Wednesday 8 June 2011

न्यायालय की सीमाएं


सुप्रीम कोर्ट ने आयकर आयुक्त बनाम खोडे एसवारा एण्ड संस (1972 एआईआर 132) में कहा है कि यह स्पश्ट है कि अर्थदण्ड सम्बन्धित कार्यवाही दाण्डिक प्रकृति की है अतः विभाग को अर्थदण्ड लगाने से पूर्व विभाग को सुसंगत सामग्री या साक्ष्य जिससे अर्थ निकाला जा सके कि कर निर्धारिती ने जानबूझकर अपनी आय को छुपाया है या इसके सम्बन्ध में साषय अषुद्ध विवरण दिये हैं और विवादित रकम राजस्व प्राप्ति है ,कर-निर्धारिती द्वारा दिये गये मिथ्या स्पश्टीकरण से दूर  यह स्थापित करना चाहिए कि विवादित रकम कर-निर्धारिती की आय बनती है ।
सुप्रीम कोर्ट ने पदमसिंह बनाम उत्तरप्रदेष राज्य (2000(1) एससीसी 621) में स्पश्ट किया है कि अपीलीय न्यायालय का कर्त्तव्य है कि वह प्राप्त की गई साक्ष्य को देखे और स्वतन्त्र निश्कर्श पर पहंुचे इस साक्ष्य पर निर्भर हुआ जा सकता है या नहीं और यदि निर्भर हुआ जा सकता है तो भी क्या अभियोजन ने इस साक्ष्य पर तर्कसंगत संदेह के बिना साबित कर दिया है।
सुप्रीम कोर्ट ने केरल राज्य बनाम पी.वी. नीलकंदन नायर (2005 (5) एससीसी 561) में स्पश्ट किया है कि षब्दों में साधारण और व्याकरणीय अर्थ पर बल दिया जाना चाहिए यदि उससे षेश विलेख के साथ असंगतता या मूर्खता नहीं होती है। उस स्थिति में ही इन षब्दों को संषोधित किया जा सकता है जिससे कि असंगतता या जड़ता को टाला जा सके।
सुप्रीम कोर्ट ने अमरनाथ बनाम हरियाणा राज्य (एआईआर 1977 एससी 2185) में स्पश्ट किया है कि कोई आदेष जो अभियुक्त के अधिकार को सारवान रूप से प्रभावित करता है या पक्षकारों के कुछ अधिकारों का विनिष्चय करता है अन्तर्वर्ती आदेष नहीं हो सकता जिसे कि धारा 397 के अन्तर्गत बाधित माना जावे।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने राज्य बनाम सोहनलाल (एआईआर 1960 राज0 44) में स्पश्ट किया है कि हम ससम्मान यह धारित करते है कि कुछ न्यायालयों ने यह धारणा, जो कि मुष्किल से ही सही है, बना रखी है कि कोई भी प्रक्रिया चाहे कितनी ही तर्कसंगत और उचित हो उसे नहीं अपनाया जाना चाहिए जब तक कि संहिता में इस हेतु अभिव्यक्त उपबन्ध नहीं हो। जहां तक हम समझते है प्रक्रियाओं के मामलों में सही सिद्धान्त यह है कि एक प्रक्रिया विषेश को अनुमत माना जाना चाहिए जब तक उसकी मनाही नहीं हो तथा प्रत्येक प्रक्रिया की मनाही नहीं मानी जानी चाहिए। यदि ऐसा प्रावधान नहीं हो और इस सामान्य नियम के अनुसरण में कोई संभावित वैध आपति भी नहीं है जहां किसी पक्षकार के हित पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता हो और दूसरी ओर ऐसी प्रक्रिया का अनुसरण करने का उद्देष्य इस प्रकार का पूर्वाग्रह टालना हो।
सुप्रीम कोर्ट ने डी.आर. वेंकटाचलम बनाम उपायुक्त परिवहन (एआईआर 1977 एस सी 842) में कहा है कि न्यायालयों को अपनी पूर्व धारणा के आधार पर किसी प्रावधान का अर्थ लगाने के खतरे को टालना चाहिए जिससे कि प्रावधान फिट हो जाये। व्याख्या को आवरण में उन्हें विधायी कार्य की अनाधिकृत चेश्टा नहीं करनी चाहिए।
कलकता उच्च न्यायालय ने तारकचन्द बनाम रतनलाल (1957 एआईआर 257) मे स्पश्ट किया है कि किसी को संविधि (कानून) में पूर्णता और विलेख में व्याख्या की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए और जहां एक विषेश अभिप्राय लगाने के लिए न्यूनतम स्पश्टता उपस्थित हो तो ऐसे अभिप्राय को प्रभाव देना चाहिए। यहां तक कि जहां न्यूनतम अनुपस्थित हो तो न्यायालयों को कमी घोशित करनी चाहिए और अपने आप इसकी पूर्ति पर बल देने के स्थान पर इसे प्रभाव देना चाहिए। लेकिन न्यायालय न्यूनतम को भी छोड़ नहीं सकते। तद्द्वारा न्यायालय मात्र अपने आपको विधायन कार्य में प्रविश्ट होने से नहीं रोकेंगे अपितु विधायिका भी इससे लाभान्वित होगी क्योंकि यह भविश्य में ऐसी कमी की पुनरावृति नहीं होने देगी।

No comments:

Post a Comment