए राजी किया गया। यह धारित किया जाता है कि प्रावधान के समाहित समय-सारणी नियम के रूप में अनुसरण की जानी है और इससे भिन्न अपवाद ही होंगे। विपक्षी द्वारा समय में बढ़ोतरी के लिए आवेदन को रोजमर्रा की तरह स्वीकार नहीं किया जायेगा। विषेशकर तब जबकि 90 दिन की अवधि व्यतीत हो गई हो। विपक्षी द्वारा दिये गये कारणों को रिकॉर्ड पर लेते हुए अपवाद स्वरूप समय में बढ़ोतरी की जा सकती है बषर्ते कि न्यायालय स्वयं संतुश्ट हो। समय में बढ़ोतरी उन परिस्थितियों में अनुमत की जावे जो कि आपवादिक हो, विपक्षी के नियंत्रण से बाहर के कारणों से हो और यदि समय में बढ़ोतरी नहीं की गई तो गंभीर अन्याय हो जायेगा । विपक्षी से तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार खर्चा लगाया जा सकता है तथा उसके द्वारा दिये गये आधारों के समर्थन में षपथ पत्र व प्रलेख मांगे जा सकते है।
सुप्रीम कोर्ट ने भारत संचार निगम लि. बनाम बी.पी.एल. मोबाईल की अपील की संख्या 6344/2003 में कहा है कि प्रत्योजित विधायन निर्विवाद रूप से कमरे में बनाया जाता है न कि संसदीय कानून की तरह सार्वजनिक रूप से। इसलिए अधीनस्थ विधायन के लिए प्रभावी होने हेतु आवष्यक है कि उसे प्रकाषित किया जावे या उपयुक्त तरीके से घोशित किया जावे चाहे ऐसे प्रकाषन या घोशणा मूल कानून ने आवष्यक बनायी हो अथवा नहीं। तब यह ऐसे प्रकाषन या उदघोशणा से प्रभावी होगी। यदि मूल कानून में प्रकाषन हेतु कोई विषेश तरीका बताया गया है तो उसका अनुसरण होना चाहिए ओर जहां मूल कानून मौन है किन्तु अधीनस्थ कानून में कोई प्रावधान है तो ऐसा प्रकाषन पर्याप्त रहेगा।
यदि अधिनस्थ कानून में कोई प्रावधान नहीं है या बिल्कुल अतर्कसंगत प्रावधान है जब इसका प्रकाषन परम्परागत रूप से मान्य षासकीय विधि अर्थात् गजट में या अन्य किसी तर्क संगत माध्यम से प्रकाषन किया जावे। जब अधीनस्थ विधायन का सम्बन्ध कुछ स्थानीय क्षेत्र तक ही सीमित है तो अन्य साधन द्वारा प्रकाषन या घोशणा पर्याप्त हो सकते हैं। समाचार पत्रों की रिपोर्ट केन्द्र सरकार के निर्णय के लिए प्रत्यर्थीगण के लिए कार्य रोकने का आधार नहीं हो सकती।
सुप्रीम कोर्ट ने पष्चिम बंगाल राज्य बनाम षिवानन्द पाठक (एआईआर 1998 एसी सी 2050) में कहा है कि यदि उच्च न्यायालय द्वारा किसी निर्णय को अतिलंघित ;वअमततनसमद्ध कर दिया जावे तो जिस न्यायाधीष के निर्णय को अतिलंघित किया गया है उसे प्रस्तुत कर देना चाहिए। वही उसी कार्यवाही या उन्हीं पक्षकारों के मध्य समानान्तर कार्यवाही में अतिलंघित निर्णय का पुनर्लेखन नहीं कर सकता। इस प्रकार का निर्णय न मात्र पक्षकारों अपितु उस न्यायाधीष पर भी बाध्यकारी है। न्यायाधीष किसी कानूनी या संवैधानिक बिन्दु पर अपना भिन्न दृश्टिकोण रख सकता है किन्तु उसी मामले में नहीं अपितु अन्य मामले में। यदि ऐसा किया जाता है तो वह अपने अहम की संतुश्टि के लिए अपने पक्ष में पक्षपात प्रदर्षित कर रहा है। सुनवाई ऐसे व्यक्ति द्वारा की जानी थी जो कि निश्पक्ष मानस से बैठा हो। पक्षपात जैसा कि पूर्व में कहा गया था मानस की एक दषा है इसलिए हमेषा इसका वास्तविक प्रमाण देना संभव नहीं हो सकता।

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