Thursday 30 June 2011

पुलिस के डंडे से चोटग्रस्त लोकतंत्र

विधि आयोग की रिपोर्ट में आगे कहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने उक्त स्थिति में व्याप्त विषमता को( कस्तुरी लाल बनाम उतरप्रदेश में )  माना है और तदनुसार राज्य के दायित्व को ऐसे मामलों में परिभाषित करने के लिए कानून बनाने की  सिफारिश की है किन्तु तब से 36(अब 46) वर्ष से अधिक व्यतीत होने के उपरांत भी राज्य आगे नहीं बढ़ा है .इसी सन्दर्भ में आँध्रप्रदेश उच्च न्यायालय ने चल्ला रामकृष्ण रेड्डी के मामले में धारित किया है कि जहाँ नागरिक के मूल अधिकारों का  हनन होता है संप्रभुता का बचाव उपलब्ध नहीं होगा .इस निर्णय की सुप्रीम कोर्ट ने भी ( ए आई आर 2000 सु को 2083 में  ) पुष्टि कर दी है .फर्जी मुठभेड़ और हिरासत में मौत के प्रकरणों में हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट सांकेतिक व  अंतरिम क्षतिपूर्ति की रकम स्वीकार करते रहे  हैं और क्षतिग्रस्त पक्षकारों के लिए क्षतिपूर्ति  का मामला उचित मंच द्वारा निर्धारण के लिए स्वतंत्र छोड़ते रहे हैं. यह एक स्पष्ट तथ्य है कि वर्तमान भारतीय दशाओं में पुलिस ज्यादतियों के विरुद्ध राज्य के विरुद्ध दावा एक टेढ़ी खीर है .उपरोक्त समस्त कारणों से अनुचित या विधिविरुद्ध गिरफ़्तारी के लिए सिद्धांततः यद्यपि एक नागरिक को कानून में  उपचार उपलब्ध हैं किन्तु व्यावहारिकतया उपचार शून्य हैं .

रोजमर्रा की  स्थिति यह है कि जब कभी गिरफ़्तारी को अवैध , अनुचित या अवांछनीय पाया जाता है तो कई बार व्यक्ति को शर्तरहित छोड़ दिया जाता है .बस जो कुछ होता है वह इतना ही है . जिस पुलिस अधिकारी ने किसी व्यक्ति को अवैध या अनुचित रूप से गिरफ्तार कर उसकी  स्वतंत्रता में हस्तक्षेप  किया या व्यक्ति को पुलिस अभिरक्षा या अन्यंत्र रोके रखा गया का कुछ नहीं बिगड़ता है .इस स्थिति  ने वास्तव में कुछ पुलिस अधिकारियों को अपनी स्थिति  का दुरूपयोग करने और विभिन्न छुपे कारणों के लिए नागरिकों का उत्पीडन करने का दुस्साहस और बढ़ा दिया है .वे अपनी जानकारी के अनुसार कोई भी विधिविरुद्ध या अवैध कार्य करते हुए भी सुरक्षित हैं क्योंकि यह सेवा में उनके भविष्य और संभावनाओं को  प्रभावित नहीं करेगा जो कुछ होगा गिरफ्तार व्यक्ति न्यायालय द्वारा छोड़ दिया जायेगा .पुलिस अधिकारियों के लिए कुछ प्रतिबन्ध ,दायित्व और दण्ड का प्रावधान कर इस स्थिति  का उपचार करना है .

हाँ चूँकि एक व्यक्ति का अभियोजन नहीं किया गया या दोषसिद्ध नहीं हुआ महज इस कारण इसका आवश्यक रूप से यह अर्थ नहीं है  कि गिरफ़्तारी अवैध या दुर्भावनापूर्ण थी .किन्तु जहाँ न्यायालय यह पाता है कि गिरफ़्तारी पूर्णतया अनुचित थी या शक्ति के दुरूपयोग का एक उदाहरण था तो न्यायालय को पुलिस अधिकारी के विरुद्ध स्वप्रेरणा से या पक्षकार के आवेदन पर उचित आदेश पारित करने की शक्ति होनी चाहिए .वास्तव में जहाँ गिरफ़्तारी अवैध या पूर्णतया अन्यायोचित या शक्ति का दुरूपयोग पायी  जावे ऐसे आदेश पारित करने का दायित्व न्यायालय का होना चाहिए .

राष्ट्र की सभ्यता का मूल्यांकन मुख्यतया उन तरीकों से किया जाना चाहिए जोकि अपराधिक न्याय को लागू करने में प्रयुक्त होते हैं.ब्रिटिश शासन काल में भ्रष्टाचार सामान्यतया पुलिस सहित सभी निचली एजेंसियों में हुआ करता था जोकि सामान्यतया प्रशासन को आम लोगों से अलग करता था . वास्तविक अर्थों में निचले स्तर की नौकरशाही को लोगों से इस प्रकार अलग रखना किन्तु शासकों के प्रति पूर्णतः स्वामिभक्ति ब्रिटिश लोगों को रास आती थी .द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भ्रष्टाचार के लिए गुंजाईश पर्याप्त बढ़ गयी  क्योंकि युद्ध के कारण आपूर्ति एवं ठेकों में सरकारी खर्च में भारी बढ़ोतरी हो गयी थी .पुलिस के रोजमर्रा के कार्य में कई स्तरों पर भ्रष्टाचार एवं उससे जुडी अस्वस्थ परिपाटियों के लिए गुंजाईश उत्पन्न होती है , एक मामले के दर्ज होने से लेकर , गिरफ्तार करने या न करने , उद्दापन ,सिविल मामले में हस्तक्षेप , झूठी गवाही रचने,व्यापारियों ( और अन्य अवैध कार्य करने वालों )से हफ्ता वसूलने और इसी प्रकार अन्य .

गिरफ्तार करने की शक्ति पुलिस द्वारा उद्दापन और भ्रष्टाचार का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है .जिस क्षण पुलिस द्वारा संज्ञेय शिकायत पर मामला दर्ज किया जाता है उन्हें जो कोई भी अपराध से सम्बंधित हो को गिरफ्तार करने की शक्ति मिल जाती है .पूरे देश भर में पुलिस प्रतिदिन बड़ी संख्या में धारा 41 (1) (क ) के अंतर्गत गिरफ्तारियां करती है. उक्त विवरण से स्पष्ट है कि गिरफ्तारियों का अधिसंख्य भाग बहुत छोटे अभियोजनों से सम्बंधित है इसलिए इसे अपराधों की रोकथाम के लिए बिलकुल आवश्यक नहीं समझी जा सकती. यह सर्वविदित है कि कई बार शिकायतकर्ताओं द्वारा विशिष्ट शत्रुओं को गिरफ्तार करवाकर अपमानित करने या व्याकुल करने के लिए पुलिस के साथ मिलकर भ्रष्ट कारणों से झूठे आपराधिक मुकदमे बनाये जाते हैं.

संसदीय समिति ने सुझाव दिया है कि न्यायिक अभिरक्षा में मृत्यु , गायब होना और बलात्कार की घटनाओं को प्रस्तावित संशोधनों के दायरे में लाया जाना चाहिए .यह भी प्रस्तावित किया गया है कि पुलिस/न्यायिक  हिरासत में मृत्यु पर शोक संतप्त परिवार के पात्र सदस्यों को नौकरी या रु 1500पेंशन दिए जाने का सुझाव दिया है .लोकतंत्र में जहाँ लोग स्वामी हैं और लोक सेवक विशिष्ट कार्य करने के लिए उनके एजेंट हैं , अतः भय का विचार पूर्णतः नामंजूर एवं अस्वीकार्य है .भय गलत कार्य करने का होना चाहिए . ब्रिटिश  समाज एक उदाहरण है जहाँ पुलिस कानून व व्यवस्था अधिक बेहतर तरीके से मित्रवत बनाये रखती है .मात्र न्यायालय द्वारा दण्डित किये जाने का भय ही वास्तव में विद्यामान रहना चाहिए .

मेरा मत है कि एक सर्वेक्षण के अनुसार मात्र 1.5% मामलों में ही दोषसिद्धि हो पाती है अतः भारत में न्यायालय द्वारा दण्डित होने का भय लगभग नगण्य है .वास्तव में अन्वीक्षा पूर्व की पीड़ा ही एक भय है .एक अनुमान के अनुसार पुलिस द्वारा दर्ज 70 % मामलों में अंतिम (बंद ) रिपोर्ट दे दी जाती है  तथा विलम्बकारी प्रक्रिया के चलते शेष रहे 30 % मामलों में से एक चोथाई अर्थात 7.5 % में व्यथित या बचाव पक्ष की मृत्यु हो जाती है , 7.5 % में व्यथित या बचाव पक्ष के गवाहों की मृत्यु हो जाती है व 7.5 % में थककर व्यथित व  बचाव पक्ष में राजीनामा  हो जाता  है.शेष रहे 7.5 % में से 20 % अर्थात 1.5 % में दोषसिद्धि हो पाती है . इस प्रकार की न्याय व्यवस्था ( मुकदमेबाजी उद्योग ) अपराधी को दण्डित करने की कोई विश्वसनीय व्यवस्था न होकर तंग परेशान करने या ब्लेकमेल करने का  ही साधन हो सकती है . वैसे भी जन दृष्टीकोण से भारतीय न्यायालयों का संचालन भी बड़ा पोचा है व यह पुलिस के साथ मिलीभगत अथवा उनके भय के साये में ही हो रहा है . इन परिस्थितियों में  न्यायालय द्वारा दण्डित किये जाने के भय से अपराधों को रोकना या कानून व्यवस्था को बनाये रखना पुलिस के लिए चुनौती भरा  काम है और इसलिए वे गिरफ़्तारी ,यातना व थर्ड डिग्री के माध्यम से कानून के स्थान पर वर्दी  का भय उत्पन्न करने का सहारा लेते हैं .

रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि रोकने के सिद्धांत का अर्थ है कि व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और उसकी आज़ादी में हस्तक्षेप बिना वारंट के गिरफ़्तारी का प्रयोग मात्र वहीँ होना चाहिए जहाँ परिस्थितियां इसे आवश्यक बनाती हैं. यह  प्रक्रिया हमारे देश के मात्र संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप ही नहीं होनी चाहिए अपितु वह  ऐसी भाषा में अभिव्यक्त होनी चाहिए जो सरल ,निश्चित और तर्कसंगत हो और ठीक इसी समय व्यापक भी होनी चाहिए .यह कानून लागू करने वाली एजेंसी के साथ साथ नागरिकों के लिए स्पष्ट एवं साफ गाइड होनी चाहिए .जब पुलिस अधिकारी को किसी संज्ञेय अपराध की योजना का पता लगता है और उसे मात्र गिरफ्तार किये जाने के अतिरिक्त रोका नहीं जा सकता हो तो वह  उसे द प्र सं की धारा १५१ के अंतर्गत गिरफ्तार कर सकता है .

जिस बात पर बल दिया जाना है वह यह है कि गिरफ़्तारी मात्र वहीँ की जानी चाहिए जहाँ यह आवश्यक हो . यही रोकने का  सिद्धांत है जिसका ऊपर सन्दर्भ लिया गया है .यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि गिरफ़्तारी कोई दण्ड नहीं अपितु यह व्यक्ति को पुलिस या न्यायिक अभिरक्षा  में विशेष उद्देश्य या उद्देश्यों के लिए , जैसी भी स्थिति हो रोकना है .ये उद्देश्य अनुसन्धान के दौरान उसकी उपस्थिति सुनिश्चित करने या जब कभी उसकी उपस्थिति न्यायालय द्वारा अपेक्षा की जावे या जहाँ उपरोक्त में से एक या अधिक कारणों से अपेक्षा की जावे .वास्तव में हत्या , डकैती ,आगजनी ,राज्य के विरुद्ध अपराध और महिलाओं के विरुद्ध अपराध व वास्तव में सात वर्ष से अधिक दंडनीय अपराध के मामलों में गिरफ़्तारी जनता में विश्वास जागृत करने के लिए हो सकती है .

इसे दूसरे शब्दों में कहें तो , गिरफ़्तारी रोकथाम के साथ साथ दमनकारी भी हो सकती है  ऐसा न्यायविद कहते हैं. रोकथाम के उद्देश्य में संरक्षणात्क शामिल है .इस शक्ति का प्रयोग वहाँ किया जायेगा जहाँ अपराध किये जाने को रोकने , शांति भंग को समाप्त करने ,जिस व्यक्ति की गिरफ़्तारी के बिना स्वयं या अन्यों की रक्षा खतरे में हो ,गवाहों या अपराध के प्रमाणों के साथ छेड़छाड़ को रोकने और इसी प्रकार से अन्य मामलों में आवश्यक हो .दमनकारी उद्देश्यों में वे शामिल हैं जहाँ गिरफ़्तारी या रोकने का उद्देश्य न्यायालय या कहीं उपस्थिति को जहाँ आवश्यक हो विवश करना  या उसकी सहायता  से अपराध के सम्बन्ध में साक्ष्यों को एकत्रित करना है .

अब हमें समस्या पर दूसरे दृष्टीकोण से देखना है .जहाँ तक बहुसंख्य अपराधियों का प्रश्न है (हत्या , डकैती , लूटपाट , और राज्य के विरुद्ध अपराध आदि को छोड़ते  हुए ) वे गायब होने वाले नहीं हैं , तो क्या एक व्यक्ति को महज इसलिए गिरफ्तार कर लिया जाय कि वह किसी संज्ञेय अपराध से सम्बंधित है , जहाँ  अपराध बिना पुलिस  अधिकारी की  मौजूदगी के पहले ही किया जा चुका है .

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