Saturday 11 June 2011

न्यायिक दायित्व


सुप्रीम कोर्ट ने मेनका संजय गांधी बनाम रानी जेठमलानी (1979 एआईआर 468) में कहा है कि हमें याची के आधारों की इस नियम के आलोक में परीक्षा करनी है कि सामान्यतया षिकायतकर्ता को यह अधिकार है कि क्षेत्राधिकार वाले  न्यायालयों में से चुनाव करे और अभियुक्त इस बात पर हावी नहीं हो सकता कि उसके विरूद्ध किस न्यायालय में अन्वीक्षा की जाय। अन्वीक्षण न्यायालय को अभियुक्त की व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट के लिए, आवष्यक अवसरांे को छोड़ते हुए, अपनी षक्ति का प्रयोग करना चाहिए। मजिस्ट्रेट न्यायालय की कार्यवाहियांे के व्यवस्थित संचालन का स्वामी है। यदि धमकाने से उसका कार्य बाधित होता है तो उसकी प्राधिकृति नहीं लंगड़ानी चाहिए। भीड़ न्यायिक प्रक्रिया के गियर एवं पहियों को व्यवस्था से बाहर कर सकती है। सुनियोजित भय पक्षकार के अपना मामला या परीक्षण में भाग लेना की क्षमता बाधित कर सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने वकील प्रसाद सिंह बनाम बिहार राज्य के निर्णय दिनांक 23.01.09 में कहा है कि ऐसी प्रक्रिया जो तर्क संगत त्वरित अन्वीक्षा सुनिष्चित नहीं करती उसे तर्कसंगत, उचित या न्यायपूर्ण नहीं माना जा सकता और यह अनुच्छेद 21 के क्रम में दूशित है। न्यायालय ने स्पश्ट किया कि अन्वीक्षण का अर्थ तर्कसंगत त्वरित अन्वीक्षण से है जो कि अनुच्छेद 21 के अर्थ में जीवन तथा स्वतन्त्रता के मूल अधिकार का एकीकृत एवं आवष्यक भाग है। अनुच्छेद 21 के अनुसरण में अन्वीक्षण के अधिकार के संदर्भ में सभी चरणों पर नाम्ना- अनुसंधान, जांच, अन्वीक्षा, अपील, पुनरीक्षण एवं पुनः अन्वीक्षण षामिल है।
सुप्रीम कोर्ट ने बाबूभाई जमनादास पटेल बनाम गुजरात राज्य के निर्णय दिनांक 02.09.09 में कहा है कि न्यायालय को नागरिकों जिनके हितों के लिए वे बनाये गये हैं उनके द्वारा दायित्वों व कर्त्तव्यों के निर्वहन में प्राधिकारियों की अकर्मण्यता पर लगातार सतर्कता रखनी होती है । अतः इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जब न्यायालय को यह संतोश हो कि अनुसंधान नहीं हो रहा है या हितबद्ध लोगों द्वारा प्रभावित हो रहा है तो उपयुक्त मामलों में न्यायालय को किसी अपराध के अनुसंधान का अनुश्रवण करना पड़ता है । यदि न्यायालय के यह ध्यान में लाया जाता है कि किसी अपराध में अनुसंधान जिस प्रकार से होना चाहिए उस तरह नहीं हो रहा है तो अनुसंधान एजेन्सी को न्यायालय द्वारा निर्देष दिया जाये कि निर्धारित दिषा निर्देषों के अनुरूप अनुसंधान हो अन्यथा अनुसंधान का उद्देष्य फलहीन हो जायेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने अरूंधति राय के अवमान प्रकरण के निर्णय दिनांक 06.03.02 में कहा है कि एक समाज जो कि पहले से राजनैतिक दिवालियापन, आर्थिक विपन्नता तथा धार्मिक व सांस्कृतिक असहिश्णुता से ग्रसित हो में न्यायिक असहिश्णुता एक गंभीर चोट का कार्य करेगी। यदि न्यायपलिका अपने ऊपर से जन संवीक्षण एवं जिम्मेदारी को हटा लेती है तथा समाज से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लेती है तो जिसे सर्वप्रथम पूर्ण करने के लिए इसे स्थापित किया गया था इसका अभिप्राय यह होगा कि भारतीय लोकतन्त्र का दूसरा स्तम्भ धराषायी हो जायेगा। न्यायिक तानाषाही एक सैनिक तानाषाही या अन्य एक चक्रीय षासन से भी अधिक घातक साबित होगी। कानून का सुपरिचित प्रस्थापन यह है कि वह धनुर्धर को तीर चलाते ही दण्डित करता है चाहे यह लक्ष्य के टकराने में चूक जाये।

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